भागलपुर स्थित भगवान पुस्तकालय स्थानीय नहीं अपितु राष्ट्रीय धरोहर है। यह पत्र पुस्तकालय की स्थिति भी स्पष्ट करता है तथा इसके संरक्षण के लिये भागलपुर जिला प्रशासन से एक अपील भी है। अपेक्षा करता हूँ कि प्रसाशन की ओर से सकारात्मक पहल होगी। एक नागरिक के तौर पर जो मेरा दायित्व था उतना कार्य करने की मेरी कोशिश है।
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जिलाधिकारी
भागलपुर जिला
बिहार
विषय: भगवान
पुस्तकालय के संरक्षण के सम्बन्ध में।
महोदय,
मैं एक लेखक हूँ तथा वर्तमान में देहरादून (उत्तराखण्ड) में अवस्थित हूँ। एक शोधकार्य के
लिये पिछले दिनों आपके जिले में स्थित भगवान पुस्तकालय जाना हुआ। जितनी अपेक्षा और
तैयारी के साथ मैं भागलपुर के प्राचीन ‘भगवान पुस्तकालय’ पहुँचा था उतनी ही मायूसी इस बुनियादी सुविधा-विहीन पुस्तकालय को देख
कर हुई। यहाँ पहुँचने की अभिरुचि उस जानकारी के कारण थी कि कुछ ही महीने पहले भगवान
पुस्तकालय में पाण्डुलिपि संरक्षण केन्द्र के कुछ अधिकारियों को एक अलमारी में
झोले में रखी हुई कुछ दुर्लभ पाण्डुलिपियाँ प्राप्त हुई जिनकी संख्या छ सौ से अधिक
थी। इसी दौरान प्राप्त दस्तावेजों में से एक भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ.
राजेन्द्र प्रसाद की हस्तलिखित वह चिट्ठी भी है जिसमें उन्होंने भगवान पुस्तकालय की
मरम्मत के लिये भागलपुर के धनाड्य लोगों से अपील की है। यह पत्र 1934 का है जब भागलपुर में आये भूकम्प के कारण
पुस्तकालय को भी नुकसान हुआ था; तब राजेंद्र बाबू बिहार सेंट्रल रिलीफ कमेटी की ओर से भूकंप पीडि़तों
की सेवा करने में जुट गये थे। भूकंप में भगवान पुस्तकालय के मुख्य भवन का गुंबद
लटक गया था। इसकी मरम्मत के लिए तत्कालीन पुस्तकालयाध्यक्ष स्व. पंडित उग्र नारायण
झा ने मुंगेर में उनसे मुलाकात कर मदद का अनुरोध किया। इस पर डॉ. राजेन्द्र प्रसाद
नें भागलपुर के धनाढ्य परिवारों के नाम पत्र लिखकर पुस्तकालय को आर्थिक सहायता
करने का अनुरोध किया था। आज लगता है कि राजेन्द्र बाबू की अपील निरर्थक रह गयी है,
यहाँ तक कि उनके हाँथों के लिखे कागज हमसे
संभाले नहीं संभलते? यह स्थिति तब है जब
कि रजत जयंती, स्वर्ण जयंती एवं
हीरक जयंती मना चुके इस गौरवशाली पुस्तकालय मे आगामी 7 दिसम्बर 2013 को इसकी स्थापना की 100 वीं जयंती मनाया जाना है।
मुख्यद्वार से पुस्तकालय तक पहुँचते हुए ही
बदहाली का अंदेशा हो जाता है। भीतर प्रवेश करता हूँ तो सन्नाटा पसरा हुआ है।
तलाशने पर एक कर्मचारी मिलता है जो बेचारा उमस और गर्मी का मारा बनियान चढाये
पुस्तकालय के पीछे बैठा हुआ है। इस पुस्तकालय सहायक को संदर्भ बताता हूँ जिनपर
सामग्री की मुझे तलाश है तो वह पहले सोचने की गंभीर मुद्रा बनाता है फिर एक मोटा
सा रजिस्टर ला कर सामने रख देता है जो कि उपलब्ध पुस्तकों का कैटलॉग है। मैं कुछ
किताबें चुनता हूँ तो वह तलाश कर मुझे देने की बजाय एक अलमारी की ओर उंगली दिखाता
है जिसपर एक पीला साकागज चिपका है ध्यान से देखने पर ही अंदाजा होगा कि भीतर
इतिहास की पुस्तकें रखी हैं। अलमारी खोलने में ताकत लगानी पडी; शायद इन्हें महीनों या सालों से खोला ही नहीं गया
है? किताबों की हालात भी
शर्मसार करने वाली है। यह किस किस्म का पुस्तकालय चल रहा है? आज के दौर में जहाँ पुस्कालय प्रबन्धन को विज्ञान
कहा जाता है वहाँ साहित्य, इतिहास, कला हर किस्म की
किताबों की एसी दुर्दशा कि देखी भी नहीं जाती?
