Tuesday, June 03, 2008

नक्सलवादी या उनके समर्थक - सुकारू के हत्यारे कौन? (बस्तर का हूँ इस लिए चुप रहूँ - संस्मरण, कडी-2)

तब एसी मनहूसियत हवाओं में नहीं थी। उससे मैं पहली बार पुरानी बचेली के बाजार में मिला था जहाँ मुर्गे लडाये जाते थे। बडा जबरदस्त माहौल हुआ करता था। उसने लाल अकडदार मुर्गे पर दाँव लगाया हुआ था, कम्बख्त मुर्गा केवल देखने का ही मोटा था। सामने वाला मुर्गा सख्त जान निकला कुडकुडा कर झपटा और बस बीस ही सेकेंड में उसके पैर में बँधा छोटा सा चाकू अपना काम कर गया। मैं जिस कोतूहल से भीड का हिस्सा बना था उतना ही मजा मुझे उसकी अठन्नी शहीद होते देख कर हुआ, उसने मुझे लडाई आरंभ होने से पहले इशारे ही एसे किये थे। मैंने उसकी पीठ पर धपाका मारा और खिलखिला दिया और जवाब में उसकी अल्हड सी हँसी...मेरी उससे यदाकदा मुलाकात होने लगी। उसके शरीर पर सफेद शर्ट हमेशा ही होती थी। समय के साथ सफेद पीला, मटमैला कुचैला सब हो गया लेकिन उसके बदन से उतरा नहीं। यही उसकी स्कूल ड्रेस भी थी और यही उसके घर से बाहर निकलने पर शरीर पर रहने वाला एक मात्र आवरण। पहले पहल कॉलर की बटन भी लगती थी, फिर एक दो बटन बचे इसपर भी उसकी शर्ट शान से टंगी थी और गर्व से लहराती थी, उसपर निकर का हाल-ए-बयाँ न ही करूं तो बेहतर...पुराने बजार के पास के सरकारी स्कूल में वह पढता है, यह बात उसने मुझे गर्व से बतायी थी।

मुझे ब्लड-ग्रुप टेस्ट करने का प्रोजेक्टवर्क स्कूल से मिला था और कोई भी मुझसे अपनी उंगली पर नीडिल लगवाने को तैयार नहीं होता। मेरा पहला शिकार वही लडका हुआ और तभी मैं उसका नाम जान सका –सुकारू। उसमें अनोखा आकर्षण था, उसके पक्के शरीर में बिल्ले जैसी आँखें थीं और उसकी मुस्कुराहट में मधुरता थी। यह हमारी एसी मित्रता की शुरुआत थी जो धीरे धीरे घनिष्टता बन गयी। सुकारू के साथ मैनें जंगल जाना, जंगल की जानी अंजानी बूटियों से परिचित हुआ, पहली बार सल्फी पी और जंगल के दर्द से भी परिचित हुआ।

जंगल का अपना कानून होता है। जंगल शहरियों की आँखों से बडा रोचक प्रतीत होता है लेकिन उसके खौफ, उसकी जीवंतता और उसकी आत्मा तक कोई शायद ही पहुँचा हो। बस्तर का शोषण करने वाले कौन लोग हैं यह बात गंभीर सवाल उठाती है और क्या शोषित इतने दबे कुचले हैं कि वे अपनी लडाई खुद नहीं लड सकते यह प्रश्न भी मायने रखता है। एक पत्रकार महोदय उसी दर्म्यान अबूझमाड के जंगलों से एक आदिवासी युवती की तस्वीर उतार कर ले गये थे। इस तस्वीर को एक ख्यातिनाम पत्रिका नें मुख्यपृष्ठ पर स्थान दिया जिससे पढे लिखे आदिम समाज के भीतर कुलबुलाहट उठी। अर्धनग्नता वस्तुत: जीवन का हिस्सा है उसे कैमरे ने अपनी काली निगाह दी थी। काली इस लिये कि अधिकतम तथाकथित पत्रकारों को बस्तर के इसी स्वरूप में रुचि है। मैने बहुधा पर्यटक और पत्रकार टाईप के नवागंतुकों से यह प्रश्न सुने हैं – “वो जगह कहाँ है जहाँ आदिवासी अभी भी पूरे नंगे रहते हैं?” इस सवाल में उन सारे कलम के धंधेबाजों का सच छिपा है जो बस्तर के दर्द को जानने का दावा करते हैं और दिल्ली जैसी जगहों से इस अंचल की खबरें खुरचते हैं। आदिवासी युवती की अर्धनग्न तस्वीर के छापे जाने के सवाल को ले कर अंचल के ही नेताओं नें अपनी लडाई विधान सभा से ले कर संसद भवन तक लडी और कैमरों पर बैन लगवा कर ही वे शांत हुए। अंचल के वरिष्ठ नेता श्री मानकू राम सोढी की इस अभियान में बडी भूमिका कही जाती है। सुकारू की यादों के साथ इस प्रकरण को जोडने का कोई खास मकसद नहीं केवल यही कि इस उपेक्षित अंचल के भीतर आग है लेकिन सुसुप्त।

