तूम्बा बस्तर में हर किसी कंधे पर शान से विराजमान हुआ करता था। विषय में उतरने से पहले तूम्बे को केन्द्र में रख कर विमर्श करते हैं। लौकी के जो फल बुढ़ा जाते हैं उसको तोडकर उसका शीर्ष भाग काट लिया जाता है। इसके बाद सावधानी से भीतरी अंश को निकाल कर इसे खोखला बना लेते हैं। अब खोखले भाग में पानी भर कर उसे एक जगह सुरक्षित रख दिया जाता है। आठ दस दिनों में लौकी का भीतरी भाग पूरी तरह सड़ जाता है। सडे हुए अंश को बाहर निकाल कर अच्छी तरह धो कर सुखा दो और तूम्बा तैयार। यह आदिवासियों का वाटर बोटल, पेज कैरियर या सल्फी होल्डर सब कुछ है। इतना ही नहीं अंचल के कई वाद्य हैं जैसे किंदरी, तोहेली, डुमिर, रामबाजा....इन सभी में तूम्बे का घट लगा होता है। घोटुल मुरिया तो अपने कई नृत्यों में तूम्बों से भयानक मुखौटे भी बना कर प्रयोग में लाते हैं। एक भतरी कहावत भी है कि ‘तूम्बा गेला फूटी, देवा गेला उठी’। तूम्बा का फूटना एक अपशकुन है। इन भूमिका के बाद वर्तमान हालात पर एक दृष्टि – तूम्बा अब धीरे धीरे परम्परा से उठने लगा है। बहुतायत स्थलों में तूम्बे की जगह प्लास्टिक की डिस्पोजेबल बोतलों आदि नें ले ली है। एसा क्यों है कि जिस तूम्बे का उपयोग आम था, जो परम्परा का हिस्सा था, जिससे शगुन अपशगुन जैसे मिथक जुडे हुए थे वह धीरे धीरे आम उपयोग से बाहर जाता जा रहा है? क्या यह सामान्य बदलाव हैं? क्या इसी तरह एक समाज पूरी तरह बदल जायेगा और उसे मुख्यधारा हासिल होगी? केवल तूम्बे का प्रश्न नहीं है? वस्तुत: बदलाव की इतनी तेज हवा अन्यत्र नहीं देखी जा रही जो कुछ बस्तर में पिछले दस सालों में हो रहा है। इस कथन के अन्वेषण से पहले अपनी अपनी राजनीतिक सोच का चश्मा हमें परे रखना होगा। यह समस्या राजनीतिक नही है तथा इसके विमर्श और समाधान के लिये की जाने वाली राजनीति नुकसानदेय ही सिद्ध होगी। तूम्बे के प्रयोग में हो रही निरंतर कमी को जानने के प्रयास में मैंने कुछ साक्षात्कार किये थे और यह प्रतीत हुआ जैसे जड सूख रही हो। जैसे अपनी परम्परा, अपनी सोच और अपनी जीवनशैली में लगातार आ रहे बदलाबों नें कहीं जो हो रहा है उसे सहज स्वीकार कर लो की प्रवृत्ति तो नहीं प्रदान की है?
