Wednesday, August 27, 2008
पेट दुखता है मैं कुछ कहूँ, कुछ कहूँ...
मुझको बरसात में सुर मिले री सखी
पेट दुखता है मैं कुछ कहूँ, कुछ कहूँ..
एक कूँवे में दुनियाँ थी, दुनियाँ में मैं
गोल है, कितना गहरा पता था मुझे
हाय री बाल्टी, मैने डुबकी जो ली
फिर धरातल में उझला गया था मुझे
मेरी दुनिया लुटी, ये कहाँ आ गया
छुपता फिरता हूँ कैसी सजा पा गया
मेघ देखा तो राहत मिली है मुझे
जी मचलता है मैं अब बहूँ तब बहूँ..
मुझको बरसात में सुर मिले री सखी
पेट दुखता है मैं कुछ कहूँ, कुछ कहूँ..
मेढकी मेरी जाँ, तू वहाँ, मैं यहाँ
तेरे चारों तरफ ईंट का वो समाँ
मैं मरा जा रहा, ये खुला आसमाँ
तैरने का मज़ा इस फुदक में कहाँ
राह दरिया मिली, जो बहा ले गयी
और सागर पटक कर परे हो गया
टरटराकर के मुख में भरे गालियाँ
सोचता हूँ, पिटूंगा नहीं तो बकूं ?
मुझको बरसात में सुर मिले री सखी
पेट दुखता है मैं कुछ कहूँ, कुछ कहूँ..
एक ज्ञानी था जब पानी पानी था मैं
हर मछरिया के डर की कहानी था मैं
आज सोचा कि खुल के ज़रा साँस लूँ
बाज देखा तो की याद नानी था मैं
कींचडों में पडा मन से कितना लडा
हाय कूँवे में खुद अपना सानी था मैं
संग तेरे दिवारों की काई सनम
जी मचलता है मैं अब चखूँ तब चखूँ
मुझको बरसात में सुर मिले री सखी
पेट दुखता है मैं कुछ कहूँ, कुछ कहूँ..
थम गयी है हवा जम के बरसात हो
औ छिपें चील कोटर में जा जानेमन
शोर जब कुछ थमें साँप बिल में जमें
तुमको आवाज़ दूंगा मैं गा जानेमन
मेरे अंबर जो सर पर हो तब देखना
सोने दूंगा न जंगल को सब देखना
हाय मुश्किल में आवाज खुलती नहीं
भोर होगी तो मैं फिर से एक मौन हूँ
मुझको बरसात में सुर मिले री सखी
पेट दुखता है मैं कुछ कहूँ, कुछ कहूँ..
*** राजीव रंजन प्रसाद
12.04.2008
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4 comments:
हमारा पेट तो हँस हँस के दुख रहा है सखी
राजीव जी बरसात के मौसम में नई सोच मजा आ गया
बेहतरीन...
ये एक नया सुर छेडा है-क्या अदा है भाई-बहुत भायी!! :)
बहुत आनंद आया पढकर... अलग ही रचना
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