Thursday, April 25, 2013

अन्नमदेव एक किंवदंतियाँ अनेक

दिनांक 23.04.2013 को सांध्य दैनिक ट्रू सोल्जर में प्रकाशित 

यह समझने की कोशिश करनी चाहिये कि अन्नमदेव की उस व्यापक युद्ध विजय का क्या रहस्य था जिसमे वे प्रत्येक चरण पर सफलता का ध्वज बुलन्द करते जा रहे थे। भोपालपट्टनम में इन्द्रावती तथा गोदावरी नदी के पावन संगम पर अपना युद्धाभियान आरंभ करने से पूर्व अन्नमदेव के द्वारा शिव पूजा किये जाने का उल्लेख प्राप्त होता है जिसके पश्चात उसका विजय अभियान चक्रकोट मे अंतिम रूप से छिन्दक नाग राजा हरिश्चंददेव को पराजित किये जाने तक जारी रहता है। इतने शांतिपूर्ण व्यवस्था परिवर्तन का उदाहरण भारतीय इतिहास में तलाश करने से भी नहीं मिलेगा जहाँ धीरे धीरे आक्रांता ही प्रजाप्रिय होता गया और छ: सौ सालों से शासक रहे नाग सत्ताच्युत हो कर स्थानीय जनजातियों के भीतर ही अपने अस्तित्व को घुला बैठे। अन्नमदेव के पास वारंगल जैसे बडे राज्य के अधिपति का भाई होने के कारण वृहद प्रशासकीय अनुभव होना स्वाभाविक था जिसका कि लम्बे समय से विकेन्द्रित होते जा रहे छिन्दक नागों में अभाव होने लगा था। अन्नमदेव पतन देख कर आ रहे थे अत: पतनोमुख नागों की मनोवृति तथा अनेकता के दुष्परिणामों से भी वे वाकिफ थे।

क्या आरंभ से ही उन्होंने बस्तर की आत्मा को समझने का प्रयास किया था? देखा जाये तो एक केन्द्रीय सत्ता की स्थापना 1324 ई के लगभग हो जाती है लेकिन नाग शासकों द्वारा चले आ रहे सामंतवादी ढाँचे से आरंभ में बहुत ही कम छेड छाड की गयी। बस्तर राज वंशावली (अप्रकाशित; रिकॉर्ड रूम जगदलपुर; लोकनाथ ठाकुर 1853) के अनुसार अन्नमदेव के वे अस्त्र-शस्त्र दिव्य थे जिससे उसने बस्तर राज्य पर विजय पायी तथा राजा को दिल्लीश्वरी, भुवनेश्वरी, मणिकेश्वरी तथा दंतेश्वरी देवियों का आशीष प्राप्त था – “दिल्लीश्वरी श्री भुवनेश्वरी च, मणुक्यदेवी शुभदंतिकेश्वरी। बाणं त्रिशूलं त्वथ शक्तिखड़्गे, क्रमेण देव्या: प्रददुनृरपाय। युद्ध में पराजित होने वाले राजाओं के साथ कठोर व्यवहार का उल्लेख किसी इतिहासकार ने नहीं किया है अपितु सत्ता परिवर्तन के दौर में अधिकतम या तो स्वत: पलायन कर गये अथवा संधि के मार्ग पर चल निकले या कि आत्मसमर्पण कर दिया। अन्नमदेव नें व्यवस्था बनाने रखने के लिये स्थान स्थान पर तेलगा और हलबा जाति के सैनिकों की चौकियाँ स्थापित की एवं मध्यवर्ती क्षेत्रों की जमीनदारी अपने विश्वासपात्रों को ही प्रदान की जैसे नाहर सिंह पामभोई को उन्होंने भोपालपट्टनम का जमीन्दार बनाया तो कुटरू की जमीन्दारी सामंत शाह को प्रदान की। एसे कुछ उदाहरणों के अतिरिक्त अन्नमदेव नें स्थानीयता का बेहद गहरे जा कर सम्मान किया तथा यहाँ की परम्पराओं के भीतर ही स्वयं को प्रतिस्थापित करने की कोशिश की। यही कारण है कि उनकी प्रसंशा में जो कुछ अतीत में लिखा जाता रहा वह उन्हें अद्भुत सिद्ध करता है।

