Tuesday, August 19, 2008

युगों तक खमोश दो बुत..



नारज़गी हद से बढी
और हो गयी पर्बत
आँखों से पिघल गया ग्लेशियर
जैसे मोम नदी हो जाता है
पत्थर की तरह पिघल पिघल कर..

पीठ से पीठ किये
युगों तक खमोश दो बुत
इस तरह बैठै रहे
तोड तोड कर चबाते हुए घास के तिनके
जैसे गरमी की दोपहर ढलती नहीं..

और जब नदी न रही
पिघल चुका पत्थर
बुत "मै" और "तुम" हो गये
बहुत सोच कर भी
याद न रहा, न रहा
कि मुह फुलाये ठहर गये कितने ही पल
...कारण क्या था?

*** राजीव रंजन प्रसाद
२३.११.१९९५

9 comments:

अमिताभ मीत said...

बिल्कुल सही है भाई. न जाने कितनी बार गुज़रते हैं हम इस स्थिति से, मगर बार बार दोहराते हैं .... बहुत अच्छी रचना.

"....कारण क्या था?"

बहुत खूब.

Anil Pusadkar said...

achhi rachana.chhu leti hai man ko

rakhshanda said...

नारज़गी हद से बढी
और हो गयी पर्बत
आँखों से पिघल गया ग्लेशियर
जैसे मोम नदी हो जाता है
पत्थर की तरह पिघल पिघल कर
बहुत सुंदर रचना....बधाई , कैसे हैं आप?

बालकिशन said...

बहुत खूब. शानदार.
बेहतरीन..... उम्दा....

शोभा said...

पीठ से पीठ किये
युगों तक खमोश दो बुत
इस तरह बैठै रहे
तोड तोड कर चबाते हुए घास के तिनके
जैसे गरमी की दोपहर ढलती नहीं..
राजीव जी
बहुत ही प्यारी पंक्तियाँ हैं। पढ़कर आनन्द आगया। बधाई स्वीकारें।

राकेश खंडेलवाल said...

नारज़गी हद से बढी
और हो गयी पर्बत

सुन्दर अभिव्यक्ति

पारुल "पुखराज" said...

bahut acchha lagta hai aapko padhna..apney aas paas ka lagta hai sara kuch..

vipinkizindagi said...

बहुत अच्छी पोस्ट
उम्दा पोस्ट

Udan Tashtari said...

बेहतरीन, राजीव भाई. आपका चित्रों का चयन भी बहुत उम्दा है.