[प्रफुल्ल चन्द्र भंजदेव (1908 – 1960)]
एक किताब के बारे में जानकारी मिली जिसका शीर्षक है - Financial Position of Govt. of India (How decay has set in); लेखक थे प्रफुल्ल चंद्र भंजदेव। बहुत तलाश किया किंतु दुर्भाग्यवश यह किताब अब विलुप्त हो गयी है, बिलकुल वैसे ही जैसे इसके लेखक को कोई नहीं जानता, उसके संघर्ष को शत-प्रतिशत भुला दिया गया है। यह परिचय देना आवश्यक है कि प्रफुल्ल चन्द्र भंजदेव बस्तर की महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी (1921-1936) के पति थे। यह एक पंक्ति का परिचय केवल उनका बस्तर से सम्बन्ध निरूपित करता है वस्तुत: प्रफुल्ल चंद्र भंजदेव का जन्म मई 1908 में मयूरभंज (उड़ीसा) में हुआ था। वे राजा दामचंद्र भंजदेव के पुत्र थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा राजकुमार कॉलिज, रायपुर में हुई थी। प्रफुल्ल कुमार भंजदेव की कथा एक एसे संघर्षशील व्यक्ति की कहानी है जिसने केवल अपने सिद्धांतो के लिये मिटना ही जाना किंतु वह समझौते करना और झुकना जानता ही नहीं था।
1921 में सत्यकेतु पत्रिका (हिन्दी पाक्षिक) में प्रकाशित श्रीसत्यनाथन के एक आलेख ‘बस्तर राज पर विपत्ति’ से यह जानकारी मिलती है कि अंग्रेजों नें जबरदस्ती महारानी प्रफुल्ल कुमारी का विवाह प्रफुल्लचंद्र भंजदेव से करवाने की साजिश रची थी। ब्रिटिश एडमिनिस्ट्रेटर ‘टकर’ तथा तत्कालीन पॉलिटिकल एजेंट ‘ली’ नें जबरदस्ती यह रिश्ता महारानी प्रफुल्ला पर थोपा था किसके पीछे ब्रिटिश राजभक्ति के तहत निर्णय को मानने का अतिरिक्त दबाव भी डाला गया था। उस दौर में “प्रस्तावित बस्तर-मयूरभंज सम्बन्ध का रहस्योद्घाटन” शीर्षक से 33 पृष्ठ की एक पुस्तिका प्रकाशित हुई थी जिसमें इस विवाह का मुखर विरोध किया गया था। स्वयं महारानी प्रफुल्ल नें अपनी सगाई की सामग्री फेंक दी थी। जबरन विवाह की यह राजनीति राष्ट्रीय चर्चा का विषय बनी जिसके उल्लेख तत्कालीन समाचार पत्रों - आज (वाराणसी, 15.04.1924); अमृतबाजा पत्रिका (कलकत्ता, 18.04.1924); दैनिक फॉरवर्ड (कलकत्ता, 25.04.1924), भविष्य (कानपुर, 15.05.1924); महिलासुधार (कानपुर, 28.06.1924); प्रणवीर (नागपुर, 16.06.1924); ताज (उर्दू दैनिक – दिल्ली, 3.04.1924); एशिया (उर्दू दैनिक – दिल्ली, 4.04.1924) आदि में मिलता है। अंग्रेजों का यह सारा प्रक्रम संभवत: उनकी जड खोदने के लिये ही था क्योंकि महारानी की सहमति के बिना राजनीतिक दबाव डाल कर कराया गया यह विवाह वर्ष 1927 में सम्पन्न हुआ जो कालांतर में एक चिरस्मरणीय प्रेमकहानी में परिवर्तित हो गया। यह मिलन केवल काकतीय-भंज राजवंशों का मिलन नहीं था, यह केवल बस्तर-मयूरभंज मिलन ही नहीं था अपितु यह एक आदिवासी राजनीति के साथ राष्टीय संवेदनाओं और मुख्यधारा का सम्मिलन भी था।