मेरे चिन्हित संदर्भ तो मुझे नहीं मिले किंतु मैंने
एक एक कर कई किताबें टटोली और आवाक रह गया इतने पुराने और दुर्लभ संकलनों को देख
कर। हालात इतने खराब है कि बहुतायत पुस्तके न तो क्रम से व्यवस्थित हैं न ही सभी
की कैटलॉगिंग ही पूरी हुई है। कई टेबलों पर किताबें गट्ठर की शक्ल में रखी हुई हैं
और आप नीचे दबी हुई पुस्तकें तो निकाल ही नहीं सकते। कई हजार किताबें उपर की
अलमारियों में इस तरह रखी गयी हैं कि उनतक पाठकों के हाँथ तो नहीं पहुँच सकते
अलबत्ता दीमक और चूहों की उनको उपलब्धता हो सकती है। कई संदर्भ पुस्तकें जिन्हें
मैने उठाया उनपर दीमक नें छेद कर दिये थे। मैंनें पुस्तकालय सहायक से इस पुस्तकालय
के अध्यक्ष से संपर्क करने के लिये कहा जिससे कि यहाँ उपलब्ध उन पाण्डुलिपियों को
देख सकूं जिनके विषय में हालिया जानकारी प्रात हुई है। थोडी ही देर में कोई महिला
अधिकारी आती हैं किंतु वे गर्दन हिलाकर इन पाण्डुलिपियों को दिखा पाने में
असमर्थता जाहिर कर देती हैं। मै इन्हे देखने का निर्धारित शुल्क देने के लिये
प्रस्तुत हूँ फिर इनकार क्यों? तो पता चलता है कि चाबी सेक्रेटरी साहब से मिलेगी। सेक्रेटरी साहब से
संपर्क की कोशिश होती है तो पता चलता है कि वे शहर से बाहर हैं इस लिये अब दो सप्ताह
के बाद ही आना होगा; अगर इन
पाण्डुलिपियों में रुचि है। मुझे देहरादून लौटना था और इतना समय नहीं था, मन मसोस कर रह गया। किंतु यही अवस्था तो प्रत्येक शोधार्थी की होती
होगी जो एसे महत्वपूर्ण पुस्तकालयों में बडी ही अपेक्षा के साथ पहुँचते हैं?
