व्यवस्था में बदलाव वस्तुत: एक पूरी संस्कृति का पटाक्षेप भी है।
बस्तर के संदर्भ में मुख्यत: दो कालखण्ड मायने रखते हैं जब इस तरह के बदलाव देखे
गये। पहला समय था जब नाग राजाओं (760-1324 ई) की पराजय हुई तथा अन्नमदेव
(1324-1369 ई.) सत्तासीन हुए तथा दूसरा कालखण्ड जब स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात
न केवल अंगेज सत्ता द्वारा संचालित काकतीय शासन का समापन हुआ तथा इस घोर आदिवासी
क्षेत्र में लोकतंत्र के चरण पडे। इन दोनो ही समयों में बदलाव को सहज स्वीकार किया
गया हो एसा नहीं है; अपितु बदलने वालों नें धर्म और धार्मिक मान्यताओं की आड ले कर
ही अपनी स्वीकार्यतायें सुनिश्चित की हैं। इतिहास तो राजाओं के होते हैं किंतु
अपनी प्रकृति और प्रवृति में बदलाव आम जन का ही होता है तहापि उसकी कहानियाँ कभी
भी दस्वावेजबद्ध नहीं की गयीं। इतिहास को धर्म मान्यताओं और आस्थाओं से समझने की
कोशिश यदि नहीं की गयी तो वह तलवार बाजों की जीत हार के आँकडे भर रह जायेगा। राजा
बदलता है तो प्रजा भी बदलती है।
इस बदलाव और कशमकश को समझने के लिये बस्तर अंचल की दो देवियों
दंतेश्वरी तथा मणिकेश्वरी का प्रसंग लेते हैं। बस्तर में देवी महात्म्य सर्वदा से
स्थापित रहा है तथापि माँ दंतेश्वरी एवं मणिकेश्वरी देवी के स्थापना समयों को ले
कर विद्वानों में मतभिन्नता रही है। बस्तर राज वंशावलि (1853) में एक श्लोक
विशेषरूप से ध्यान खींचता है – नवलत्क्षनुर्धराधिनाथे पृथेवीं शासति काकतीयरूद्रे।
अभवत्परमाग्रहारपीडाकुचकुम्भेषु कुरंगलोचनानाम। प्रतापदुर्ददेवस्य पुरकांचनवत्षणम।
यामात्धमहरत्कालम पुरा वै यज्ञ हेतवे। प्रतापरुद्रनृपतिस्साक्षाद रुद्रांशसम्भव:।
शिवार्चनपरो भक्तो माणिकीशक्ति सेवित:। यह श्लोक वस्तुत: वारंगल के राजा
प्रतापरुद्र की स्तुति की तरह ही है जो बताता है कि काकतीयों के पास प्रबल
सैन्यशक्ति थी जिसमे नौ लाख धनुर्धर थे। वे धनी थे। धर्माचरणी थे। इस श्लोक की
अंतिम पंक्ति कहती है कि काकतीय मणिकेश्वरी देवी के अनन्य भक्त थे तथा शिव की
उपासना/अर्चना भी करते थे।
वस्तुत: प्रतापरुद्र (राजा अन्नम देव जिन्होंने बस्तर में काकतीय वंश
की स्थापना की) के बडे भाई थे तथा वारंगल पर मुस्लिम आक्रांताओं की विजय से पहले
वे सर्वाधिक प्रतापी तथा धनाड्य राजाओं में गिने जाते थे। अत: यदि इस श्लोक के
आधार पर माता मणिकेश्वरी देवी को काकतीय राजाओं के साथ वारंगल से बस्तर लाया जाना
माना जाये तो फिर माता दंतेश्वरी का बस्तर में स्थान अधिक प्राचीन होगा। इस
सम्बन्ध में लाला जगदलपुरी अपनी किताब “बस्तर – लोक कला संस्कृति प्रसंग” में
लिखते हैं कि “बारसूर की प्राचीन दंतेश्वरी गुडी को नागों के समय में पेदम्मा गुडी
