Sunday, July 16, 2017

राखी का वह नेग (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 29)


रक्षाबन्धन पर बहुत सी कहानियाँ हमारे सम्मुख हैं। अधिकतम कहानियाँ पौराणिक आख्यान हैं तो कुछ भारत के गौरवशाली इतिहास में सद्भावना वाले पन्नों से भी जुड़ी हुई हैं। रक्षाबन्धन के पर्व की महत्ता जितनी अधिक है यदि इतिहास टटोला जाये तो उससे जुडे अनेक ऐसे प्रसंग और भी हैं, जिन्हें यदि दस्तावेजबद्ध किया जाये तो आने वाली पीढी को अपनी संस्कृति व अतीत को सही तरह से समझने में सहायता मिल सकती है। इसी तरह की एक कहानी सत्रहवीं सदी के बस्तर राज्य से जुडी हुई है। 

बस्तर के राजा राजपालदेव (1709 – 1721 ई.) की दो रानियाँ थी – रुद्रकुँवरि बघेलिन तथा रामकुँवरि चंदेलिन। रानी रुद्रकुँवरि से दलपत देव तथा प्रताप सिंह राजकुमारों का जन्म हुआ तथा रानी रामकुँवरि के पुत्र दखिन सिंह थे। रानी रामकुँवरि अपने पुत्र दखिन सिंह को अगला राजा बनाना चाहती थी किंतु बीमारी के कारण वे स्वर्ग सिधार गये। इसके एक वर्ष पश्चात ही (वर्ष 1721 ई.) राजा राजपालदेव का भी निधन हो गया। राजा के दोनों बेटे उनकी मौत के समय राजधानी से बाहर थे। रानी रामकुँवरि अभी भी षडयंत्र कर रही थीं। मौका पा कर बस्तर का सिंहासन रानी रामकुँवरि के भाई चंदेल कुमार (1721-1731 ई.) ने हथिया लिया। असली वारिस खदेड़ दिये गये। राजकुमार प्रतापसिंह रीवा चले गये और दलपतदेव ने जैपोर राज्य में शरण ली। जैपोर के राजा की सहायता से दलपतदेव ने कोटपाड़ परगना पर अधिकार कर लिया। अब वे बस्तर राज्य के दरबारियों से गुपचुप संबंध स्थापित करने लगे। एक वृहद योजना को आकार दिया जाने लगा और इसके प्रतिपादन का दिन निश्चित किया गया – रक्षाबन्धन। दलपतदेव ने मामा को संदेश भिजवाया कि उन्हें आधीनता स्वीकार्य है तथा वे राखी के दिन मिल कर गिले-शिकवे दूर करना चाहते हैं। संधि का प्रस्ताव पा कर मामा की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं था। इस संधि से उसका शासन निष्कंटक हो जाने वाला था। वर्ष 1731 को रक्षाबन्धन के दिन दलपतदेव नेग ले कर दरबार में उपस्थित हुए। मामा-भाँजे का मिलन नाटकीय था। भाँजे ने सोचने का अवसर भी नहीं दिया। निकट आते ही अपनी तलवार खींच ली और सिंहासन पर बैठे मामा का वध कर दिया (दि ब्रेत, 1909)। इस तरह दस साल भटकने के बाद दलपत देव (1731-1774 ई.) ने अपना वास्तविक अधिकार रक्षाबन्धन के दिन ही प्राप्त किया था।

- राजीव रंजन प्रसाद

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