Monday, July 31, 2017

बस्तर में सागर (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 43)


हमने उन विरासतों को भी नहीं सम्भाला जो हमारी ही सुरक्षा के निमित्त निर्मित किये गये थे। छत्तीसगढ राज्य के ऐतिहासिक दृष्टि के महत्वपूर्ण सबसे बडे मानव निर्मित जलाशयों में से एक दलपतसागर, आज अपने अस्तित्व को बचाने की लडाई लड़ रहा है। कभी समाचार आता है कि भू-माफिया आसपास की जमीन को धीरे धीरे निगलते जा रहे हैं तो कभी यह कि जलकुम्भियों की जकडन में दलपत सागर दम तोड रहा है। कभी कभी वैज्ञानिकों के इस सागर को बचाने की कोशिशों की सफल-असफल खबरें आती हैं। जापान से किसी मछली को ला कर तालाब में डाला गया था कि वह जलकुम्भियों से लड सके लेकिन असफलता हाथ लगी। ब्राजील से किसी ऐसे कीडे के द्वारा जो जलकुम्भी में ही पनपता है उसे ही भोजन बनाता है के माधयम से इससे निपटने का प्रयोग किया गया। समग्र प्रयासों के बाद भी समस्या अभी विकराल है, इस हेतु जन-भागीदारी सहित अधिकाधिक कोशिशों की आवश्यकता है। यह इसलिये भी कि इस झील का अपना समाजशास्त्र है, अर्थशास्त्र है साथ ही गर्व करने योग्य इतिहास भी है।         

इतिहास की बात करें, राजा दलपत देव के लिये जगदलपुर को राजधानी के लिये चयन करने के पश्चात उसे बाह्याक्रमणों से सुरक्षित रखना बड़ी चुनौती थी। यह निश्चित किया गया कि चयनित राजमहल परिक्षेत्र के पश्चिम दिशा में एक विशाल झील का निर्माण किया जाये। इस स्थान पर तीन तालाब यथा – सिवना तरई, बोड़ना तरई तथा झार तरई पहले से ही अवस्थित थे। इन तीनों ही तालाबों को आपस में मिला कर झील निर्माण का कार्य आरम्भ हुआ। स्वयं राजा दलपत देव नित्य कार्य की प्रगति  देखने पहुँचते। एक दिन कार्य के दौरान एक हाथी की मृत्यु हो गयी। इस विशालकाय जीव को कहीं अन्यत्र ले जाना संभव नहीं हुआ तब मृत्यु स्थल पर ही उसे दफन कर दिया गया। हाथी की इस समाधि ने एक टीले का स्वरूप ले लिया था इस स्थान को मेंड्रा ढिपका के नाम से पहचान मिली है। झील की खुदाई से जो मिट्टी निकाली जाती उसका प्रयोग राजधानी के चारो ओर की जाने वाली किलेबंदी के लिये किया गया। लगभग 352 एकड विस्तार वाली विशाल झील जब निर्मित हुई तब उसका नाम दलपत सागर रखा गया। 

- राजीव रंजन प्रसाद
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