स्वयं को सर्व-मान्य बनाने के लिये अन्नमदेव नें न केवल जनजातीय संतुलन को ध्यान में रखा अपितु अनेक धार्मिक मान्यताओं को राजकीय बना दिया। यह जानबूझ कर हुआ अथवा उनकी अविश्वसनीय विजय के फलस्वरूप हुआ किंतु वे स्वयं भी उन मिथकों का हिस्सा बन गये तो आज भी जनश्रुतियाँ है। वस्तुत: मणिकेश्वरी देवी तथा दंतेश्वरी देवी को ले कर इतिहासकारों में भ्रम की स्थिति आज भी है। डॉ. हीरालाल शुक्ल अपनी पुस्तक बस्तर के चालुक्य और गिरिजन में लिखते हैं कि कुछ लोगों का कहना है कि दंतेश्वरी की प्रतिमा दंतेवाड़ा में पहले से ही स्थापित थी तथा अन्नमदेव मणिकेश्वरी को वारंगल से ले कर आया था ( रसेल, 1908; दिब्रेट 1909)। स्मरणीय है कि नागवंशीय नरेशों की ईष्टदेवी भी मणिकेश्वरी थीं। एसा अनुमान किया जा सकता है कि कालांतर में मणिकेश्वरी देवी ही दंतेश्वरी नाम से परिणत हो गयीं।इसी बात को लाला जगदलुरी भाषा साम्यता से जोडते हुए आगे बढाते हैं। लाला जगदलपुरी लिखते हैं अन्नमदेव जब चक्रकोट की सीमा में प्रविष्ट हुए थे, तब उन दिनों छिन्दक नागवंशी राजाओं का अस्तित्व लगभग समाप्त हो गया था। अंतिम नागवंशी नदेश हरिश्चंद देव को अन्नमदेव ने पराजित किया और बीजापुर, भैरमगढ तथा बारसूर पर अपना स्वामित्व स्थापित कर लिया। थोडे समय तक बारसूर मे रह कर दंतेवाडा की ओर चल पड़े। दंतेवाड़ा में अन्नमदेव ने कुछ समय तक अपनी राजधानी चलाई। दंतेवाड़ा को उन दिनो तारलागुडा कहते थे। बारसूर की प्राचीन दंतेश्वरी गुडी को नागो के समय पेदाअम्मागुडी कहा करते थे। तेलुगू में बडी माँ को पेदाअम्मा कहा जाता है। तेलुगु भाषा नागवंशी नरेशों की मातृभाषा थी। वे दक्षिण भारतीय थे। बारसूर की पेदाअम्मागुडी से अन्नमदेव ने पेदाअम्मा को दंतेवाड़ा ले जा कर मंदिर में स्थापित कर दिया। तारलागुड़ा में जब देवी दन्तावला अपने मंदिर में स्थापित हो गयी तब तारलागुडा का नाम बदल कर दंतावाड़ा हो गया। उसे लोग दंतेवाडा भी कहने लगे” (बस्तर- लोक कला संस्कृति प्रसंग; लाला जगदलपुरी; 2003)