सुकारू के साथ उसकी झोपडी में बिताई वह एक रात मुझसे नहीं भूलती। नेरली गाँव से कुछ भीतर चंद झोपडियों का झुरमुट और उसमें से एक घर सुकारू का..हम वहाँ पहुँचे तो रात होने को थी। मम्मी स्कूल के किसी टूर से बाहर गयी थीं और मैंने चुपचाप सुकारू के साथ उसके घर पर रात रुकने का कार्यक्रम बना लिया था। कार्यक्रम शब्द सही होगा चूंकि घने जंगल में रात रुकने का एक रोमांच मैं करना चाहता था। उसके घर के भीतर का अंधेरा मेरे लिये दमघोटू था। विकास इतना ही गाँव तक पहुँचा था कि मिट्टीतेल से जलने वाली डिबिया नें अंधेरे से लडायी जारी रखी थी। हमने बाहर ही सोना उचित समझा और रस्सी की बुनी खटिया मेरे लिये बाहर डाल दी गयी। सुकारू के साथ गाँव, उनके रिवाज, घोटुल और तिहारों की बहुत सी बातें सारी रात सुनता रहा जिनके विषय में अगले आलेखों में प्रकाश डालूंगा। अपनी बात सुकारू की उस तडप से आरंभ करना आवश्यक समझता हूँ जिसमें उसके मन में एसी जिन्दगी की तमन्ना थी जिसमें उसके पास सायकल, रेडियो और चटख लाल रंग की कमीज हो। इस सपने के लिये उसे पास की लोहे की खदान में मजदूर हो जाने की तमन्ना है। मैं चार-आने और आठ-आने से बाहर निकल कर रुपया पहचानने वाली इस पीढी के सपने रात भर सुनता और डरता भी रहा चूंकि यह वन्य प्रांतर तेंदुओं के लिये तो जाना ही जाता है और भालू के घायल आदिवासी हमेशा ही अस्पताल में मैने देखे थे। तेज झिंगुर की आवाज और तारों से भरे आसमान के नीचे कोने में सुलगती जरा सी आग के बीच रात कटी और सुबह जब मैं घर पहुँचा तो जैसे एक दुनिया से दूसरी दुनियाँ में था। क्या आज के इस दौर में पिछडा पन अभिशाप नहीं है? तरक्की क्या अडतालीसवी सदी में इनका जीवन बदलेगी? माना कि यह अंधेरी रात उनके सामान्य जीवन का हिस्सा है लेकिन उजाले उन्हे मिलें यह किसका दायित्व है? और ये मानव संग्रहालय बन कर क्यों रहें? ये मानव हैं तो मानव के सारे वे अधिकार और मूल भूत सुविधाओं से इन्हे परिचित और सम्पन्न कराने का दायित्व किनका है?