बस्तर रियासत के भीतर राष्ट्रीय भावना का सूत्रपात करने का श्रेय वस्तुत: प्रफुल्ल चंद्र भंजदेव को जाना चाहिये। प्रफुल्ल एक प्रगतिशील रियासत से बस्तर आये थे तथा उनकी अपनी सोच महारानी के फैसलों के साथ प्रतिपादित होने लगीं। बस्तर की राजनीति को एक एसा सलाहकार मिल गया था जो शनै: शनै: ब्रिटिश आँख का काँटा बनने लगा। महारानी के दौर में निजाम शासन की दृष्टि बस्तर पर पड गयी थी तथा इसके लिये सर्वप्रथम प्रफुल्ल को सहमत कराने की कोशिश की गयी। उन्हें धन सम्पत्ति के साथ साथ एक बडी जमीन्दारी प्रदान करने का भी प्रलोभन दिया गया था। प्रफुल्ल बस्तर रियासत के पक्ष में खडे दिखे तब जा कर अंग्रेजों की समझ में आया राजनीतिक समझौते के तहत जबरन विवाह का तो पासा फेका गया था वह उलटा पड गया है; प्रफुल्ल कृतज्ञ नहीं अपितु अंतरात्मा से जागरूक व्यक्ति थे। बाध्य हो कर अंग्रेजी सरकार के दबाव में उच्च शिक्षा के लिये उन्हें इंग्लैंड भेजा गया जहाँ उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में बीए ऑनर्स की पढाई के लिये दाखिला लिया। उन्होंने उच्च शिक्षा हासिल की तथा वकालत भी प्रारंभ की तथापि वे अपनी पी एच डी पूरी नहीं कर पाये। जब विश्वयुद्ध की परिस्थितियाँ बनीं तब प्रफुल्ल नें मानवता का फर्ज भी निभाया और अंग्रेजी एम्बुलेंस में भरती हो कर जरमनी, फ्रांस, बेल्जियम आदि राष्ट्रों के जख्मी सैनिकों की सेवा करने लगे। अपने इंग्लैंड प्रवास के दौरान वे श्री कृष्ण मेनन के संपर्क में आये तथा भारतीय स्वतंत्रा आन्दोलन के एक सिपाही की हैसियत से उनके साथ कदम से कदम मिला कर सक्रिय हो गये। आपके आलेखों और व्याख्यानों नें भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग में तथा अंग्रेजी सत्ता प्रतिष्ठानों में खलबली मचा दी थी। एक एसा समय जब अंग्रेजी सरकार रियासतों को पंगु बनाने की कोशिश में एडी चोटी एक किये रहती थी उसी दौर में सितम्बर 1934 में प्रफुल्ल हन्द्र भंजदेव ने वीकर्ड़ रिव्यु पत्रिका, लंदन में “द न्यु स्टेस्ट्समैन एण्ड़ नेशन” नाम से आलेख लिखा था जिसमें खुलासा किया था कि “ब्रिटिश शासन के चलते भारतीय राजकुमार और राजा किस प्रकार नपुंसक हो गये हैं। उनकी इस प्रकार की नपुंसकता के पीछे वह मूर्खतापूर्ण शिक्षा भी थी जो उन्हें दी जा रही है।” प्रफुल्ल को इस लेख की बहुत बडी कीमत चुकानी पडी और अंग्रेजों की सीधी नाराजगी झेलनी पड़ी थी। इस आलेख के प्रकाशित किये जाने के तुरंत बाद ही प्रफुल्ल का चरित्र हनन करने की साजिश रची गयी। उन्हें ड़रपोक, व्यसनी तथा सिफिलिस से संक्रमित तक घोषित किया गया। प्रफुल्ल को बस्तर राज्य की ओर से दो हजार रुपये महीना खर्च दिया जाता था। स्वतंत्रता आन्दोलन में उनकी सक्रियता तथा निजाम राज के साथ बस्तर विलय की कोशिशों में सहयोग न दिये जाने के उनके निर्णय से नाराज अंग्रेजों नें यह राशि भी घटा कर आधी कर दी। महारानी की मृत्यु के बाद उन्हें यह राशि मिलना भी बंद कर दिया गया।