यद्यपि दंतेश्वरी देवी के मिथकों का अन्नमदेव के विजय अभियान के साथ जुडा होना एतिहासिक तथ्यों को किसी अंतिम निष्कर्श पर नहीं पहुँचने देता कि वास्तव में दंतेश्वरी देवी वारंगल से बस्तर लायी गयीं अथवा वे मणिकेश्वरी देवी का ही बदला हुआ स्वरूप है अथवा मे बस्तर में पहले से ही स्थापित रही कोई देवी हैं जिसे अन्नमदेव नें अपने विजय अभियान के साथ जोड कर स्वयं को इसी धरती का प्रतिनिधि बनाने की सफल कोशिश की। इस सम्बन्ध में एक ज्ञात विवरण है कि उस समय दंतेश्वरी माई नें उन्हें एक उत्तम वस्त्र दिया और आशीर्वाद दिया कि इस वस्त्र को पहनने से तू विजयी होगा।....इसी वस्त्र से मालूम होता है राज्य का नाम बस्तर पड़ा हो” (बस्तर भूषण, केदार नाथ ठाकुर; 1908)। इसी बात को अपने शब्दों में अंतिम काकतीय नरेश प्रवीर चन्द्र भंजदेव नें भी शब्द दिये हैं – “अन्नमदेव अपने बचपन में प्रतिदिन कागज में कुछ लिख कर देवी दंतेश्वरी को चढाते थे। देवी नें प्रसन्न हो कर उन्हें कोई वर माँगने को कहा। अन्नमदेव ने अपने पिता से पूछ कर देवी से राज्य की याचना की। देवी ने कहा राजा आगे आगे चले और देवी पीछे पीछे। राजा जहाँ तक पीछे मुड़ कर नहीं देखेगा, उसका राज्य वहाँ तक विस्तृत होगा। राजा आगे बढता गया किंतु पैरी नदी की रेत मे देवी के पैर धँस जाने पर पायल की आवाज़ रुक गयी। कौतूहलवश राजा ने पीछे मुड़ कर देख लिया (राजिम के निकट)। अत: राजा के राज्य की सीमा वहीं समाप्त हो गयी” (लौहण्डीगुड़ा तरंगिणी; प्रवीर चन्द्र भंजदेव; 1963)

वस्तुत: जनजीवन को उसकी नब्ज के साथ ही थामा जा सकता है इस दृष्टि से अन्नमदेव आक्रांता हो कर भी नायक बन गये। वारंगल से आ कर सत्ता स्थापित करने के बाद भी अन्नमदेव को आक्रांता की दृष्टि से कम और एक देवी-उपासक के रूप में अधिक देखा गया। उनकी विजय को स्वाभाविक मान लिया गया क्योंकि यही प्रचारित था कि विजय तो देवी की कृपा से प्राप्त हुई है तथा जहाँ जहाँ तक देवी के वस्त्र को फैलना अथवा बिना पीछे मुडे राजा को चलना था वहाँ तक स्वत: अन्नमदेव का अधिकार हो ही जाना था। जन श्रुतियों, जन परम्पराओं तथा लोक कथाओं का हिस्सा बनते बनते अन्नमदेव आसानी से एक जननायक बन गये जिसने बस्तर के इतिहास को एक नया आकार प्रदान किया। उपसंहार में एक लोकगीत (डॉ. हीरालाल शुक्ल की कृति बस्तर के चालुक्य और गिरिजन में संकलित) जिसका संबंध बस्तर के प्रथम काकतीय नरेश अन्नमदेव से है तथा जिसे आज भी दशहरा पर्व के अवसर पर सुना जा सकता है -

वरंगा हस्तना ले उतरै महाराज
मंधोता में डेरा लिहिन आज
हुजूर प्रभु बाना बाँधे।

आधा गढ, मंधोता, टीकागढ, डोंगर
छलेगढ, कोटपाड़, गुरुघर, माझीपाल
किलाघर बस्तर तुम्हार
हुजूर प्रभु बाना बाँधे।

गुड़ी दरबारा एबे बैठे महाराज
रंगीन के माहला लागै
आज होरे दरबार लागै
आज हुजूर प्रभु बाना बाँधे।

नेगी असा बैठे, जोगी असा बैठे
बैठे सैदार बैदार वहाँ
बैठे नेगी कपडदार
हुजूर प्रभु बाना बाँधे।

यह गीत केवल अन्नमदेव के विजय की ही गाथा प्रस्तुत नहीं करता अपितु बाद में स्थापित राजकीय व्यवस्था और सामाजिक ताने बाने को अपने साथ जोडने की अन्नमदेव की वृत्ति को भी अपनी अंतिम पंक्तियों में प्रस्तुत करता है। किंवदंतिया केवल पढ कर भूल जाने के लिये नहीं होती अपितु अन्नमदेव के उदाहरण से यह स्पष्ट होता है कि इनका प्रयोग किसी राजनीति को भी सफल कर सकता है, कोई इतना गहरे जुडे तो।

1 comment:

आगत शुक्ल said...

राजीव जी, आपका ब्लाग पढ़ा, मजा आया, और बार बार राहुल जी की याद भी आती रही...इतिहास और लोक में बिखरी बातों को संग्रहित करना मुझे लगता है कि पीढ़ियों की सच्ची मदद करना है। आपको बहुत बहुत बधाई