Wednesday, June 25, 2008

आरूषी-आरूषी-आरूषी..


आरूषी-आरूषी-आरूषी
कान पक गये
तुम्हारा नाम सुन सुन कर
तुम्हारी मौत के बाद
मीडिया मदारी हो गया
और तुम्हारी लाश पर खेल
चौबीस गुणा सात
दिन रात..

तुम्हारा बाप दुश्चरित्र था?
तुम्हारे अपने नौकर के साथ संबंध थे?
तुम्हारे एम.एम.एस बाजार में थे?
नौकर को नौकर के दोस्त ने मारा?
नौकर का दोस्त तुमपर निगाह रखता था?
यह प्राईड किलिंग थी!!
नहीं लस्ट किलिंग थी?
किलिंग का समाजशास्त्र अब समझा
परिभाषा सहित..

सुबह की चाय के साथ
दोपहरे के खाने में
शाम पकौडे के साथ सॉस की मानिंद
और रात नीली रौशनी के चलचित्र की तरह
एक एक घर में
तुम्हारी आत्मा की अस्मत नोच
निर्लिबास कर, सीधा पहुँचायी गयी तुम
क्या प्रेतों को चुल्लू भर पानी डुबाता है?

सी.बी.आई खबरे पढेगी दूरदर्शन पर
सरकारी अधिकारी, सरकारी टेलीविजन पर ही प्राधिकृत हैं
और पुलिस वाले घरों में सेट टॉप बॉक्स लगायेंगे
सी आई डी सुबह अखबार बाँटेगी
और तुम्हारा कातिल मीडिया ढूढ निकालेगा
कि यही तो उसका काम है..

मनोहर कहानियों का सर्कुलेशन गिर रहा है
बधाई हो कि बुद्धू बक्से ही में
अब सब कुछ है
सेक्स भी, हत्या भी, बलात्कार भी
और अधनंगी अभिनेत्रियों की मादक वीडियोज भी
फिर तुममे तो वो सारा कुछ था
जिससे मसाला बनता है
एक मासूम चेहरा, रहस्यमय मौत और कमसिनता
नाक तेज होती है मीडिया कर्मी और कुत्तों, दोनों की
और दोनों ही गजब के खोजी होते हैं..

क्रांति होने वाली है
कि तुम्हारा कातिल पकडा जायेगा
और देश की आर्थिक स्थिति पटरी पर आयेगी
मँहगायी कॉटन की साडी पहन लेगी
न्यूकलियर डील पर चिडिया बैठेगी
संसद में काम होने लगेंगे
रेलें दौडेंगी, पुल बनेंगे
कि देश थम गया है
राष्ट्र, तेरा न कोई सुध लेवा है
न खबर ही किसी को तेरी
बिकती तो दिखती हैं,
दीपिका, मेनका, उर्वषी
या अभागी आरूषी..

***राजीव रंजन प्रसाद

9 comments:

mamta said...

सच राजीव जी बहुत अफ़सोस होता है टी.वी.पर सब देख सुन कर।
एक बच्ची जिसकी निर्ममता से हत्या एक बार नही हुई बल्कि रोज ही होती है ।

अमिताभ मीत said...

सही है भाई. दर्द समझ में आता है, लेकिन ...........

दिनेशराय द्विवेदी said...

राजीव रंजन जी आप को बधाई हो इस शानदार, जानदार कविता के लिए। यह मुनाफे पर आधारित मीडिया के सच को सही तरीके से उद्गाटित करती है। समाज आधारित व्यवस्था की जरूरत के संकेत भी देती है।

महेन said...

आपका आक्रोश और उससे पैदा होती हताशा मुझतक भली तरह से प्रेषित हो रही है। मुद्दा ऐसा है कि कविता बहुत जानदार होने के बाद भी बधाई देना अनुचित लगता है।
शुभम।

Udan Tashtari said...

जन जन के आक्रोषित हृदय की व्यथा का मार्मिक चित्रण.

Anonymous said...

आपकी ये कविता न केवल अच्छी व प्रभावशाली है वरन् आज के समय की सख्त जरूरत है. काव्य जगत में इस तरह के विषयों का लगभग लोप हो रहा है, यदाकदा व्यक्त भी होता है तो हास्यास्पद तरीके से.
खैर...
बधाई

Doobe ji said...

kya baat hai bilkul sahi likha apne . please see my new blog RANGPARSAI

व्‍यंग्‍य-बाण said...

राजीव जी,
आरुषी का यह दर्द बहुत मार्मिक है, जिंदा रहते जिसे कोई उसके रिश्‍तेदारों या सहपाठियों के अलावा शायद ही कोई जानता हो, उसे मीडिया ने राष्‍टीय या अंतर्राष्‍टीय पहचान मरने के बाद दिला दी, मीडिया वालों को बहुत बहुत धन्‍यवाद

shama said...

Kaheense aapke blogka link mila. bohot achha hua.Isee wishaype likhi ek kavita kya mai apnee tippaneeke roopme chhod sakti hun??
Kabhi mere blogpe zaroor aayiyega...aasha hai ki nirasha nahi hogi!
Shama