कहा जाता था। तेलुगू में बडी माँ को पेदम्मा कहा जाता है। तेलिगु भाषा नागवंशी
नरेशों की मातृ भाषा थी। वे दक्षिण भारतीय थे। बारसूर की पेदम्मा गुडी से अन्नमदेव
नें पेदम्मा जी को दंतेवाडा ले जा कर मंदिर में स्थापित कर दिया। तारलागुडा में जब
देवी दंतावला अपने मंदिर में स्थापित हो गयी तब तारलागुडा ग्राम का नाम बदल कर
दंतावाडा हो गया, उसे लोग दंतेवाडा भी कहने लगे।“
छत्तीसगढ परिचय में प्रकाशित डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र का एक आलेख आलेख
इस सम्बन्ध में बिलकुल अलग तथ्य सामने लाता है। वे लिखते हैं “काकतीय तथा
दंतेश्वरी के नामो के पीछे कुछ रहस्य हैं कि इस घराने के आदि पुरुष महाभारतकालीन
पाण्डव थे। दिल्ली की दुर्दशा के बाद उन्होंने दक्षिण की शरण ली। गुरु द्रोणाचार्य
की शिष्य परम्परा के कारण उन्होंने अपने वंश का नाम काकतीय रखा। संस्कृत में काक
को द्रोण भी कहते हैं। संस्कृत में हस्ती को दंती भी कहते हैं इस तरह हस्तिनापुर
की अधिष्ठात्री देवी हस्तेश्वरे कहलाने के बदले दंतेश्वरी कही गयीं। इस कथन के
समर्थन में ईतिहासकार हीरालाल (1916:289) लिखते हैं कि बस्तर के नागवंशी राजाओं की
कुलदेवी मणिक्येश्वरी थीं। बस्तर के अनेको अभिलेखों में नागफण मणि की चर्चा की गयी
है अत: यह आधार भी नाग राजाओं के मणिकेश्वरी देवी के उपासक होने की कडी की तरह
जुडता है। इस कडी को जोडने का कुछ प्रयास डॉ. हीरालाल शुक्ल नें भी लिया है जहाँ
अपनी किताब चक्रकोट के छिन्दक नाग (760 ई. से 1324 ई) में वे लिखते हैं कि
“मणिकेश्वरी एक तांत्रिक देवी हैं। भैरवयामलमंत्र के अनुसार मणि एक चक्र है, तेज
या ज्ञानसन्दोह का उपलक्षक है तथा मणिमण्डप पर विन्ध्यवासिनी देवी बैठती हैं।“ वे
आगे लिखते हैं कि मणिकेश्वरी विन्ध्यवासिनी देवी का पर्याय हैं। इस सम्बन्ध में
ध्यातव्य है कि सोमेश्वर प्रथम जैसा नाग शासक चक्रकोट पर पुन: साम्राज्य स्थापित करने
में विन्ध्यवासिनी देवी का प्रसाद (ईपी. इंडिका 10:37) मानता है –
विन्ध्यवासिनीदेविवर प्रसाद (तदेव 10:25) के अभिलेखीय सन्दर्भ मिलते हैं।
उपरोक्त सभी संदर्भ भ्रमित करते हैं क्योंकि कोई भी विद्वान एक स्पष्ट
दिशा नहीं देते। यहाँ तक कि हर शिलालेख से अपने-अपने मायने निकल रहे हैं। यदि
विन्ध्यवासिनी ही मणिकेश्वरी हैं तो यह नामपरिवर्तन किस लिये? यदि मणिकेश्वरी
काकतीयों की आराध्य हैं तो नाग सत्ता की आराध्य देवी विन्ध्यवासिनी एक तीसरी देवी
सत्ता होनी चाहिये? यदि अन्नमदेव के साथ मणिकेश्वरी देवी के पावन चरण बस्तर पर पडे
तो दंतेश्वरी माता का अस्तित्व यहाँ और प्राचीन सिद्ध होता है जैसा कि लाला
जगदलपुरी आदि विद्वान मानते हैं। क्या ये सभी देवी शक्तियाँ पर्याय मात्र हैं?
