Sunday, August 03, 2008

अंधियारा चप्पल उतार कर मन के आँगन में आता है।


अंधियारा चप्पल उतार कर मन के आँगन में आता है।

तुमने मेरी गुडिया तोडी, मैनें बालू का घर तोडा
तुमने मेरा दामन छोडा, मैंने अपना दामन छोडा
तुम मुझसे क्यों रूठे जानम, मैं ही टूटा, मैनें तोडा
मुझको मुझसे ही शिकवा है, तुमसे मेरा क्या नाता है
अंधियारा चप्पल उतार कर मन के आँगन में आता है।

पत्ता खडके, कोयल बोले, निर्झर झरता या सावन हो
मोती टूटे, यह मन बिखरे, जैसे काँच काँच कंगन हो
विप्लव ही पर बादल बरसे, जैसे यह मेरा जीवन हो
यादों का सम्मोहन फिर फिर सोंधी मिट्टी महकाता है
अंधियारा चप्पल उतार कर मन के आँगन में आता है।

फर्क नहीं पडता इससे कि आँखें हैं या दिल रोता है
सागर कितना खारा देखो, ज़ार ज़ार साहिल रोता है
मैनें अपना कत्ल किया फिर देखा आखिर क्या होता है
सात आसमानों के उपर भी क्या दिलबर तडपाता है
अंधियारा चप्पल उतार कर मन के आँगन में आता है।

***राजीव रंजन प्रसाद
30.10.2000

16 comments:

vipinkizindagi said...

behtarin....
bahut achchi rachna hai...

मोहन वशिष्‍ठ said...

पत्ता खडके, कोयल बोले, निर्झर झरता या सावन हो
मोती टूटे, यह मन बिखरे, जैसे काँच काँच कंगन हो
विप्लव ही पर बादल बरसे, जैसे यह मेरा जीवन हो
यादों का सम्मोहन फिर फिर सोंधी मिट्टी महकाता है
अंधियारा चप्पल उतार कर मन के आँगन में आता है।


वाह राजीव जी बेहतरीन रचना बधाई हो

Anil Pusadkar said...

kya baat hai rajeev jee.badhai

तरूश्री शर्मा said...

पत्ता खडके, कोयल बोले, निर्झर झरता या सावन हो
मोती टूटे, यह मन बिखरे, जैसे काँच काँच कंगन हो
अच्छा लिखा है राजीव जी.... बेहतरीन।

Anonymous said...

"अंधियारा चप्पल उतार कर मन के आँगन में आता है।" बेहतरीन पंक्तियां हैं राजीव। पर एक बात जान लो अंधियारे के तो पांव ही नहीं होते, इसे पहचान लो। जिसके पांव नहीं होते वो क्‍या तो चप्‍पल पहनेगा और क्‍या उतारेगा। अंधियारा तो बिना आभास हुए पैठ बनाता जाता है। इससे बचना सिर्फ कवि या लेखक को ही आता है।

- अविनाश वाचस्‍पति

Pramendra Pratap Singh said...

आपकी रचना और ब्‍लाग का सौन्‍दर्य दोनो काफी अच्‍छा लगा

Nitish Raj said...

फर्क नहीं पडता इससे कि आँखें हैं या दिल रोता है
सागर कितना खारा देखो, ज़ार ज़ार साहिल रोता है।
अच्छे पेज पर सुंदर कविता। सुंदर...अति उत्तम।।।।

डॉ. अजीत कुमार said...

अच्छे भावों को आपने अपने शब्दों में व्यक्त किया है.
अतिउत्तम.

आशा जोगळेकर said...

Behad Koobsurat line hain Andhiyara Chappal utarkar man ke angan men ata hai. badhiya kavita.

Advocate Rashmi saurana said...

vakai bhut khubsurati se hakikat ko bayan kar rhe hai. likhate rhe.

Vivekk singh Chauhan said...

bhut sundar rachana. badhai ho. jari rhe.

नीरज गोस्वामी said...

पत्ता खडके, कोयल बोले, निर्झर झरता या सावन हो
मोती टूटे, यह मन बिखरे, जैसे काँच काँच कंगन हो
बेमिसाल रचना...अद्भुत.
नीरज

डॉ .अनुराग said...

