Sunday, August 06, 2017

ताड़-झोंकनी (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 49)


राजा दलपतदेव (1731-1774 ई.) ने अपनी पटरानी के बेटे राजकुमार अजमेरसिंह को डोंगर का अधिकारी बनाया था। उस समय डोंगर क्षेत्र भयानक अकाल से जूझ रहा था तथा जनश्रुतियाँ कहती हैं कि आजमेरसिंह के कुशल प्रबन्धन के कारण ही यहाँ निवासरत हलबा जनजाति की प्रजा उनकी अभिन्न सहयोगी हो गयी थी। राजा के देहावसान के समय अजमेरसिंह ड़ोंगर में ही थे। उनके भाई दरियाव देव ने सिंहासन पर अधिकार करने के लिये डोंगर पर हमला बोल दिया, लेकिन वे भीषण और अप्रत्याशित हलबा प्रतिरोध के आगे टिक न सके। उनके राजधानी जगदलपुर भाग आने के बाद अगले आक्रमण की तैय्यारी होने लगी। आजमेर सिंह ने अपने मामा और कांकेर के राजा से सैन्य सहायता प्राप्त कर जगदलपुर पर धावा बोल दिया जहाँ पुन: पराजित होने के बाद दरियावदेव जैपोर की ओर भाग गये। आजमेर सिंह (1774-1777 ई.) का इसके पश्चात ही विधिवत राज्याभिषेक हो सका। हलबा विद्रोही इस बात से निश्चिंत हो कर कि अब आजमेरसिंह बस्तर के राजा हो गये हैं, डोंगर लौट गये। 

दरियावदेव ने जैपोर के राजा से युद्ध खर्च के अलावा कोटपाड़, चुरुचुंड़ा, पोड़ागढ़, ओमरकोट और रायगड़ा परगने, देने के नाम पर समझौता कर लिया। अपनी विजय को और निश्चित बनाने के लिये दरियावदेव ने मराठों से भी बस्तर के स्वाधीनता की संधि कर ली। इन संधियों की बिसात पर दरियावदेव की एक विशाल सेना तैयार हो गयी। हलबा योद्धाओं ने इस युद्ध में भी राजा आजमेर सिंह के लिये अभूतपूर्व बलिदान दिये। अंतत: दरियाव देव ने जगदलपुर पर अधिकार कर लिया। आजमेरसिंह मार डाले गये। हलबा लड़ाके अपने नायक को खो देने के बाद भी विद्रोह करने पर उतारू थे। कई मोर्चों पर छापामार हमले हुए। विद्रोह का निर्दयता से दमन भी किया गया। पकड़े गये विद्रोहियों की आँखें निकाल ली गयीं तो कुछ हलबा विद्रोही चित्रकोट जलप्रपात से नीचे धकेल दिये गये। दरियावदेव हलबा विद्रोह को इस तरह दबाना चाहते थे कि एक उदाहरण बन जाये। दरियावदेव ने विद्रोहियों की सजा-ए-मौत को खेल बना दिया था; एक जनश्रुति के अनुसार शर्त रखी गयी कि ताड़ का पेड़ काटा जायेगा। जो विद्रोही अपने हाँथों में पेड़ को थाम लेगा और गिरने नहीं देगा उसे छोड़ दिया जायेगा। मौत हर हाल में थी लेकिन हलबा वीरों ने शान से मरना स्वीकार किया। पेड़ काटे जाते रहे और एक एक विद्रोही चिरनिंद्रा में सुलाया जाता रहा। इस कथा को ‘ताड़-झोंकनी’ के नाम से स्थानीय आज भी याद करते हैं। 

- राजीव रंजन प्रसाद 
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