Wednesday, July 26, 2017

जन-संघर्ष और स्कंदवर्मन (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 39)


अर्थपति भट्टारक (460-475 ई.) राजसिंहासन पर बैठे तब महाकांतार से कोशल तक तथा कोरापुट से बरार तक के क्षेत्र पर नल-त्रिपताका लहराने का दौर था। अर्थपति विलासी शासक प्रतीत होते हैं, कदाचित व्यसनी। वाकाटक नरेश पृथ्वीषेण (460-480ई.) ने नलों की राजधानी नन्दिवर्धन पर तीन दिशा से हमला कर दिया। अर्थपति नल साम्राज्य की प्राचीन राजधानी पुष्करी की ओर भागे लेकिन वहाँ तक भी उनका पीछा किया गया। एक-एक प्रासाद और मकान तोड़ दिया गया। इसके बाद पृथ्वीषेण ने अर्थपति भट्टारक को उसके हाल पर छोड़ दिया और वह नव-विजित राजधानी नन्दिवर्धन लौट आया। अर्थपति के निधन के बाद उनके छोटे भाई स्कंदवर्मन (475-500 ई.) का अत्यधिक साधारण समारोह में राजतिलक किया गया। यह राजतिलक केवल परम्परा के निर्वाह के लिये ही था क्योंकि उनके पास न तो भूमि थी न ही कोई अधिकार। 

स्कंदवर्मन ने अपने विश्वासपात्र साथियों के साथ खुले वातावरण में बैठक की तथा अपने दिवास्वप्न से मित्रो को अवगत कराया। वे महाकांतार से वाकाटकों को खदेड़ कर नल-राज पताका पुन: प्रशस्त करना चाहते थे। स्कंदवर्मन एक कुशल योजनाकार थे; अद्भुत संगठन क्षमता थी उनमें। राजधानी से दूर महाकांतार की सीमाओं में रह रही प्रजा को सैन्य-प्रशिक्षण दिया जाने लगा। वाकाटक राजाओं को कमजोर करने का कार्य उनकी जन-विरोधी नीतियों ने भी स्वत: कर दिया था। वाकाटकों से असंतुष्ट धनाड्यों ने चुप-चाप स्कंदवर्मन तक आर्थिक मदद भी पहुँचायी। पहले छापामार शैली में छुट-पुट आक्रमण किये गये। छोटी छोटी जीत, शस्त्रों और सामंतों के पास संग्रहित करों की लूट से प्रारंभ हुआ अभियान अब स्वरूप लेने लगा। वाकाटकों के आधीन अनेकों सामंतो ने अवसर को भांपते हुए अपनी प्रतिबद्धता बदल ली। इधर राजा पृथ्वीषेण की मृत्यु के पश्चात वाकाटक और भी कमजोर हुए थे; ज्येष्ठ पुत्र देवसेन ने महाकांतार की सत्ता संभाल ली थी। स्कंदवर्मन ने नन्दिवर्धन किले पर विजय हासिल कर देवसेन को उसी शैली में निर्वासित कर दिया गया जैसा हश्र कभी अर्थपति भट्टारक का हुआ था।

- राजीव रंजन प्रसाद 

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