मुझे इन पाण्डुलिपियों को न देख पाने का अफसोस
क्यों नहीं होना चाहिये? लगभग दो सौ साल का इतिहास इनके भीतर छिपा हुआ है। एक पाण्डुलिपि एसी
भी है जिससे पता चलता है कि औरंगजेब की बेटी जैबुन्निशा की तालीम व तरबियत
(शिक्षा-दीक्षा) भागलपुर के कुतुबखाना पीर शाह दमड़िया बाबा शाह मंजिल, खलीफ़ाबाग में हुई थी। वे 1665 ई के आसपास यहाँ रहा करती थीं। इसी स्थल से
सम्बन्धित बादशाह अकबर का एक फ़रमान पत्र पुस्तकालय में उपलब्ध है जिसमे उन्होंने
आदेश दिया था कि दिल्ली की गद्दी पर बैठने वाले बादशाह यहाँ दुआ मांगने आयेंगे। एक
अन्य प्राप्त जानकारी रोचक है अंगरेजी शासनकाल में हाकिम उसी दरख्वास्त के पिछले
पृष्ठ पर फ़ैसला लिखा करते थे, जो उन्हें पीड़ितों के द्वारा सौंपा जाता था; 1824, 1865, 1903
व 1904 ई की मिली पांडुलिपि (हस्तलिखित) से इस तथ्य की
जानकारी मिली है। कई दुर्लभ ग्रंथ और कविता संकलन भी यहाँ उपलब्ध हुए है इनमें
श्यामसुंदर द्वारा अवधि में लिखी गयी चतुप्रिया ग्रथांतर्गत भूल वर्णन, मथुरा प्रसाद चौबे व रामकृष्ण भट्ट की कविता मिली
है। कविता की पाण्डुलिपि 150 साल पुरानी है। सच्चिदानंद सिन्हा द्वारा 1934 में लिखी गयी पुस्तकालय परिदर्शन टिप्पणी मिली है,
जो अंगरेजी में लिखी गयी है। मानीदेव की
रचना काशीवासी सिंहराज का युद्ध वर्णन भी मिली है। कवि रघुनाथ की लिखी वसंत ऋतु
कविता भी मिली है। सौभाग्य से पांडुलिपियों का तैयार डाटा बेस पटना पहुंचा दिया
गया है। कई पाण्डुलिपियाँ अच्छी हालत में नहीं बतायी जाती हैं। इनकी समुचित
स्कैनिक आदि कर के आधुनिक तकनीकों के माध्यम से अध्येताओं तक पहुँचाने की व्यवस्था
राज्य सरकार को करनी चाहिये।
महोदय उपरोक्त बाते लिखने का मेरा मंतव्य भगवान
पुस्तकालय के बहाने सरोकारों के प्रति हमारी उपेक्षा की ओर प्रशासन का ध्यान दिलाना
मात्र है। भगवान पुस्तकालय की स्थापना 7 दिसम्बर 1913 को भागलपुर के जमींदार सह ऑनरेरी मजिस्ट्रेट पंडित भगवान प्रसाद चौबे
एवं उनके भतीजे पंडित अलोपी प्रसाद चौबे ने संयुक्त रूप से अपनी निजी
भूमि, भवन एवं संसाधनों को
समाज को समर्पित कर के किया था। इस पुस्तकालय का उद्घाटन भागलपुर के तत्कालीन
अंग्रेज कमिश्नर एच जे मेकेन्टोस ने किया था। पुस्तकालय की स्थापना का एक उद्देश्य
हिन्दी के प्रचार-प्रसार के साथ स्वतंत्रता आन्दोलन को गति देना भी था। भगवान
पुस्तकालय से लम्बे अर्से तक पुरुषोत्तमदास टंडन, डा. रामचन्द्र शुक्ल, डा. राजेन्द्र प्रसाद, डा. जाकिर हुसैन, भागवत झा आजाद, डा. जगजीवन राम, डा. जगन्नाथ कौशल, डा. ए. आर. किदवई, राहुल सांकृत्यायन जैसे दिग्गज राजनेताओं और
साहित्यकारों का जुड़ाव बना रहा है। वर्ष 1955 में बिहार सरकार द्वारा इसका अधिग्रहण करने के
बाद इसे प्रतिवर्ष 25,000 रुपये अनुदान मिलना प्रारंभ हुआ, जो अब बढ़कर 49,740 रुपये हुआ है; सही मायनों में यह नितांत अपर्याप्त राशि है।
