Thursday, April 11, 2013

रिसेदेवी अब भी रूठी हुई हैं, मना लो माँ दंतेश्वरी

आलेख दिनांक 2.04.2013 को सांध्य दैनिक ट्रू सोल्जर में प्रकाशित

कांकेर से कुछ ही दूर छोटा सा ग्रामीण परिवेश है सिदेसर। नाम से स्पष्ट है कि सिद्धेश्वर का नाम कालांतर में बदल कर सिदेसर हो गया है। यहाँ ग्रामीणों की सहायता से मैं और भाई कमल शुक्ला प्राचीन शिव मंदिर के अवलोकनार्थ पहुँचे थे। इस स्थल से आगे बढते हुए हम एक अन्य गाँव रिसेवाडा पहुँचे। रिसेवाडा नाम के भी दो भाग है जो रिस अर्थात क्रोध तथा वाडा अर्थात ग्राम का अर्थ बोधक है। जैसे ही हम वाडा की बात करते हैं हमें नाग युगीन प्रशासनिक व्यवस्था का अवलोकन करना आवश्यक हो जाता है जहाँ उनकी सम्पूर्ण शासित भूमि राष्ट्र अथवा देश कोट (राज्य) कहलाती थी। कोट के प्रशासनिक विभाजन थे नाडु (संभाग) तथा नाडु के वाडि (जिला)। वाडि के अंतर्गत नागरिक बसाहट के आधार पर महानगर, पुर तथा ग्राम हुआ करते थे। यदि हम केवल ग्रामीण व्यवस्था को ही बारीकी से समझने की कोशिश करें तो उसके भी दो प्रमुख प्रकार थे वाड़ा तथा नाड़ुया (नार)। समझने की दृष्टि से वाडा तथा नार का प्रमुख अंतर बसाहट के तरीकों में अंतर्निहित था। एसे सुनियोजित गाँव जहाँ घर पंक्तिबद्ध रूप में अवस्थित हों उन्हें वाडाकहा जाता था जबकि अव्यवस्थित बसाहट वाले गाँव नाग युग में नारकहलाते थे। बस्तर के नगरों गाँवों में कई गमावाडा अथवा नकुलनार जैसे नाम आज भी नागयुगीन प्रशासनिक व्यवस्था की स्मृतियाँ हैं। इसी प्रकाश में पुन: बात रिसेवाडा की।

रिसेवाडा निश्चित ही एक समय में सुनियोजित रूप से बसा ग्रामीण क्षेत्र रहा होगा जिसके बहुत ही निकट सिद्धेश्वर मंदिर की अपनी ख्याति रही होगी। सिद्धेश्वर मंदिर के पास से हमें एक बडा सा थानप्राप्त हुआ है जिसका आकार ही बताता है कि इससे बडी मात्रा में औषधि का निर्माण होता रहा होगा। यह पूरा क्षेत्र कई प्रकार की औषधि पादपों से पटा पडा है। पूरे रास्ते हमारे मार्गदर्शक ग्रामीण नें कई तरह के औषधि पादपों से हमारा परिचय भी कराया। मैं इन कडियों को जोड़ता हूँ तो लगता है कि इस प्राचीन सिद्ध क्षेत्र का महत्व ही पीडितों की व्याधि हरने के कारण रहा होगा तथा यहाँ न केवल धार्मिक कर्मकाण्ड, तांत्रिक विधियाँ ही पूरी जी जाती रही हैं जैसा कि सिद्धेश्वर मंदिर के सम्मुख माँ काली की प्रतिमा, भरवी की युद्ध मुद्रा में प्रतिमा आदि से ज्ञात होता है साथ ही यहाँ एक प्राचीन औषधालय भी रहा निश्चित रूप से रहा होगा। रिसेवाडा अब एक उपेक्षित गाँव है। सारे रास्ते ग्रामीण भीतरी स्थलों के लिये सड़क की आवश्यकता पर चर्चा करते रहे। दूर दूर तक जंगल और मध्यवर्ती क्षेत्रों में खेतिहर भूमि की लम्बी कतारें इसके साथ ही चारो ओर खिले मुस्कुराते भांति भांति के जंगली फूल यहाँ तक उबड-खाबड रास्ते से पहुँचने की सारी थकान को रह रह कर हवा कर देते थे।

एक प्राकृतिक गुफा के निकट पहुँच कर ग्रामीण नें बताया कि यह रिसेदेवी का स्थान है। यह तो समझ में आ गया कि रिसेवाडा और रिसेदेवी का आपस में क्या संबंध है तथापि जिज्ञासा बढ गयी थी। एक पहाडी नुमा स्थान जिसमे एक विशाल पत्थर को प्रकृति नें इस तरह लिटा दिया है कि उसके नीचे गुफानुमा संरचना बन गयी है। ग्रामीण नें बताया कि भीतर रिसेदेवी का निवास है। वस्तुत: रिसे देवी दंतेवाड़ा में अवस्थित माँ दंतेश्वरी की छोटी बहन हैं। दोनो बहनों में किसी बात पर झगडा हो गया और छोती बहन रूठ कर यहाँ चली आयी हैं। इसी लिये देवी का नाम रिसेदेवी हो गया। मुझे जनजातीय समाज के एसे देवी देवता भावुक कर देते हैं जो बिलकुल हमारे जैसे हैं। हमारी तरह झगडते हैं, रूठते हैं, मनाते हैं। ये देवी देवता आसमान पर नहीं उडते बल्कि जमीन के हैं....जमीन से जुडे। रिसेदेवी की गुफा में प्रवेश करने के पश्चात मुझे वहाँ एक छोटी की पाषाण प्रतिमा....नहीं प्रतिमा नहीं कहूँगा क्योंकि किसी तरह का मानुषिक आकार मैं तलाश नहीं सका तथापि बहुत सारे तिलक भभूत से लिप्त इस प्रस्तराकृति को ही रिसेदेवी का प्रतीक माना गया होगा यही समझ सका। आसपास मिट्टी के घोडे, दीपक तथा अनेको कुम्हार निर्मित आकृतियाँ। किसी तरह का कोई ताम-झाम नहीं कोई पाखण्ड नहीं। एक अत्यंत मनोरम स्थल जहाँ पहुँच कर स्वत: आपके भीतर की प्रवित्रतम भावनायें उभर आयेंगी और स्वत: आपको अपूर्व शांति का अनुभव होगा। यहाँ चमक दमक नहीं है, यहाँ पुजारी पंडे नहीं हैं, यहाँ कोई भव्य इमारत या चमचमाती प्रतिमा नहीं है। यहाँ महसूस होता है इतिहास; यहाँ महसूस होता है अपना पिछडा जा रहा वर्तमान और यहाँ मुझमे एक कोमल अनुभूति भी प्रार्थना कर उठती है कि रिसेदेवी अब भी रूठी हुई हैं मना लो माँ दंतेश्वरी।

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