इसके उलट एक और बदलाव का उदाहरण सोचने पर बाध्य करता है। एनएमडीसी में कार्यरत एक आदिवासी साथी अशोक कुमार नाग नें हाल ही में कुछ तस्वीरें दिखायी थी जहाँ वे अपने गाँव में किसी परम्परागत उत्सव में शामिल होने गये थे। नगर के जीवन में पूरी स्वाभाविकता से रचा बसा आदिवासी साथी भी जब गाँव पहुँचता है तो वह मिट्टी के रंग में रच बस जाता है, आनंद पाता है, वहाँ के जीवन का बिलकुल वैसा ही हिस्सा हो जाता है जैसे कोई शिशु अपनी माँ की गोद में पहुँचकर सुकून और आनंद की साँस ले रहा हो।
अब एक तीसरी कहानी। इस कहानी नें मेरी सोच पर बहुत असर किया था तथा इसका उपयोग मैने अपने उपन्यास में भी किया है। मंगलू से मैं दंतेवाड़ा में मिला था। तब वह किसी सलवाजुडुम कैम्प में रह रहा था। मैने पूछा कि अपना घर-बाड़ी छोड कर क्यों भाग आये? उसने बताया कि उसके गाँव में माओवादी लोगों का हुकुम चलता है इससे उसे शिकायत नहीं थी। समस्या शुरु हुई जब उसके दो मुर्गों में से एक मुर्गा उसके ही पड़ोसी को बटाई में मिल गया। यह सामान्य प्रक्रिया है कि किसी गाँव को अपने कब्जे में लेने के बाद माओवादी वहाँ अवस्थित जन-जानवर आदि की गणना करते है फिर उपलब्ध धन-पशुधन को बराबरी के आधार पर बाँट देते हैं। रोज आधा पेट सोने वाला मंगलू पूंजीपति हो गया था क्योंकि अपने खून-पसीने से उसने दो मुर्गे सम्पत्ति बना ली थी। मंगलू इस बटाई के लिये सहमत नहीं था। उसने विरोध किया लेकिन दो चार थप्पड खाने के बाद उसे समानता का सिद्धांत समझ में आ गया। मंगलू के कुछ दिन भीतर ही भीतर कुढ़ते हुए बीते। दुर्भाग्य से उसका मुर्गा मर गया। अब उसकी पीड़ा और बढ़ गयी थी। बटाई में चला गया मुर्गा वापस पाने के लिये वह पडोसी से रोज झगड़ने लगा। बात सरकार चलाने का दावा करने वालों तक भी पहुँची लेकिन मंगलू को मुर्गा वापस नहीं किया गया। मंगलू के लिये यह मुर्गा दिन की तड़प और रात का सपना बन गया था। एक दिन जब बर्दाश्त नें जवाब दे दिया तो वह उठा और अपने मुर्गे की गर्दन मरोड़ कर गाँव से भाग गया.....।“
उपरोक्त तीनों उदाहरण काल्पनिक नहीं हैं तथा विषय को ठीक तरह से समझने में सहायक हो सकते हैं। पहला कि चाहे वह सरकारी प्रक्रियायें हों अथवा माओवादी पहल, आप न तो अपनी योजनाओं के प्रतिपादन में, अथवा, अपने विचार की स्वीकारोक्ति में तब तक सफल हो सकते हैं जब तक कि बात आम संवेदना से सीधे न जुडे। हो सकता है कि आपकी पहल बहुत वैज्ञानिक हो; हो सकता है कि आपके विचार अत्यधिक क्रांतिकारी हों किंतु अगर उनसे तूम्बा गुम हो जाता हो या मगलू को अपने मुर्गे की गर्दन मोड कर विस्थापित जीवन का चयन करना पडता है तो समझिये आपकी योजनायें धरी रह गयीं और आपकी क्रांति बह गयी इन्द्रावती में। रास्ता तो अशोक नाग का ही बनेगा जहाँ वह अपने लिये बेहतर जीवन की तलाश में पूरे संघर्ष के बाद सफल होते हैं, अपने बच्चों के लिये बेहतर भविष्य की नींव डालते हैं तथा जमीन की महक से भी जुडे रहते हैं। यही बदलाव की सही दिशा है और मेरी सोच किसी नारे या झंडे से बंधनें के लिये नहीं अपितु इसी दिशा की ओर इशारा करती है। नव निर्माण का श्रीगणेश और हम बस्तरिया करेंगे के जो भी