नारज़गी हद से बढी |
और हो गयी पर्बत |
आँखों से पिघल गया ग्लेशियर |
जैसे मोम नदी हो जाता है |
पत्थर की तरह पिघल पिघल कर.. |
पीठ से पीठ किये |
युगों तक खमोश दो बुत |
इस तरह बैठै रहे |
तोड तोड कर चबाते हुए घास के तिनके |
जैसे गरमी की दोपहर ढलती नहीं.. |
और जब नदी न रही |
पिघल चुका पत्थर |
बुत "मै" और "तुम" हो गये |
बहुत सोच कर भी |
याद न रहा, न रहा |
कि मुह फुलाये ठहर गये कितने ही पल |
...कारण क्या था? |
*** राजीव रंजन प्रसाद |
२३.११.१९९५ |
9 comments:
बिल्कुल सही है भाई. न जाने कितनी बार गुज़रते हैं हम इस स्थिति से, मगर बार बार दोहराते हैं .... बहुत अच्छी रचना.
"....कारण क्या था?"
बहुत खूब.
achhi rachana.chhu leti hai man ko
नारज़गी हद से बढी
और हो गयी पर्बत
आँखों से पिघल गया ग्लेशियर
जैसे मोम नदी हो जाता है
पत्थर की तरह पिघल पिघल कर
बहुत सुंदर रचना....बधाई , कैसे हैं आप?
बहुत खूब. शानदार.
बेहतरीन..... उम्दा....
पीठ से पीठ किये
युगों तक खमोश दो बुत
इस तरह बैठै रहे
तोड तोड कर चबाते हुए घास के तिनके
जैसे गरमी की दोपहर ढलती नहीं..
राजीव जी
बहुत ही प्यारी पंक्तियाँ हैं। पढ़कर आनन्द आगया। बधाई स्वीकारें।
नारज़गी हद से बढी
और हो गयी पर्बत
सुन्दर अभिव्यक्ति
bahut acchha lagta hai aapko padhna..apney aas paas ka lagta hai sara kuch..
बहुत अच्छी पोस्ट
उम्दा पोस्ट
बेहतरीन, राजीव भाई. आपका चित्रों का चयन भी बहुत उम्दा है.
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