तथापि क्या अपने गौरवशाली अतीतका संरक्षण केवल सरकार का ही दायित्व है? अगर एसा होता तो 1934 में इसी पुस्तकालय के पुनरुद्धार के लिये राजेन्द्र
बाबू आम जनता से अपील नहीं करते। केवल समय बदला है किंतु उनकी वही अपील आज भी कायम
है। यह पुस्तकालय भागलपुर वासियों की दृष्टि और पहल की प्रतीक्षा कर रहा है। एक
पहलू यह भी देखें कि भागलपुर जिले की कुल आबादी 2011 की जनगणना के अनुसार 3,032,226 है। यह बिहार की कुल आबादी का 2.92 फीसदी है। मैने पुस्तकालय में वर्तमान सदस्य
संख्या को जानना चाहा तो क्षोभ से भर उठा उत्तर मिला – “अब साठ लोग पुरने वाला है”। मुझे कुछ पत्रकारों के माध्यम से यह ज्ञात हुआ
कि सदस्य संख्या बढाने के लिये कोई अभियान ही नहीं चलाया गया है। इस तरह तो यह
धरोहर आत्महत्या की ओर बढ रही है। मैं जानता हूँ कि इतना संवेदनहीन शहर तो नहीं हो
सकता भागलपुर। मुझे उम्मीद है कि प्रबुद्ध प्रशासन जानकारी प्राप्त होते ही इस
विषय को प्राथमिकता से संज्ञान में लेगा तथा पुस्तकालय के संरक्षण एवं प्रबन्धन के
लिये आवश्यक दिशा निर्देश जारी किये जायेंगे।
महोदय, भगवान पुस्तकालय से संबंधित अपने विचारों
को मैने वेब माध्यम से उठाया था तथा इस दिशा में देश-विदेश से अनेकों साहित्यकारों
एवं पुस्तक प्रेमियों की प्रतिक्रियायें प्राप्त हुई हैं। वाराणसी से दैनिक जागरण
में कार्यरत वरिष्ठ साहित्यकार श्री श्यामबिहारी श्यामल नें लिखा है कि “भागलपुर के ऐतिहासक भगवान पुस्तकालय में अनेक दुर्लभ पुस्तकें
और पांडुलिपियों का होना तो इसे महत्वपूर्ण बनाता ही है, इस तथ्य से यह और दुर्लभ हो जाता है कि इसके साथ
हमारी भाषा के महान साहित्यकारों की सम्बद्घता और स्मृतियां भी जुड़ी हुई हैं। इसके संरक्षण के लिए आगे आने वाली संस्था से
अपेक्षा की जानी चाहिए कि वह यहां की दुर्लभ पांडुलिपियों को सबसे पहले तो वीडियो
वर्जन में फिल्मीकृत करने जैसी समुचित पहल करे और ऐसा ही भरसक प्रयास पुरानी पुस्तकों
को लेकर भी हो। इसके साथ ही पुस्तकालय विज्ञान के किसी योग्य जानकार से संपर्क
कर तमाम पुस्तक-संपदा के सूचीकरण और नियमित संरक्षण-कार्य के लिए परामर्श ले। यह
कार्य बिहार में भी पटना के खुदा बख्श लाइब्रेरी या सिन्हा पुस्तकालय जैसे ठोस
संस्थानों से संपर्क कर पूरा किया जा सकता है। इस पुस्तकालय के साथ हमारे प्रथम
राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद का भी सीधे जुड़ाव रहा है। आवश्यकता केवल इस बात
की है कि ढंग से पहल हो और जाहिरन यह अभियान भागलपुर की धरती से शुरू हो तो बात
आगे बढ़ सकती है”। कलकत्ता
विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक तथा वरिष्ठ वामपंथी विचारक श्री
जगदीश्वर चतुर्वेदी नें राज्य सरकार से इस मामले में दखल देने की उम्मीद की
है। बोधि प्रकाशन से साहित्यकार तथा प्रकाशक श्री माया मृग जी नें
पुस्तकालयों के संरक्षण और संग्रहण को एक कौशल बताते हुए किसी भी तरह की सहायता के