सुकारू नें मुझसे किताबें भी ली और गाहे बगाहे अपनी किताबे और सवाल ले कर मेरे पास आता भी रहा। घडी नें इस बीच कुछ टिक टिक और कर ली थी...मैं अपनी ग्रेजुएशन पूरी करने के लिये जगदलपुर चला गया। छुट्टियों में बचेली लौटा तो एक खबर सुन कर आश्चर्य और हर्ष से भर उठा – सुकारू पुलिस का रंगरूट हो गया था। मुझसे मिला तो पुलिसिया हो जाने का गर्व उसके चेहरे से झलक रहा था। खाकी वर्दी में वह अलग ही नज़र आता था, उसकी आँखों में उसका सपना सच हो जाने की चमक थी।
मैं जिन दिनों अपनी स्कूली पढाई के दौर में था, नक्सल महसूस की जा सकने वाली समस्या नहीं थी। गाहे-बगाहे जंगल में उनके होने और संघर्ष करने की कथायें सुनी जाती और मेरे जेहन में रॉबिनहुड की कहानियाँ जीवंत हो उठती। बस्तर के दंतेवाडा क्षेत्र में तब उनका प्रभाव कम ही था। नारायणपुर जैसे अंचलों से अखबारों में छुटपुट हिंसा या वारदात की खबर भी मिलती तो बडे आतंक का सबब नहीं मानी जाती थीं। यह भी जानकारी बहुधा चर्चाओं में होती कि नक्सली क्रांतिकारी हैं और शोषण के खिलाफ लड रहे हैं। बस्तर में सरकारी बहुचर्चित तेन्दूपत्ता नीति के बनाये जाने के पीछे नक्सली दबाव माना जाता था। बचेली कम्युनिस्ट प्रभाव वाला क्षेत्र होने के कारण शोषण और आन्दोलन जैसे बडे बडे शब्द मुझे प्रभावित करने लगे। दंतेवाडा क्षेत्र से उन दिनों कम्युनिस्ट पार्टी का विधानसभा चुनाव जीतना तय माना जाता था, कारण था लोहे की खदानों का होना और उसके साथ ही इन खदानों की मजदूर यूनियनों का सक्रिय होना। मार्क्स और लेनिन पर पुस्तके भी सहजता से मुझे उपलब्ध हुई और वामपंथी विचारधारा मेरी रचनाओं में झलकने लगी थी। उन्ही दिनों, पाश की कविताओं नें मेरे रक्त में गर्मी भरी साथ ही इप्टा से जुड कर सफदर के हल्ला-बोल जैसे नुक्कड नाटकों को चौराहों चौराहों किया। शंकर गुहा नियोगी की नृशंस हत्या नें मेरे भीतर एसी चिनगी पैदा की कि हसिया और हथौडा जैसे अपनी विचारधारा बन गयी और लाल रंग एसा सपना जो व्यवस्था बदल कर एक नया सवेरा लायेगा। वो सुबह कभी तो आयेगी...सुकारू को पुलिस की वर्दी में देख कर उस दिन मेरे रोंगटे खडे हो गये थे और महसूस होता था कि इस वन प्रांत में सुबह बस होने वाली है।
फिर नक्सली समस्या हो जाने का दौर आया। बारूदी सुरंगे फटने की खबरों से अखबार रंगने लगे। थानों में हमलों की खबरे और पुलिसियों पर हमले की खबर आम हो गयी। ठेकेदारों पर हमले या कि उनसे वसूली की खबरें भी हवा में तैरने लगीं। बीच में एक बार सुकारू से मुलाकात हुई, उसने मारे जा रहे पुलिस वालों की बहुत सी एसी नृशंस कहानियाँ सुनायी कि पहली बार क्रांति और नक्सल मैनें दो अलग अलग शब्द महसूस किये। तभी कमजोर सरकारों का दौर आ गया देवगौडा, गुजराल, चंद्रशेखर जैसे बिना व्यापक जनाधार के लोग प्रधानमंत्री बनाये और गिराये जाने लगे। इसी समय में वामपंथी दलों की भूमिका और अवसरपरस्ती नें इस दल पर मेरी आस्था और विश्वास समाप्त कर दिया। शनै: शनै: बस्तर के परिप्रेक्ष्य में माओ और लेनिन जैसे शब्दों की जैसे जैसे मैने पुनर्विवेचना की, महसूस होने लगा कि एक बडा सा गुबारा जब फूटता है तो भीतर केवल हवा ही होती है। जगदलपुर में साहित्यिक गतिविधियों में सक्रिय हुआ और तभी प्रगतिशील और जाने कौन कौन से लेखक संघों से वास्ता पडा। मुझे गुरु मंत्र दिया गया कि मजदूर, पत्थर, पसीना, लहू, हसिया और हथौडा ही कविता और लेखन है। यह लिखते रहे तो बडे साहित्यकार बनने में देरी नहीं और इसके इतर तो साहित्य जगत में कुछ भी लिखते रहो......कोई स्थान नहीं। हाँ यही मेरे कई मिथकों के टूटने का वक्त था।


