एक दूकान है
जैसे कोई अधेडन लिपिस्टिक लपेटे
लबों पर खिलाती हो मुर्दा हँसी
तुम हँसे वो फँसी।
मैं फरेबों में जीते हुए थक गया
शाख में उलटे लटक पक गया
जिनके चेहरों में दिखते थे लब्बो-लुआब
मुझको दे कर के उल्लू कहते हैं वो
सीधा करो जनाब
ख्वाब सारे तो हैं झुनझुने थाम लो
ले के भोंपू जरा टीम लो टाम लो
बिक सको तो खुशी से कहो, दाम लो
मर सको तो सुकूं से मरो, जाम लो
जो करो एक भरम हो जो जीता रहे
जीत अपनी ही हो, हाँथ गीता रहे
ले के भोंपू जरा टीम लो टाम लो
बिक सको तो खुशी से कहो, दाम लो
मर सको तो सुकूं से मरो, जाम लो
जो करो एक भरम हो जो जीता रहे
जीत अपनी ही हो, हाँथ गीता रहे
रेत के हों महल उसकी बुनियाद क्या?
पंख खोकर के तोते हैं आज़ाद क्या?
जा के नापो फकीरे सडक दर सडक
मैं छिपा कर के जेबों के पैबंद को
यूं जमीं मे गडा, सुनता फरियाद क्या?
मैं पहाडी नदी से मिला था मगर
उसकी मैदान से दोस्ती हो गयी
मैं किनारे की बालू में टूटा हुआ
सोचता हूँ कि जिनके लुटे होंगे मन
उनको भी मिलते होंगे मुआवजे क्या?
*** राजीव रंजन प्रसाद
6.04.2008
उसकी मैदान से दोस्ती हो गयी
मैं किनारे की बालू में टूटा हुआ
सोचता हूँ कि जिनके लुटे होंगे मन
उनको भी मिलते होंगे मुआवजे क्या?
*** राजीव रंजन प्रसाद
6.04.2008
5 comments:
सोचता हूँ कि जिनके लुटे होंगे मन
उनको भी मिलते होंगे मुआवजे क्या?
क्या बात है.. बहुत बढ़िया
राजीव जी
रेत के हों महल उसकी बुनियाद क्या?
पंख खोकर के तोते हैं आज़ाद क्या?
बेहतरीन प्रस्तुति...इस बार आप का चित्र भी आप की रचना से मेल खा रहा है...बहुत भावपूर्ण रचना...बधाई.
नीरज
मैं पहाडी नदी से मिला था मगर
उसकी मैदान से दोस्ती हो गयी
मैं किनारे की बालू में टूटा हुआ
सोचता हूँ कि जिनके लुटे होंगे मन
उनको भी मिलते होंगे मुआवजे क्या?
-बहुत बढ़िया. बधाई.
फरेबों में जीते हुए थक गया
शाख में उलटे लटक पक गया
जिनके चेहरों में दिखते थे लब्बो-लुआब
मुझको दे कर के उल्लू कहते हैं वो
सीधा करो जनाब
kya baat hai ,hame aapki bebaaki pasand aayi.
मैं फरेबों में जीते हुए थक गया---
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मैं छिपा कर के जेबों के पैबंद को
यूं जमीं मे गडा, सुनता फरियाद क्या?--
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रेत के हों महल उसकी बुनियाद क्या?
पंख खोकर के तोते हैं आज़ाद क्या?
अच्छी लगी आपकी यह अभिव्यक्ति
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