क्या इन नामों के पर्याय होने के पीछे कोई दंतकथा उपलब्ध है? इस विषय पर विद्वानों
ने कोई संदर्भ उपलब्ध नहीं कराये हैं। एक महत्वपूर्ण कथन जो इस विषय में सभी
प्रसंगों का सामान्यीकरण करता है वह इलियट का है। ईलियट (1856:3) बताते हैं कि
“वर्तमान राजाओं के पूर्वज बस्तर आने से पूर्व मणिकेश्वरी देवी के उपासक थे जब वे
बस्तर आये तो मणिकेश्वरी देवी नें दंतेश्वरी देवी का रूप ले लिया।
तथ्य अभी और शोध की माँग करते हैं, तथापि वह चाहे नाग युग हो, काकतीय
हो अथवा वर्तमान काल देवीपूजा के अनेकों विधान तथा शक्तिशाली देवियों के यहाँ
अवस्थित होने के अनेकानेक प्रमाण उपलब्ध मिलते हैं। नारायणपुर से कुछ ही दूरी पर
छींदपाल गाँव में महिषासुरमर्दिनी का नागयुगीन मंदिर आज भी उपलब्ध है तो कुरुषपाल
के मंदिर में भी महिषासुरमर्दिनी की मूर्तियाँ उपलब्ध हैं। नाग-काल से ही बस्तर
में माँ दुर्गा, महिषासुरमर्दिनी तथा कंकालीदेवी की पूजा की जाती रही है। इसके साथ
ही सप्तमातृकाओं के पूजन की प्राचीनकालीन प्रथा (शुक्ल:1977) का भी उल्लेख यहाँ
प्रासंगिक होगा। कहते हैं कि ये सप्तमातृकायें आदिम कबीलों के प्रभाव से ही अवतरित हुई हैं – सा मातेव भविष्यत्वात
तेनासौ मातृकोदिता (तंत्रलोक 4:15) ये सप्तमातृकायें - ब्राम्ही, माहेश्वरी,
कौमारी, वैष्णवी, वाराही, एन्द्रानी तथा चामुण्डा कही जाती हैं। इन सप्तमातृकाओं
के स्मारक बस्तर के सातगाँव (कोण्डागाँव), भगदेवा (कोण्डागाँव) तथा मातला
(नारायणपुर) मे मिलते हैं। वृक्षों, नदी, नालों, टीलों, पर्वतों या किसी भी
प्राकृतिक वस्तु में इनका आवास हो सकता है। इन देवियों को प्रसन्न करने के लिये
बस्तर में आज भी ककसाड (देवी यात्रा) की परम्परा चल रही है (शुक्ल, 1986)।
जब दंतेवाडा में अवस्थित माँ दंतेश्वरी तथा माँ मणिकेश्वरी की बात चल
ही रही है तो कुछ बात शंखिनी और डंकिनी नदियों की पावनता और उसके मिथकीय इतिहास पर
भी। डॉ. हीरालाल शुक्ल से प्राप्त संदर्भ से ही विषय आगे ले जाना चाहूंगा (चक्रकोट
के छिन्दक नाग: 140) कि बैद्धग्रंथों में जिसे वज्रयोगिनी कहा गया है तथा
तंत्रशास्त्र में जो वज्र या छिन्नमस्ता कही गयी है वह वज्रयान सम्प्रदाय की देवी
प्रतीत होती हैं तथा उनकी प्राण प्रतिष्ठा बस्तर में उसकी सहचरियों शंखिनी तथा
डंकिनी नाम से अनुमानित की जा सकती हैं। इन नामों की दो नदियाँ दंतेवाडा होते हुए
आज भी प्रवाहित होती हैं। शंखिनी को योगिनी या वर्णिनी भी कहा गया है। वह रजोगुण
प्रधान व मोक्षप्रदा हैं। यह छिन्नमस्ता की दाहिनी ओर योनिमुद्रा में रहती हैं। यह
बडे वेग से उठती हुई रक्त की धारा अपनी स्वामिनी को पिलाती हैं। हड्डियाँ इस
योगिनी के आभूषण हैं। इसके हाँथ में चमकता हुआ भयंकर खड्ग रहता है। इसका वर्ण, केश
और नेत्र रक्तिम होते हैं। यह विवस्त्र रहती हैं। डंकिनी एक दिगम्बरी तांत्रिक
देवी हैं। इसके केश खुके हैं। यह कृष्णवर्णा तमोगुणयुक्त हैं। यह प्रचंड हैं तथा
प्रलयकालीन घोर घटाटोप की तरह इसका काला रूप है। विकराल दाँतों के कारण इनके मुख,
उदरविवर तथा कण्ठ को नहीं देखा जा सकता। जिव्हा का अग्रभाग लपलपाता रहता है। इनकी
दोनों आँखें बिजली की तरह चंचल हैं। ये दोनो देवियाँ बस्तर के जनजातीय गीतों में
बार बार आती हैं।
यहाँ संदर्भ को विवेचना के बिना नहीं छोडा जा सकता। बस्तर में अपना