बस्तर को कैसी क्रांति चाहिये यह बात मेरे लिये बडा प्रश्न थी। उनकी सब्जियों, फलों और कंद-मूल को लूट के दाम बजार में बिकते पा कर हमेशा मुझे लगता था कि गलत है। उन्हे पूरे पूरे दिन पसीने में पत्थर तोडने की कीमत ग्यारह रुपये देख कर महसूस होता था कि शोषण है, उनकी इमली चंद आने में आन्ध्र के चतुर व्यापारी खरीद लेते तो लगता कि शोषण है......लेकिन शाम किसी बोदी के जूडे में नयी कंघी और मंद पी के मस्ती लेते किसी बुदरू को पाता तो लगता कि क्रांति क्या केवल फैशनेबल शब्द नहीं है। जगदलपुर में पढे लिखे आदिम तबके में भी राय बँटी हुई थी। इसी विषय पर कश्यप सर से हँस्टल में मेरी लम्बी चर्चा हुई। उन्होने मुझसे पूछा कि डाकू चंबल में ही क्यों और नक्सली जंगल में ही क्यों?....क्या बस्तर में सौ पचास पुलिस वालों को मार कर व्यवस्था बदल दी जायेगी? ये दिल्ली में या कि भोपाल में क्यों सक्रिय नहीं?...सवाल बेहद पेचीदा थे। मैं गहरे इस सवाल के उतरता गया। बस्तर के जंगल क्रांति की आड में केवल कुछ लोगों की पनाह या एशगाह तो नहीं? क्या नक्सली बस्तर के आदिम ही हैं या कि आयातित क्रांति है। आन्ध्रप्रदेश से भाग भाग कर बस्तर के जंगलों में छिपे नक्सली आहिस्ता आहिस्ता अपना प्रभाव इस क्षेत्र में बनाते जमाते रहे और समय के साथ इस अंचल के बहुत से युवक और युवतिया भी गुमराह हुई...क्या यह इस सारे संदर्भ का सच नहीं? जहाँ जहाँ वामपंथी सरकारे हैं क्या वहाँ एसी सुबह हो गयी है जिसकी झलक बस्तर के उन नौजवानों को जंगल के भीतर दिखायी जा रही है जो केवल सपना जीना चाहते हैं...नयी सुबह के साथ। जो इस तरह तो शायद कभी न आनी थी।

