Sunday, August 10, 2008

सचमुच तरक्की भी क्या चीज है..


सभ्यता व्यंग्य से मुस्कुराती है
जंगल के आदिम जब "मांदर" की थाप पर
लय में थिरकते हैं
जूड़े में जंगल की बेला महकती है
हँसते हैं, गुच्छे में चिडिया चहकती है
देवी है, देवा है
पंडा है, ओझा है
रोग है, शोक है, मौत है..
भूख है, अकाल है, मौत है..
फिर भी यह उपवन है
हँसमुख है, जीवन है

करवट बदलता हूँ अपनी तलाशों में
होटल में, डिस्को में, बाजों में, ताशों में
बिजली के झटके से जल जाती लाशों में
भागा ही भागा हूँ
पीछा हूँ, आगा हूँ
जगमग चमकती जो
दुनिया महकती जो
उसके उस मौन को
मैं हूँ "क्या" "कौन्" को
उस पल तब जाना था
जबकि कुछ हाथों ने मस्जिद गिराई थी
राम अब तक घुटता है भीतर मेरे
फिर कुछ हाथों ने मंदिर जलाया था
रहीम के चेहरे में अब भी फफोले हैं

देखो तो आईना हँसता है मुझपर
सभ्यता के लेबल पर, मेरी तरक्की पर
हम्माम में ही आदमी का सच नज़र आता है
दंगा ऐसा ही गुसलखाना है मेरे दोस्त
अपनी कमीज पर पडे खून के छींटे संभाल कर रखना
कि दंगा तो होली है,
हर बार नयी कमीज क्यों कर खराब करनी?

तरक्की का दौर है, आदमी बढा है
देखो तो कैसा ये चेहरा गढा है
ऊपर तो आदम सा लगता है अब भी
मुखड़ा हटा तो कोई रक्तबीज है
नया दौर है, सचमुच तरक्की भी क्या चीज है

*** राजीव रंजन प्रसाद

२८.०१.२००७

6 comments:

Sunil Deepak said...

बहुत सुंदर. कड़वी और मन को छूने वाली कविता के साथ की तस्वीर में भी वही उस्तरे की धार है.

L.Goswami said...

इस दर्द को मुझसे अच्छा कौन समझ सकता है .मैंने अपने सामने प्रकृति का बहुत विनाश देखा है

राकेश जैन said...

hriday sparshi rachna..

बालकिशन said...

"होने लगी है तरक्की और बाज़ार की बातें
यारों काम से ये शहर भी गया"

Udan Tashtari said...

तरक्की का दौर है, आदमी बढा है
देखो तो कैसा ये चेहरा गढा है
ऊपर तो आदम सा लगता है अब भी
मुखड़ा हटा तो कोई रक्तबीज है
नया दौर है, सचमुच तरक्की भी क्या चीज है


--गजब भाई. बहुत जबरदस्त, दिल को छू गई.

ज़ाकिर हुसैन said...

मैं हूँ "क्या" "कौन्" को
उस पल तब जाना था
जबकि कुछ हाथों ने मस्जिद गिराई थी
राम अब तक घुटता है भीतर मेरे
फिर कुछ हाथों ने मंदिर जलाया था
रहीम के चेहरे में अब भी फफोले हैं

दिल को छू गई.