लिये प्रस्तुत होने की बात कही है। जयपुर से वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती सरस्वती
माथुर नें टिप्पणी की है कि जागते को जगाया जाना अधिक कठिन कार्य है; उन्होंने
पुस्तकालय की दुर्दशा पर गंभीर चिंता व्यक्त की है। लंदन से वरिष्ठ कथाकार एवं
प्रतिष्ठित हिन्दी सम्मान “कथा यू.के के समन्वयक श्री तेजेन्द्र शर्मा नें
पुस्तकालय संरक्षण को महत्वपूर्ण सरोकार माना है। दिल्ली विश्वविद्यालय से संगीता
कुमारी, फिल्म निर्माण क्षेत्र से जुडी पंखुडी पल्लवी, सुदूर बस्तर
क्षेत्र के भोपालपट्टनम से श्री संदीप राज नें भगवान पुस्तकालय के वर्तमान
हालात पर अपनी चिंता व्यक्त की है। पुस्तकालय क्षेत्र से जुडे श्री गणेश कुमार
साहू नें लिखा है कि “आए दिन हमे पढ्ने और सुनने
मे आता है कि पुस्तकालय मे आई टी और इससे जुड़े प्रयोगों पर देश भर मे ढेर सारे
सेमिनार/अधिवेशन आयोजित किए जाते है पर क्या कभी इस देश के तथाकथित पुस्तकालय
बुद्धिजीवी ने सोचा भी होगा कि असली सेमिनार/अधिवेशन तो पुस्तकालय को बचाने से
शुरू होता है”। शारजाह से अभिव्यक्ति-अनुभूति वेब पत्रिकाओं की सम्पादिका
तथा राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती पूर्णिमा वर्मन नें सुझाव
दिया है कि “किसी डिग्रीधारी अनुभवी लायब्रेरियन का
सहयोग लेना चाहिये। अवकाश प्राप्त लाइ्ब्रेरियन भी सहयोग कर सकते हैं”। मुम्बई से वरिष्ठ लेखिका मधु अरोडा नें
सुझाव दिया है कि “यह एक बड़ा
काम है क्योंकि सारी पुस्तकों को खोजना और उनका रिकॉर्ड आदि करना होगा। इसके
लिये विभिन्न पुस्तकालयों की सहायता लेना होगा। पुस्तकालयों को पत्र लिखकर उनसे
वहां के प्रशिक्षित लोग बुलवाए जायें और काम को करने के प्रयास किये जायें”।
इसी संदर्भ को आगे बढाते हुए रांची से वरिष्ठ रंगकर्मी एवं आदिवासी मामलों के जाने
माने लेखक श्री अश्विनी कुमार पंकज नें लिखा है कि “पुस्तकों का रखरखाव और पुस्तकालय का संचालन बहुत मुश्किल काम है। इसके
लिए विशेषज्ञों की सलाह ली जानी चाहिए। मुझे संदेह है कि कोई एनजीओ ऐसे पुस्तकालय
का रख रखाव दीर्घकालीन समय तक कर सकेगा।
बेहतर यही होगा कि स्थानीय प्रशासन और नागरिकों को इसके लिए जिम्मेदार और जवाबदेह
बनाया जाए। जो इसके रखरखाव की पूरी योजना बनाएं,
उसका
ब्लूप्रिंट सामने रखें तभी जो मदद करना चाहते हैं उनकी भूमिका स्पष्टतः तय हो
सकेगी और यह कारगर भी होगी। पुस्तकालय का कंप्यूटीकरण और रेयर पुस्तकों का
डिजिटाइजेशन भी जरूरी है और यह कार्यसूची में शामिल रहे”। पुणे से कवि तथा
गीतकार श्री विश्वदीपक तनहा नें पुस्तकालय की देख रेख के लिये
अनुभवी लाईब्रेरियन की आवश्यकता पर जोर दिया तो रायपुर से श्रीमती नीलिमा गडकरी
नें लिखा कि “पाण्डुलिपि प्रबंधन का काम बेहद गंभीर
और जटिल विषय है तथा इस में किसी कुशल प्रबंधन और पुस्तकालय विशेषज्ञ का सामंजस्य