बैलाडिला क्षेत्र का बस्तर अथवा छत्तीसगढ में बना रहना वस्तुत: प्रफुल्ल की भी देन माना जाना चाहिये अन्यथा हो सकता था कि यह क्षेत्र निजामशाही के आधीन हो कर आज आन्ध्र का हिस्सा होता। महारानी प्रफुल्ला के समक्ष जब इस तरह का प्रस्ताव वायसराय लॉर्ड लिनथिनगो नें रखा था तब उन्होंने बहुत ही शालीनता और विनम्रता से अस्वीकार कर दिया था। अंग्रेज मानते थे कि महारानी का यह कदम वस्तुत: उनके पति प्रफुल्ल की सोच की परिणति है। कुछ दस्तावेज और प्रमाण इस ओर इशारा करते हैं कि महारानी प्रफुल्ला की एपेंडिक्स के ऑपरेशन के नाम पर हत्या की गयी थी जिसके पीछे बैलाडिला के लौह खदानों के कारण पैदा हुए नये राजनीतिक समीकरण ही जिम्मेदार थे। प्रफुल्ल की मुखरता देखिये कि यह जानते हुए भी कि अंग्रेजी सता उन्हें गुमनामी की सौगात देगी, वे चुप नहीं बैठे। अपने पुत्र प्रवीरचन्द्र भंजदेव के राज्याभिषेक के तुरंत बाद ही उन्होंने महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी की अंग्रेजों द्वारा किये हत्या के षडयंत्र का रियासत की जनता के सामने पर्दाफाश कर दिया। भयानक परिणाम हुए उनके इस कृत्य के। उनसे अपने ही बच्चों के अभिभावक होने का नैसर्गिक अधिकार छीन लिया गया तथा बस्तर रियासत से निकाला दे दिया गया। बस्तर में प्रफुल्ल चन्द्र भंजदेव की वापसी तब हुई जब देश में अपना पहला स्वतंत्रता दिवस मनाया। दो लाख से अधिक उपस्थित भीड नें प्रफुल्ल का हृदय खोल कर स्वागत किया था। प्रफुल्ल कुछ समय तक बस्तर में रहे फिर राष्ट्रीय ध्वज को लेकर किसी प्रसंग में उनका अपने पुत्र तथा महाराजा प्रवीर से मनमुटाव हो गया और फिर वे बस्तर छोड कर हमेशा के लिये चले गये।
निराला व्यक्तित्व था प्रफुल्ल का। उन्हें जानने वाले बताते हैं कि प्रफुल्ल को सिगरेट और शराब जैसे व्यसन भी नहीं थे। वे सोच से भरे और मृदु मुस्कान लिये जीवंत व्यक्ति थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात वे ओडिशा में आ कर रहने लगे तथा कुछ समय तक राज्य सरकार में रह कर कार्य भी लिया। ओडिशा सरकार की आदिवासियों को ले कर नीति से वे असहमत थे तथा इसी कारण उन्होंने राज्य की राजनीति से अपने हाथ भी खींच लिये थे। इसके पश्चात प्रफुल्ल लगभग गुमनामी का ही जीवन जीते रहे। वे मयूरभंज, कलकत्ता तथा दिल्ली में भी कुछ समयों के लिये रहे तथा इस गुमनाम संघर्शशील व्यक्ति में कब आखिरी स्वांस ली इसकी समुचित जानकारी उपलब्ध नहीं होती है, संभवत: 1960 के आसपास।
उपसंहार में यही कहना चाहूंगा कि कई गुमनाम नायक हैं जिनके योगदानों को विस्मृत कर के हम बस्तर की विरासत की सही तस्वीर सामने नहीं ला सकते, प्रफुल्ल चंद भंजदेव भी उनमें से एक हैं।
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