फर्क नहीं पडता इससे कि आँखें हैं या दिल रोता है
सागर कितना खारा देखो, ज़ार ज़ार साहिल रोता है
मैनें अपना कत्ल किया फिर देखा आखिर क्या होता है
सात आसमानों के उपर भी क्या दिलबर तडपाता है
अंधियारा चप्पल उतार कर मन के आँगन में आता है।

bahut khoob.....aisi kavita apna asar man me kai dino tak chod jaati hai...

Ahmad Ali Barqi Azmi said...

है नेहायत पुर असर राजीव रंजन की ग़ज़ल
जिसके पढने से दिले मुज़तर गया मेरा बहल
इसमेँ जितने शेर हैँ हैँ तर्जुमाने दर्दे दिल
शेर मेँ राजीव रंजन ने खिलाए हैँ कमल

मेरी ग़जल पर विचार व्यक्त कर के हौसला अफ़ज़ाई के लिए धन्यवाद
डा अहमद अली बर्की आज़मी ( aabarqi.blogspot.com )
नई दिल्ली

Satish Saxena said...

फर्क नहीं पडता इससे कि आँखें हैं या दिल रोता है
सागर कितना खारा देखो, ज़ार ज़ार साहिल रोता है
मैनें अपना कत्ल किया फिर देखा आखिर क्या होता है
सात आसमानों के उपर भी क्या दिलबर तडपाता है

बहुत खूब !

Unknown said...

बस्तर के जंगलों में नक्सलियों द्वारा निर्दोष पुलिस के जवानों के नरसंहार पर कवि की संवेदना व पीड़ा उभरकर सामने आई है |

बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
अपने कोयल होने पर, अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर

सनसनाते पेड़
झुरझुराती टहनियां
सरसराते पत्ते
घने, कुंआरे जंगल,
पेड़, वृक्ष, पत्तियां
टहनियां सब जड़ हैं,
सब शांत हैं, बेहद शर्मसार है |

बारूद की गंध से, नक्सली आतंक से
पेड़ों की आपस में बातचीत बंद है,
पत्तियां की फुस-फुसाहट भी शायद,
तड़तड़ाहट से बंदूकों की
चिड़ियों की चहचहाट
कौओं की कांव कांव,
मुर्गों की बांग,
शेर की पदचाप,
बंदरों की उछलकूद
हिरणों की कुलांचे,
कोयल की कूह-कूह
मौन-मौन और सब मौन है
निर्मम, अनजान, अजनबी आहट,
और अनचाहे सन्नाटे से !

आदि बालाओ का प्रेम नृत्य,
महुए से पकती, मस्त जिंदगी
लांदा पकाती, आदिवासी औरतें,
पवित्र मासूम प्रेम का घोटुल,
जंगल का भोलापन
मुस्कान, चेहरे की हरितिमा,
कहां है सब

केवल बारूद की गंध,
पेड़ पत्ती टहनियाँ
सब बारूद के,
बारूद से, बारूद के लिए
भारी मशीनों की घड़घड़ाहट,
भारी, वजनी कदमों की चरमराहट।

फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?

बस एक बेहद खामोश धमाका,
पेड़ों पर फलो की तरह
लटके मानव मांस के लोथड़े
पत्तियों की जगह पुलिस की वर्दियाँ
टहनियों पर चमकते तमगे और मेडल
सस्ती जिंदगी, अनजानों पर न्यौछावर
मानवीय संवेदनाएं, बारूदी घुएं पर
वर्दी, टोपी, राईफल सब पेड़ों पर फंसी
ड्राईंग रूम में लगे शौर्य चिन्हों की तरह
निःसंग, निःशब्द बेहद संजीदा
दर्द से लिपटी मौत,
ना दोस्त ना दुश्मन
बस देश-सेवा की लगन।

विदा प्यारे बस्तर के खामोश जंगल, अलिवदा
आज फिर बस्तर की कोयल रोई,
अपने अजीज मासूमों की शहादत पर,
बस्तर के जंगल के शर्मसार होने पर
अपने कोयल होने पर,
अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर
आज फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?

अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त साहित्यकार, कवि संजीव ठाकुर की कलम से