होना जरुरी है. मुझे लगता है इसमें स्थानीय विश्वविद्यालय और स्थानीय प्रशासन की
भी सहायता ली जा सकती है”| जयपुर से टीवी पत्रकार श्री आर्य मनु नें
पुस्तकालयों की प्रत्येक शहर में हो रही दुर्दशाओं पर ध्यान दिलाते हुए भगवान
पुस्तकालय के बेहतर प्रबन्धन की अपील की है। बिहार से ही फिल्म निर्माता तथा पत्रकार
श्री भवेश नन्दन झा नें लिखा है कि “अपने
धरोहरों से लोगों का ध्यान हटता जा रहा है। कमोबेश सभी जगहों के हालात एक जैसे हैं, मधुबनी के पुस्तकालय जहाँ हम घंटों सुकून से पढ़ा करते
थे आज दुर्दशा का शिकार है। इन मामलों में सरकारी तंत्र से खराब रवैया आम लोगों का
होता है, जिनके लिए ये बना है”। दंतेवाडा, छत्तीसगढ से श्री चन्द्र मण्डावी नें अपनी
प्रतिक्रिया में लिखा है कि “देश के कई हिस्सो मे हमारी प्राचीन धरोहरें आज इसी तरह
उपेक्षा का दर्द झेलते हुये विलुप्ति के कगार तक पहुच गयी हैं”। रांची से लेखक श्री रवि बाजपेयी
लिखते हैं कि “अपनी
धरोहरों की देखरेख हमारी जिम्मेदारी है, सरकार की नहीं| यदि लोग चाहेंगे तो स्थानीय प्रशासन व सरकार अपना काम
करेगी| भागलपुर के लोगों को इस कुव्यवस्था
के बारे में बताना आवश्यक है, निश्चय ही स्थानीय लोग इस
पुस्तकालय के बचाव के लिए आगे आयेंगे”। वरिष्ठ कथाकार श्री बलराम अग्रवाल नें पुस्तकों के प्रति
संवेदनशीलता को अपने पूर्वजों के प्रति आदर की अभिव्यक्ति के साथ जोडा है। मास्को
से वरिष्ठ लेखक श्री अनिल जनविजय नें इसके संरक्षण में सभी प्रकार के सहयोग
की मनोभावना के साथ आगे आने की इच्छा अभिव्यक्त की है। दंतेवाडा से सामाजिक
कार्यकर्ता श्री संजय महापात्र नें लिखा है कि “यह आनेवाली पीढी के साथ हमारा अन्याय
है”। राँची से
पत्रकार श्री पुष्य मित्र नें भगवान पुस्तकालय की स्थिति पर दु:ख जताते हुए
यहाँ जारी कुप्रबन्धन की ओर ध्यान दिलाया है। उनके अनुसार सदस्य बनाने की
प्रक्रिया से ले कर पुस्तकों का रख रखाव सभी कुछ चिंताजनक है। जगदलपुर से श्री हेमंत
नाग लिखते हैं कि स्थानीय प्रशासन को इसके संरक्षण में आगे आना चाहिये। सिलचर,
असाम से श्री आकाश वर्मा नें इस दिशा में कुछ शीघ्र किये जाने की अपील की
है। अमेरिका से हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्रिका “हिन्दी चेतना” की सम्पादिका श्रीमती
सुधा ओम ढींगरा लिखती है कि “हम विदेशी लाइब्रेरियों में हिन्दी साहित्य को जुटाने
और सुरक्षित करवाने की कोशिश कर रहे हैं और भारत में यह हाल है”।
महोदय यह कुछ प्रतिक्रियायें भर हैं
तथापि इससे प्रसन्नता होती है कि पुस्तकालय और इसके संरक्षण को ले कर अभी भी हमारा
समाज तथा लेखक वर्ग जागरूक एवं चिंतित है। यह भी महत्वपूर्ण है कि वे धरोहरें जो
आने वाली पीढी की अमानत हैं अगर वर्तमान द्वारा उपेक्षित भी की जा रही हैं तो भी
उनका समुचित संरक्षण दाहित्व बनता है। जैसा कि जानकारी प्राप्त हुई है कि राज्य
सरकार द्वारा पुस्तकालय को अनुदान भी प्राप्त होता है अत: आपसे विनम्र अनुरोध है