बारूदी सुरंग फटने से 12 पुलिसकर्मी मारे गये थे। सुकारू भी उनमें से एक था। यह खबर मुझे मिली तो सुकारू का चेहरा मेरी आँखों के आगे कौंध गया। उसके सपने, उसकी बातें...उसका सिपाही हो जाना एक क्रांति थी और बस्तर एसी ही क्रांति की तलाश में है, एसी ही सुबह की तलाश में है। आदिम बढ रहे हैं, बढ रहे हैं। आज उनमें से कुछ नेता हैं तो कुछ मास्टर, कुछ पुलिसिये तो कुछ कलेक्टर। कौन हैं वह जो बस्तर में आदमता का पक्षधर है? एसी कौन सी क्रांति है जो इन आदिमों के सीने फाड कर आयेगी? आह!! कैसी होगी वह कम्बख्त सुबह...लाल ही होगी नासपीटी।
मुझे सुकारू भुलाये नहीं भूलता। बस्तर आज सुलग रहा है। पुलिस वालों की मौत पर तथाकथित क्रांति की नीव रखी जा रही है। दिल्ली-मुम्बई से बडे बडे खुजेली दाढी वाले तकरीरे लिख रहे हैं और लेनिन-मार्क्स की गीता पढी जा रही है। इनकी भौंक इतनी तीखी है कि दिल्ली को नींद नहीं आती है और बेचारे आदिम कटघरे में नजर आ रहे हैं। जंगल में नक्सली जीने नहीं देंगे और जंगल के बाहर प्रेस-फोटोग्राफर और एक्टिविस्ट। रिटायरमेंट काटो भाई दिल्ली में या कलकत्ता में, बहुत से मसले वहाँ अनसुलझे हैं। ये आदिम अपनी लडाई खुद लड लेंगे, कौन तुम? जिन्हे इनकी न तो समझ है न ही इन्हे समझ सकने का माद्दा। चले आते हैं खादी का कुर्ता पहने छद्म चेहरे लगाये भेडिये और पीछे पीछे एडवेंचर करने हाई प्रोफाईल कलमची...।

मेरे भीतर लाल सोच सिमटने लगी थी। इप्टा मैने छोड दी थी और वामपंथ का ढोल पीटते लेखक संघों से नाता यह मान कर तोड लिया था कि मेरी कलम किसी यूनियन की मोहताज नहीं।....। एक शाम जगदलपुर बस स्टेंड के पास से गुजरते हुए ठिठक गया। थाने के पास बहुत से आदिवासी हुजूम बनाये खडे थे..चीख पुकार मची हुई थी। एसा दर्दनाक मंजर कि मुझसे रहा न गया। एक और नक्सली हमला, कुछ और पुलिस वाले हताहत। मैने भीड में से जगह बना कर अहाते के भीतर झांक कर देखा..उफ!! बीसियों लाशें पडी थीं। हर लाश उस कफन में लपेटी हुई जो रक्त सोख सोख कर लाल हो गया था। नसे सुलग उठीं..एक लाश एसी भी जिसे साबुत समेटा न जा सका था और गठरी में बाँध कर रखा गया था...गठरी से लाल लहू फर्श लाल कर गया था। यही क्रांति है? क्या इसी की हिमायत करते फिरते हैं कलम थाम कर पत्रकार, कवितायें लिख कर कवि और दढियल लेखक। क्या कलम का ईमान होता है?

तब से बहुत पानी इन्द्रावती में बह गया है। हाल ही में घर गया था तो आस पास के वीरान होते गाँवों के बारे में सुना। आखिर कहाँ जायें ये आदिम? सरकारी संरक्षण में या नक्सली शरण में या खुद बंदूख थाम लें....उनकी डगर में काँटे बहुत हैं चूंकि उनके लिये सहानुभूति किसे है? बाहरी दुनिया जानती है कि बस्तर में क्रांति हो रही है। आह सुकारू तुम मारे गये चूंकि पत्ते छोड कर तुमने खाकी पतलून पहन ली थी। क्रांति के आडे आ गये थे। बहुत जल्द दुनिया बदलने वाली है...बस्तर को श्रद्धांजली देने वाले दिल्ली में रिहर्सल कर रहे है। अखबार चीख रहे हैं – माओवादियों के समर्थकों के समर्थन में। अंधे यही सच मानते भी हैं। दुर्भाग्य मेरे बस्तर.....

***राजीव रंजन प्रसाद
3.06.2008

13 comments:

anuradha srivastav said...

राजीव जी आपकी लेखनी में बस्तर का दर्द उभर कर आया है। सुकारू की आत्मा को शन्ति मिले यही प्रार्थना है। अगली कडियों का इन्तज़ार रहेगा।

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav said...

