Thursday, July 20, 2017

गुरु घासीदास, दंतेश्वरी मंदिर और नरबलि (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 32)


छत्तीसगढ रज्य गुरु घासीदास का कृतज्ञ है जिन्होंने यहाँ की मिट्टी को अपनी उपस्थिति तथा ज्ञान से पवित्र किया था। गुरू घासीदास का जन्म 18 दिसम्बर 1756 को रायपुर जिले के गिरौदपुरी ग्राम में एक साधारण परिवार में हुआ था। संत गुरु घासीदास ने समाज में व्याप्त असमानताओं, पशुबलि जैसी कुप्रथाओं का विरोध किया। हर व्यक्ति एक समान है की भावना को विस्तारित करने के लिये उन्होंने 'मनखे-मनखे एक समान' का संदेश दिया। सतनाम पंथ के ये सप्त सिद्धांत  प्रतिष्ठित हैं  - सतनाम पर विश्वास, मूर्ति पूजा का निषेध, वर्ण भेद की अमान्यता, हिंसा का विरोध, व्यसन से मुक्ति, परस्त्रीगमन की वर्जना और दोपहर में खेत न जोतना। 

यह मेरी सहज जिज्ञासा थी कि गुरु घासीदास का बस्तर पर क्या और कितना प्रभाव था। डॉ. सुभाष दत्त झा का एक आलेख पुस्तक - बस्तर: एक अध्ययन में प्रकाशित हुआ है। संदर्भ दिया गया है कि – छत्तीसगढ के प्रसिद्ध संत गुरुघासीदास के बारे में एक विवरण प्राप्त होता है जिसमें उन्हें बलि हेतु पकड़ लिया गया था परंतु रास्ते में उनकी उंगली कट गयी थी अत: अंग भंग वाली बलि न चढाने के रिवाज के कारण उन्हें छोड दिया गया (पृ 77)। जानकार मानते हैं कि गुरु घासीदास ने रियासतकाल में परम्परा की तरह दंतेश्वरी मंदिर में होने वाली नर-बलि को रोकने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। दंतेश्वरी मंदिर तथा यहाँ होने वाली कथित नरबलि की सैंकडों कहानियाँ जनश्रुतियों में तथा तत्समय के सरकारी दस्तावेजों में दर्ज हैं।  यद्यपि अंग्रेज जांच कमीटियों के कई दौर के बाद भी यह सिद्ध नहीं कर सके थे कि दंतेश्वरी मंदिर में नरबलि दी जाती है। गुरु घासीदास के सम्बन्ध में यह संदर्भ इसलिये रुचिकर तथा प्रमाणपूर्ण लगता है क्योंकि अपनी शिक्षाओं में भी वे बलि प्रथा और अन्य नृशंसताओं के विरोध में खडे दिखते हैं।   

- राजीव रंजन प्रसाद

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