मेरा बस्तर, जहाँ अक्सर,
घने जंगल में मैं जा कर
किसी तेंदू की छां पा कर,
इमलियाँ बीन कर ला कर
नमक उनमें लगा, कच्चा हरा खा कर
दाँतों को किये खट्टा, खुली साँसे लिया करता, बढा हूँ
मैं बचपन से जवानी तक यहीं पला हूँ, पढा हूँ..
मुझे “मांदर” बजाना जब, सुकारू नें सिखाया था
वो एक सप्ताह था, गरदन घुमा भी मैं न पाया था
वो दिन थे जब कि जंगल में, हवा ताजी, उजाले थे
”आमचो बस्तर किमचो सुन्दर, किमचो भोले भले रे”
मगर मुझसे किताबों ने मेरा बस्तर छुडाया है
मुझे अहसास है लेकिन, वो ऋण ही मेरी काया है
मुझे महुवे टपकते नें ही तो न्यूटन बनाया था
मुझे झरते हुए झरने नें कविता भी लिखाई थी
”बोदी” के जूडे में फसी कंघी ही फैशन था
वो कदमों का गजब एका, वो नाचा जब भी था देखा
मेरे अधनंगे यारों की गजब महफिल थी
तूमड में छलकती ताडी में भी जीवन था
बहुत से नौकरी वालों को धरती काला पानी थी
कोई आदिम के तीरों से, किसी को शेर से डर था
मेरा लेकिन यहीं घर था...
मैं अब हूँ दूर जंगल से, बहुत वह दौर भी बदला
मेरे साथी वो दंडक वन के, कुछ टीचर तो कुछ बाबू
मुझे मिलते हैं, जब जाता हूँ, बेहद गर्मजोशी से..
वो यादें याद आती हैं, वो बैठक फिर सताती है
मगर जंगल न जानें की हिदायत दे दी जाती है
यहाँ अब शेर भालू कम हैं, बताया मुझको जाता है
कि भीतर हैं तमंचे, गोलियाँ, बम हैं, डराया मुझको जाता है
तुम्हारा दोस्त “सुकारू” पुलिस में हो गया था
मगर अब याद ज़िन्दा है...
एक भीड है, जो खुद को नक्सलवादी कहती है
घने जंगल में अब यही बरबादी रहती है
हमें ही मार कर हमको ये किसका हक दिलायेंगे
ये मकसदहीन डाकू हैं, हमारा गोश्त खायेंगे
ये लेबल क्रांतिकारी का लगा कर दुबके फिरते हैं
ये वो चूहें हैं, जिनने खाल शेरों की पहन ली है
मगर कौव्वे नहा कर हंस बन जायें, नहीं संभव
हमें जो चाह है उस स्वप्न को हम शांति कहते हैं
लफंगे हैं वो, कत्ल-ए-आम को जो क्रांति कहते हैं..
वो झरना दूर से देखो, न जाना अबकि जंगल में
न फँस जाओ अमंगल में
तुम अपने ही ठिकाने से हुए बेदख्ल हो
तुम्हारे घर में उन दो-मुहे दगाबाजों का कब्जा है
तुम्हारे जो हितैषी बन, तुम्हारी पीठ पर खंजर चलाते हैं
आमचो बस्तर, किमचो सुन्दर था, लहू से बेगुनाहों के लाल लाल है
झंडा उठाने वाले जलीलों, तुम्हारी दलीलें भी बाकमाल हैं
तुम्हारे इन पटाखों से कोई सिस्टम बदलता है
घने बादल के पीछे से, नहीं सूरज निकलता है
अरे बिल से निकल आओ, अपनी बातों को अक्स दो
हमें फिर जीनें दो, जाओ, हमें बक्श दो...
*** राजीव रंजन प्रसाद
18.03.2007
मांदर – एक बडा ढोल जिसे बस्तर के आदिवासी नृत्य/पर्वों में बजाते हैं
सुकारू, बोदी – मेरे आदिवासी (बचपन के) मित्र
”आमचो बस्तर किमचो सुन्दर, किमचो भोले भले रे” - एकलोकगीत के बोल जिसका अर्थ हैमेरा बस्तर कितना सुन्दर कितनाभोला-भाला है।
4 comments:
इन पंक्तियों मे आपने बस्तर के दर्द का बखूबी वर्णन किया है।
पता नही नक्सल और आतंक वाद के द्वारा ऐसे लोग क्या हासिल करना चाहते है।
कैसे सब कुछ बदल जाता है और हम कुछ कर भी नही पाते है।
एक भीड है, जो खुद को नक्सलवादी कहती है
घने जंगल में अब यही बरबादी रहती है
हमें ही मार कर हमको ये किसका हक दिलायेंगे
ये मकसदहीन डाकू हैं, हमारा गोश्त खायेंगे
ये लेबल क्रांतिकारी का लगा कर दुबके फिरते हैं
ये वो चूहें हैं, जिनने खाल शेरों की पहन ली है
मगर कौव्वे नहा कर हंस बन जायें, नहीं संभव
हमें जो चाह है उस स्वप्न को हम शांति कहते हैं
लफंगे हैं वो, कत्ल-ए-आम को जो क्रांति कहते हैं..
bahut hi sahi sahi chitran kiya aapne,na jaane ye sab kab rukega,aur neki ki raah aur manzil hogi inki.
बहुत जबरदस्त चित्रण किया है आपने अपने मनोभावों का. अपने दर्द का-जो आप अपने दिल में समेटे हैं बचपन की यादों के बस्तर को साथ जोड़ कर. दिल को छूती है आपकी रचना.
sundar abhiykti
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