बस्तर के दर्द को बखूबी बखान कर रही है आपकी कलम, बेहद मर्मिक चित्रण किया है आपने संसमरण में काश दिल्ली और बडे-दिल/दाढ़ी वाले ये दर्द समझें

अपनी बात सुकारू की उस तडप से आरंभ करना आवश्यक समझता हूँ जिसमें उसके मन में एसी जिन्दगी की तमन्ना थी जिसमें उसके पास सायकल, रेडियो और चटख लाल रंग की कमीज हो। इस सपने के लिये उसे पास की लोहे की खदान में मजदूर हो जाने की तमन्ना है।

मैने भीड में से जगह बना कर अहाते के भीतर झांक कर देखा..उफ!! बीसियों लाशें पडी थीं। हर लाश उस कफन में लपेटी हुई जो रक्त सोख सोख कर लाल हो गया था। नसे सुलग उठीं..एक लाश एसी भी जिसे साबुत समेटा न जा सका था और गठरी में बाँध कर रखा गया था...गठरी से लाल लहू फर्श लाल कर गया था। यही क्रांति है? क्या इसी की हिमायत करते फिरते हैं कलम थाम कर पत्रकार, कवितायें लिख कर कवि और दढियल लेखक। क्या कलम का ईमान होता है?

तब से बहुत पानी इन्द्रावती में बह गया है। हाल ही में घर गया था तो आस पास के वीरान होते गाँवों के बारे में सुना। आखिर कहाँ जायें ये आदिम? सरकारी संरक्षण में या नक्सली शरण में या खुद बंदूख थाम लें....उनकी डगर में काँटे बहुत हैं चूंकि उनके लिये सहानुभूति किसे है? बाहरी दुनिया जानती है कि बस्तर में क्रांति हो रही है। आह सुकारू तुम मारे गये चूंकि पत्ते छोड कर तुमने खाकी पतलून पहन ली थी। क्रांति के आडे आ गये थे। बहुत जल्द दुनिया बदलने वाली है...बस्तर को श्रद्धांजली देने वाले दिल्ली में रिहर्सल कर रहे है। अखबार चीख रहे हैं

विजय गौड़ said...

राजीव जी निश्व्त ही आपने सुकारू नाम के नवयुवक को जिस संवेदनशीलता से याद किया, पठनीय है. पाठक इसे पढे भी, इसकी कोशिश भी आपके शीर्षक से दिखायी देती है.
लेकिन यहां वे कारण स्पष्ट नही हो पा रहे है कि सुकारू की हत्या क्यों हुई ? हत्या के कारण जाने बिना हत्यारों की शिनाख्त कैसे हो सकती है.

राजीव रंजन प्रसाद said...

विजय जी,

मैने पैराग्राफ में लिखा है कि नक्सलियों के बिछाये बारूदी सुरंग के फटने से सुकारू की मौत हुई, संभव है वह पंक्ति आपकी निगाह से चूक गयी हो।..आपने यह लेख पढा इसका आभार।

***राजीव रंजन प्रसाद

Ashok Pandey said...

राजीव जी,
कलम का ईमान होता है। लेकिन अधिकांश मामलों में मी‍डिया की कलम भी तो बिकी हुई है। सब पैसे का खेल है।
कुछ लोगों के लिए कलम सिर्फ स्‍वार्थसिद्धि का जरिया है। इसमें बाधा न पहुंचे, इसलिए वे धौंस जमाकर दूसरों को बोलने नहीं देना चाहते।
जिनकी कलम बिकाउ नहीं है, उनके लिए ये चिटठे वाकई वरदान साबित हो रहे हैं। यहां किसी मतलबी सेठ या पाखंडी संपादक के नाराज होने का डर नहीं।
जारी रखें। स्‍वतंत्र अभिव्‍यक्ति ही ब्‍लॉगजगत की ताकत है।

Mohinder56 said...

राजीव जी,
जिस माटी से मनुष्य जन्म लेता है उससे लगाव रखना और उसकी खैर खबर रखना उसकी लग्न और भावनाओं का द्योतक है.. बस्तर से जुडे एक और रोचक प्रसंग के लिये धन्यवाद...

अपने किसी जानकार का इस तरह से संसार से चले जाना निश्चय ही एक दुखद घटना है... ईश्वर सुकारू की आत्मा को शान्ति प्रदान करें..