आह्वाहन मेरे आलेखों में हैं वह आदिवासी साथियों के साथ इसी विमर्श और संवाद को बनाने की दिशा में हैं। मेरी निजी राय है कि आदिम समाज को आईसोलेट करने और मानवसंग्रहालय में बदलने की सोच दकियानूसी है। यद्यपि आधुनिकता से कई नकारात्मक बदलाव आते हैं; इसके अलावा माओवाद नें भी एक उपनिवेश बना कर बहुतायत गोंड बाहुल्य क्षेत्रों में जीवन का तरीका, परम्परा और संस्कृति पर प्रहार किया है। यह कोशिश मुझे किसी पौधे को जड से उखाडने के बाद नये बीज लगाने जैसी लगती है। यह बिलकुल अलग समाज का जन्म होगा जिसमें न तो बस्तरिया मिट्टी की महक होगी न पारम्परिक जीवंतता। जिसे इस कटुसत्य का अनुभव करना हो वे वीरान होते जंगलों, सिसकती देवगुडियों और मातागुडियों, बंद हो चुके घोटुलों, ले जाने वालों की राह तकते पाटदेवों के अवशेषों में उस बदलाव का आईना देख सकते हैं जो कैंसर की तरह शनै: शनै: बस्तर से बस्तरियापन खाये जा रहा है।
नक्सलबाडी से आरंभ हुआ आन्दोलन एक दिन वहीं दम तोड देता है। आन्ध्र के मुलुगु के जंगलों में पैर पसारने की कोशिश असफल होती है तो बंदूखे बस्तर का रुख कर लेती हैं। यह सबकुछ यहाँ से भी मिट जाने वाला है केवल समय की ही देरी है चूंकि यह इस धरती का स्वत: स्फूर्त आन्दोलन नहीं है, इस आन्दोलन नें इस मिट्टी के ‘सरोकारों से’ और यहाँ के ‘सरोकारों के लिये’ जन्म नहीं लिया अपितु यहाँ पाव धरने के बाद जमने और फैलने के लिये सरोकार तलाशे गये हैं। यह भूमकाल नहीं है। बस्तर में यह एक समस्या की तरह अवतरित हुआ तथा अनेक समस्याओं का जन्मदाता बन कर प्रसारित होता जा रहा है। हाँ इसका समाधान कोई जादू की छडी नहीं है लेकिन है तो बस्तरियों के पास ही। बस्तर का खून पीने वाले और भी कारक हैं जिसमें व्यवस्थागत दोषों से भी मुँह नहीं मोडा जा सकता। भ्रष्टाचार और शोषण कल भी बस्तर का सच था और आज भी है।
कुछ मोटे समाधानों पर पहले बात, नक्सलियों नें बहुत योजनाबद्ध तरीके से पटेल-माझी व्यवस्था द्वारा बस्तर के जंगल और शहर के बीच जारी संवाद को तोड दिया है। मुरिया दरबार अब केवल परम्परा रह गया है जबकि यह संवाद के पुनर्स्थापन की सबसे मजबूत कडी बन सकती है। यह समय बस्तर विश्वविद्यालय को अधिक अधिकार और स्वायत्तता देने का है जिससे न केवल आदिवासी भाषा, संस्कृति, इतिहास आदि पर शोधमूलक कार्य आरंभ हो सकें अपितु सीधे आदिवासी क्षेत्रों में संचालित महाविद्यालयों के माध्यम से रोजगार मूलक पाठ्यक्रम संचालित किये जा सकें। बस्तर में जब तक उच्च शिक्षा पर इस प्राथमिकता के साथ कार्य नहीं किया जायेगा कि यहाँ के बच्चे अंचल से बाहर निकल कर भी कार्य करने और देश की मुख्यधारा में सक्रिय योगदान देने जैसी क्षमता विकसित कर ले तब तक विकल्पहीनता की स्थिति तो बनी ही हुई है जो युवाओं को हताशा में गलत राह चुनने का अवसर प्रदान करती है। धार्मिक विश्वास को बहुत ही धैर्यपूर्वक आधुनीकीकरण से जोडा जा सकता है जो आदिवासी शिक्षित युवक बखूबी अंजाम दे सकते हैं - जहाँ हाशिये पर चले गये गुनिया, सिरहा और ओझा पारम्परिक चिकित्सा पद्यति के प्रशिक्षण के साथ असंभव क्षेत्रों की स्वास्थ्य सुविधायें बन जायें। [दुर्भाग्य वश मैं उस