मातृसत्तात्मक दिव्य आवरण है। यह एक समृद्ध क्षेत्र के शनै: शनै: पिछडते जाने को
समझने की कडी भी है। रायबहादुर डॉ. हीरालाल नें अपनी किताब मध्यप्रदेश का इतिहास
के दसवे अध्याय में उल्लेख किया है कि “नागवंशी काल में बस्तर में अच्छे विद्वान
रहते थे। वह निरा मुरिया-माडिया पूर्ण जंगल नहीं था जैसा कि इन दिनो है। वहाँ की
प्राचीन शिल्पकारी भी प्रसंशनीय है। बस्तर राज्य एसी जगह पर था जहाँ अन्य राजा जब
चाहे आक्रमण कर बैठते थे, तिस पर भी नागवंशी अपने को सदैव संभालते रहे और चार-पाँच
सौ वर्षों तक किसी की दाल नहीं गलने दी।“ यह पहलू तब बदला जब नाग साम्राज्य अनेकों
शाखाओं और मण्डलों में विभाजित हो गया। अन्नमदेव को यहाँ आ कर एक दो नहीं कई
लडाईयाँ जीतनी पडी क्योंकि नाग पंचकोशी राजा रह गये थे। प्रजा त्रस्त थी कि किसके
प्रति प्रतिबद्ध रहें और किसका साथ दें उन्होंने अन्नमदेव का साथ दिया। अन्नमदेव
नें स्थानीय मान्यताओं को अक्षुण्ण रखने का आश्वासन दिया था। उनकी लोकप्रियता इसी
कारण बढी तथा कालांतर में वे स्वयं कई दंतकथाओं का हिस्सा बन गये। काकतीय शासन नें
वारंगल में अपनी समृद्धि का एक बडा काल देखा था और उसके दुष्परिणाम भुगते थे अत:
अपनी सत्ता स्थापित करने के बाद यह आवश्यक था कि राज्य के दरवाजे मुसलमान
आक्रांताओं के लिये बंद कर दिये जायें। इस बंद करने की प्रवृत्ति नें बस्तर को
रहस्यमयी और गोपनीय बना दिया। अन्नमदेव नें धन संचय और समृद्धि बटोरने की जगह
शांतिप्रिय तथा कम चर्चा में रहने वाली सत्ता का विकल्प चुना जिसे उसके बाद वाले
शासको ने भी आगे बढाया। परिणाम यह हुआ कि आम जन पीछे जाते गये। आम जन जनजातियों
में परिवर्तित होते चले गये तथा कुछ सौ सालों में ही हालात इतने बदतर हो गये कि
जिन क्षेत्रों मे राजधानियाँ हुआ करती थी वहाँ के नागरिको पर आदिवासी होने का चोला
चढ गया। वे अनोखे, विरक्त और अबूझ होते चले गये। यहाँ सत्ता और प्रजा के बीच जुडने
की सबसे बडी कडी वही देवियाँ रही हैं जिन्होंने सत्ता परिवर्तन के साथ साथ अपनी
मान्यताओं के परिवर्तन का दंश भी सहा है। राजा प्रजा तथा देवी का यह अंतर्सम्बन्ध
स्वतंत्रता के पश्चात भी जारी रहा। राजा प्रवीर नें देवीमहात्म्य को गहराई से समझा
था। वे जानते थे कि भले ही सत्ता की कडी उनसे टूट गयी है लेकिन वे देवी के माध्यम
से आम जन तक अपनी पहुँच बनाये रख सकते हैं। उन्होंने स्वयं को देवी दंतेश्वरी का
अनन्यतम पुजारी कहलाना अधिक पसंद किया। एक पुजारी बनने के कारण आदिवासी जनता नें
अपने बीच एसा संत पाया जो ताज छिन जाने के बाद भी उनका ही है वह उनकी आस्थाओं के
साथ खडा रहता है। प्रवीर की इस पुजारी भूषा नें भी उन्हें लोकतंत्र में एक
स्वीकार्य नेता भी बनाया था। इतना सशक्त नेता कि 1961 में जब वे राजनीतिक
शक्तिपरीक्षण करना चाहते थे तब भी उनके द्वारा दशहरा पर्व चुना गया। इस वर्ष का
दशहरा बस्तर के इतिहास में दर्ज है जब इतनी भीड जगदलपुर में हो गयी थी कि सडकों पर
चलने के लिये इंच मात्र भी जगह नहीं बची थी। प्रवीर की हत्या के बाद बाबा
बिहारीदास प्रकरण भी आस्था नेता और प्रजा के अंतर्सम्बन्ध की ही अगली कडी था।
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डा.भगवती शरण मिश्र की लिखी 'माँ दंतेश्वरी' पुस्तक याद आ गयी|
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