आपने सही लिखा है कि आजकल कलम सिर्फ़ सनसनी फ़ैलाने का काम कर रही है या सिर्फ़ पैसों के लिये लिख रही है

संजीव कुमार सिन्‍हा said...

आप कॉमनष्‍टों के गिरोह से बाहर आ गए। अच्‍छा हुआ। यह साम्राज्‍यवादी विचारधारा भारत मां के सैकडों लालों का जीवन तबाह कर रहा है। इनका कहना है कि साम्‍यवाद-नक्‍सलवाद सर्वश्रेष्‍ठ विचारधारा है। फिर ये क्‍यों नहीं बहस-मुबाहिसे और लोकतांत्रिक तरीके से संघर्ष करते है। ये कहते है कि जनता हमारे साथ है तो फिर क्‍यों इनके चुनाव-बहिष्‍कार का कोई असर नहीं होता। बेगुनाहों की लाशें बिछाना कौन सी विचारधारा है। जो विचारधारा मानव-प्राण का सम्‍मान नहीं कर सकता वह खाक परिवर्तन करेगा।

जयप्रकाश नारायण ने कहा था- जिन्‍हें जनता का विश्‍वास प्राप्‍त नहीं होता वे ही हिंसा का सहारा लेते है।

आलेख विचारोत्‍तेजक है। धन्‍यवाद।

Udan Tashtari said...

बहुत सशक्त लेखन है आपका. जिस तरह आपने बस्तर के दर्द को अपने लेखन के जरिये पेश किया है, वो बहा ले जा रहा अपने साथ. बहुत बधाई इस आलेख के लिए.

36solutions said...

विचारोत्तेजक दूसरी कडी के लिये बहुत बहुत धन्यवाद । आपने बस्तर के दर्द को बेहतर उकेरा है । हमने तो कुछ रिश्तेदार सुकारूओं को भी खोया है । भिलाई के एएसएफ कालोनी में जब देर रात को फोन की घंटीं बजती है तो परिवार भय से किस कदर कांपता है इसको भी सुना है पर हमारे पास शव्द नहीं है आपने बस्तर की स्थिति स्पस्ट करने की ठानी है इसके लिये आभार ।

सृजनगाथा said...

यह केवल आपकी अनुभूति नहीं । यह केवल बस्तर की अनुभूति भी नहीं । इसमें समूची मानवता को दिये जा रहे त्रास की अनुभूति है । और साहित्यकार का काम यही है कि वह मानवता को बचाता रहे ।

इस संस्मरण के विचार मन को झकझोरते हैं । इसमें पगी हुई भावनायें हमें उन भोले-भाले आदिजनों के सम्मुख ले खड़ी करती हैं । और क्या चाहिए शब्दों से हमें इसके अलावा ।

शब्द वही जो किरणें बाँटे
शब्द वही जो हमें एक गहरी रात के बाद जगायें
शब्द वही जो हत्या के ठीक पहले हथियार बन जाये

वेलडन

Kirtish Bhatt said...

bahut sashakt lekhani hai aapki.... yahi dhaar bani rahe ....shubhkamnayen..

Manuj Mehta said...

Aapka dard saaf jhalak utha hai, ya yun kahoon ki sach ujagar kar ke rakh diya hai aapney.
Sukaroo ki tadap vakiy dil ko hila dene wali hai. bahut hi gehri chaap chodta hai aapka yeh patr.

योगेश समदर्शी said...

बहुत करीब से महसूस किया है आपने. मैं भी क्रांति गीत गा चुका हूं. जानता हूं क्रांति गीतों के अंदर की राजनीती का सच भी. आपकी कलम वाकई अपना कर्तव्य निभा गई. दढियल लेखकों कि जिस जमात को आपने इंगित किया उन्हें वास्तव में सोचना चाहिये कि किस क्रांति की बात वो करते है.... क्रांति का एक सरल अर्थ जनता को देना आवश्यक है.. जिसका अर्थ वास्तव मे सुकारू जैसे युवक समझ सके....... उत्तम रचना कर्म के लिये बधाई....