Monday, June 02, 2008

ग़म को सहने के लिये...

ज़िन्दगी अब तेरे नाम पे हँस के देखा
और छल छल के भरी आँख का पानी मुझको
चुपचाप कान ही में कह गया देखो
होठ इतने भी न फैलाओ मेरे यार सुनो
ग़म को सहने के लिये दम न निकालो अपना
चीख कर रो भी लो
बहुत देर तक ए मेरे दोस्त..

राजीव रंजन प्रसाद
८.१२.१९९५

2 comments:

Ashok Pandey said...

आप अच्‍छा लिखते हैं। अपनी धरती, अपने परिवेश, अपने पर्यावरण से लगाव बहुत अच्‍छी बात है।

Udan Tashtari said...

बढ़िया लिखा है.