औषधि का नाम नहीं जानता, बचपन में मेरी पैर की हड्डी टूट जाने की अवस्था में उस अर्क से मालिश की जाती थी जिसके आश्चर्यजनक परिणाम मैने स्वयं महसूस किये हैं।] सहकारिता को आन्दोलन बनाये जाने के सख्त आवश्यकता है, अपितु दूर सुदूर क्षेत्रों में किसी समझौते के तहत नक्सली भी सहकारिता के लाभों को ग्रामीणों तक पहुँचाने में सहभागी बने तो आपत्ति नहीं होनी चाहिये। वन विभाग तथा पुलिस विभाग की कार्यशैली में बहुत खामियाँ हैं तथा इनके बेहतर प्रशिक्षण व सुधार की आवश्यकता बहुत समय से है। मुझे इन दोनों ही विभागों में स्थानीय अधिकता आवश्यक लगती है। एक और बात कि घोटुल जैसी संस्थायें पुन: जीवित की जानी चाहिये संभव हो तो आदिवासी समाज स्वयं उनमें किये जाने वाले बदलावों पर विचार करे तथापि सामाजिक समरसता और युवा पीढी के मध्य भावनात्मक और वैचारिक आदानप्रदान का यह मंच ध्वस्त नही होना चाहिये, किसी भी हाल में।
बस्तर में शिक्षित आदिवासी युवकों से ही उम्मीद बंधती है कि वे अपनी जडों की तलाश करने का यत्न करें। दुनिया के सभी जागरूक समाजों में भीतर से ही बदलाव हुए हैं। झारखण्ड के भगवान बिरसा मुण्डा के आन्दोलन के विषय में पढने के बाद मैं रोमांचित हो उठा था साथ ही यह पीदा भी हुई कि बस्तर के अनेकों नर-देवताओं तथा बिरसा-मुण्डाओं को यह देश जानता ही नहीं। स्वयं बस्तर में आदिवासी युवा अनभिज्ञ हैं कि उनके अतीत में ही वर्तमान पर गर्व करने के हजारो कारण छिपे हुए हैं। इस धरती के पास अपने भगतसिंह और अपने गाँधी भी हैं तथा अगर उनके विशय में बस्तर की वर्तमान एवं आने वाली पीढी भी जागरूक हो जाये तो वह आन्दोलनों के वास्तविक अर्थ समझ सकेगी तथा भटकाव उनके लिये सहज रास्ता नहीं रहेगा। बहुत आवश्यक है कि आदिवासी आन्दोलन के नायकों आजमेर सिंह (1775); गेन्दसिंह (1825); दलगंजनसिंह (1842); श्यामसुन्दर जिया (1850); धुर्वाराव, व्यंकुटराव (1857); रामभोई, जुग्गाराजू, नागुलदोरा, कुन्यादोरा (1859); जुगराज कुँअर (1878); हिडमा माझी (1876); गुण्डाधुर, डेबरीधुर, हिडमापेद्दा, डोडापेद्दा, मुकुन्ददेव माछमारा, मूरतसिंह, रोडापेद्दा, सुकू पनारा, चकरू मुरिया, जोगी परजा, हरि चालकी, मड़कामी मासा, बोकड़ा बोडी, कुंडी कोसा, कुराटी सोमा (1910) आदि पर समौचित जानकारियाँ पुस्तकों-पाठ्यपुस्तकों से माध्यम से बस्तर के आदिवासी जनमानस तक पहुँचें। यह शिक्षित बस्तरियों को ही करना होगा कि अपने गाँवों से जुडे रह कर मौखिक इतिहास और वर्तमान के सरोकार के बीच लम्बे समय से टूट गयी कडी को जोडने की कोशिश करें। यह शिक्षित आदिवासी युवकों का ही दायित्व है कि उनके बच्चे एक बेहतर भविष्य का सपना भी बुनें और मांदर की थाप पर थिरकना भी नहीं भूलें। हम दिल्ली तक अपनी बात जब पहुँचाने पहुँचे तो ठसके से मिनरल वाटर को खोल कर पानी गटकना भी जानें तथा अपनी मिटटी पर पैर धरते ही यहाँ की स्पन्दन भी शिद्दत से महसूस कर सकें और तूम्बें से गट गट गला तर करने में गर्व हमारा साथ दे। हाँ बदलाव भीतर से ही आयेगा बस्तरियों को ही जुटना होगा और निर्मित करना होगा अपना प्रगतिशील समाज।
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