Saturday, July 15, 2017

पत्थर की गद्दी और जंगल की सत्ता (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 27)


छिन्दक नाग वंशीय शासकों को निर्णायक रूप से पराजित करने के पश्चात अन्नमदेव (1324 – 1369 ई.) के लिये अपने विजय अभियान को समाप्त कर स्थिरता प्राप्त करने का समय आ गया था। उन्होंने विजित भूभाग को को मिला कर उसे बस्तर राज्य का स्वरूप दिया। अन्नमदेव की मन:स्थिति की विवेचना करना आवश्यक है चूंकि वे वरंगल जैसे धनाड्य राज्य के राजकुमार थे जो तुगलकों के हाथो पतन के पश्चात इस क्षेत्र में पहुँचे थे। जिस वारंगल राज्य का खजाना हजारों ऊँटों मे लदवा कर दिल्ली भेजा गया हो वहाँ से घनघोर वनप्रांतर में पहुँचने के पश्चात अन्नमदेव की धन और भूमि एकत्रित करने की लालसा समाप्त हो गयी थी। उन्होने नागों को पराजित किया किंतु वे पैरी नदी के आगे नहीं बढे चूंकि शक्तिशाली शासकों को अपनी ओर  आकर्षित नहीं करना चाहते थे। उनका विजित राज्य चारो ओर से भौगोलिक रूप से सुरक्षित सीमा के भीतर अवस्थित था जिसमें बारह जमींदारियाँ, अढ़तालीस गढ़, बारह मुकासा, बत्तीस चालकी और चौरासी परगने थे। जिन प्रमुख गढ़ों या किलों पर अधिकार कर बस्तर राज्य की स्थापना की गयी वो हैं - मांधोता, राजपुर, गढ़-बोदरा, करेकोट, गढ़-चन्देला, चितरकोट, धाराउर, गढ़िया, मुण्डागढ़, माड़पालगढ़, केसरपाल, राजनगर, चीतापुर, किलेपाल, केशलूर, पाराकोट, रेकोट, हमीरगढ़, तीरथगढ़, छिन्दगढ़, कटेकल्याण, गढ़मीरी, कुँआकोण्ड़ा, दंतेवाड़ा, बाल-सूर्य गढ़, भैरमगढ़, कुटरू, गंगालूर, कोटापल्ली, पामेंड़, फोतकेल, भोपालपट्टनम, तारलागुड़ा, सुकमा, माकड़ी, उदयगढ़, चेरला, बंगरू, राकापल्ली, आलबाका, तारलागुड़ा, जगरगुण्ड़ा, उमरकोट, रायगड़ा, पोटगुड़ा, शालिनीगढ़, चुरचुंगागढ़, कोटपाड़.......। 

कांकेर से, साथ ही पराजित नाग राजाओं के पुन: संगठित होने के पश्चात उत्तरी क्षेत्रों की ओर से मिल रही चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए अन्नमदेव ने बड़े-डोंगर को नवगठित बस्तर राज्य की पहली राजधानी बनाया। यहाँ अन्नमदेव ने अपनी आराध्य देवी माँ दंतेश्वरी का मंदिर बनवाया तथा राजधानी में 147 तालाब भी खुदवाये थे। इसी मंदिर के सम्मुख एक पत्थर पर बैठ कर अपना उन्होंने अपना विधिवत राजतिलक सम्पन्न करवाया। स्वाभाविक है कि इस समय उनके पास न राजमहल रहा होगा न ही सिंहासन। डोंगर के इसी पत्थर पर राजतिलक एक परम्परा बन गयी जिसका निर्वाह अंतिम शासक प्रवीर तक निरंतर होता रहा। इस प्रथा को पखनागादी कहा जाता था। 

- राजीव रंजन प्रसाद

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