Sunday, June 15, 2008

अब जल रही नदी है..

गुजरा हुआ जमाना
जिस पेड पर टंगा था
बंदर वहाँ बहुत थे
कुछ पोटली से उलझे
मिल गाँठ खोल डाली
पर हिल गयी जो डाली
पल झर गये नदी में
घुट मर गये नदी में
अब जल रही नदी है
मैं रिक्त हो गया हूँ..

*** राजीव रंजन प्रसाद
20.04.2007

8 comments:

Jyoti said...

बहुत खूब,
गुज़रे ज़माने की गर्मी और बेचैनी,
गर नदी के हिस्से गयी तो बदारों का बन्दर होना सार्थक हो गया,
की जो दर्द समंदर के लायक था वह व्यर्थ ही पेड़ पे टंगा था।

डॉ .अनुराग said...

bahut khoob....aapki ye kavita behad pasand aayi......

mehek said...

कुछ पोटली से उलझे
मिल गाँठ खोल डाली
पर हिल गयी जो डाली
पल झर गये नदी में
घुट मर गये नदी में
अब जल रही नदी है
मैं रिक्त हो गया हूँ..

judasa andaz bahut khub.

Alpana Verma said...

bahut achchee kavita hai--

पल झर गये नदी में
घुट मर गये नदी में
अब जल रही नदी है
मैं रिक्त हो गया हूँ..
man ke gahre tal se ubhari bhaaav abhivyakti!

अमिताभ मीत said...

पल झर गये नदी में
घुट मर गये नदी में
अब जल रही नदी है
मैं रिक्त हो गया हूँ..

बहुत सुंदर.

पारुल "पुखराज" said...

waah! kitni anokhi baat hai..yaqeenan mehsuus ki hui

नीरज गोस्वामी said...

राजीव जी
कुछ अनूठी उपमाओं से रचित आप की ये रचना सच में अद्भुत है. आप के पास शब्द और भाव का जो खजाना है वो गर्व करने योग्य है. कमाल के बिम्ब बना कर उनका क्या खूबसूरती से प्रयोग करते हैं की मन गदगद हो जाता है. इश्वर आप की लेखनी को सदा ऐसे ही सबसे जुदा अनूठा और मधुर रखे.
नीरज

Udan Tashtari said...

बहुत सशक्त अभिव्यक्ति. बधाई.