कि कृपया स्वयं संज्ञान ले कर पुस्तकालय के समुचित प्रबन्धन के लिये दिशा निर्देश
प्रदान करने का कष्ट करें। भागलपुर विश्वविद्यालय में पुस्तकालय प्रबंधन का अध्ययन
कराया जाता है यदि उनकी सहभागिता प्राप्त हो जाये तो वैज्ञानिक तरीके से तीन लाख
से अधिक पुस्तकों का रखरखाव, कैटलॉगिंग तथा आम पाठक/शोधार्थियों तक उनका पहुँचाना
संभव हो सकेगा। भागलपुर से ही एक गैर सरकारी संगठब लकी महिला एवं युवा संघ नें भी
इस दिशा में कार्य करने की रुचि दिखायी है। उनका पत्र भी मैं साथ ही संलग्न कर रहा
हूँ।
महोदय, यह कार्य बडा उद्देश्य
अंतर्निहित रखता है। आपके कुशल निर्देशन/मार्गदर्शन में यदि कार्य सम्पन्न हो जाये
तो यह सौगात न केवल भागलपुर शहर के लिये होगी अपितु देश-विदेश के सभी हिन्दी/पुस्तक
प्रेमियों के लिये भी होगी। हम सभी
साहित्यकार/कलाकार/हिन्दीप्रेमी/विद्यार्थी/शोधार्थी आपकी ओर अपेक्षा भरी निगाह से
देख रहे है। हमें अपेक्षा है कि आने वाले वर्ष में जब इस पुस्तकालय के स्थापना की
सौंवी वर्षगाँठ मनायी जायेगी तब तक यह एक बेहतर तरीके से प्रबंधित तथा संरक्षित
होगा। मुझे अपेक्षा है कि आप इस दिशा में अवश्य कारगर कदम उठायेंगे।
सादर।
भवदीय
अनुलग्नक: - अ) भगवान
पुस्तकालय में खीचे गये कुछ फोटोग्राफ्स।
आ) पुस्तकालय प्रबन्धन पर एक
संक्षिप्त नोट।
ई) गैर सरकारी संस्था “लकी युवा एवं
महिला संघ” का एक पत्र।
राजीव रंजन प्रसाद
221/7, मोहित नगर
देहरादून (उत्तराखण्ड) – 248006
चलभाष – 07895624088
ई-पता – rajeevnhpc102@gmail.com
प्रतिलिपि:
1.
कुलपति महोदय, भागलपुर विश्वविद्यालय को इस अनुरोध के साथ कि
पुस्तकालय विभाग तथा इसके शोधार्थियों के माध्यम के आपकी पहल द्वारा भगवान
पुस्तकालय के बेहतर तथा वैज्ञानिक तरीके से प्रबन्धन की योजना तैयार की जा सकती
है।
2.
संचालक – गैर सरकारी संगठन लकी युवा एवं महिला संघ, भागलपुर को इस
अपेक्षा के साथ कि स्थानीय सरोकारों को स्थानीय लोग ही बेहतर तरीके से उठा सकते
हैं एवं जागृति प्रसारित कर सकते हैं।
[भगवान पुस्तकालय के मुख्यद्वार की तस्वीर]
[इन पुस्तकों तक पहुँचना असंभव है ये इसी तरह नष्ट हो सकती
हैं]
[पुस्तकें
तो बहुत हैं तथा दुर्लभ संकलन है किंतु समुचित कैटलॉगिंग व वैज्ञानिक तरीके से
रखरखाव का अभाव दिखाई पडता है]
[प्राचीन
अलमारियाँ हैं तथा उनमें से अधिक खुलती ही नहीं हैं, किताबें भरी पडी हैं लेकिन
उनमें क्रमिकता का अभाव है, यहाँ फुर्सत में केवल अखबार पढने वाले पाठक ही दिखे।
सदस्य संख्या को 60 से आगे बढाने के लिये भी कुछ किया जाना दिखाई नहीं पडता।]
[गैर सरकारी संस्था का इस दिशा में पहल हेतु पत्र]
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किसी समय, किसी या किन्हीं व्यक्तियों की इच्छा शक्ति का परिणाम, बदले समय के साथ लाचार दिखाई देता है.
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