जैसे इकलौता गुल खिल कर, काँटों को बेमोल बना दे
सीपी क्या है एक खोल है, मोती हो अनमोल बना दे..
तुम होते हो खो जाता हूं, फिर अपनी पहचान साथ है
जैसे कोई मर्तबान में, जल-चीनी का घोल बना दे..
मन के भीतर की आवाज़ें, आँखों से सुन लेता हूँ,
साथ हमारा एसा जो, खामोशी को भी बोल बना दे..
तुम को खो कर हालत मेरी, उस बच्चे के इम्तिहान सी
टीचर उसकी काँपी में, कुछ अंक नहीं दे गोल बना दे..
चार दीवारें, आँखों में छत, तनहाई "राजीव" रही
जैसे गम दुनिया निचोड कर इतना ही भूगोल बना दे..
*** राजीव रंजन प्रसाद१२.११.२०००
8 comments:
wah rajiw jee ,yah bahut achchhi lagi..sundar
मन के भीतर की आवाज़ें, आँखों से सुन लेता हूँ,
साथ हमारा एसा जो, खामोशी को भी बोल बना दे..
बहुत बढ़िया है राजीव जी.
bahut sunder,rajeev jee
राजीव पहली दो लाइनों में ही दिल जीत लिया
जैसे इकलौता गुल खिल कर,काँटों को बेमोल बना दे
सीपी क्या है एक खोल है,मोती हो अनमोल बना दे.
बहुत ही सुंदर, अति उत्तम
अति सुंदर...बहुत उम्दा.....
पढ़ कर बहुत ही अच्छा लगा.
wah rajeev ji doobeyji doob gaye apki is kavita mein
उफ़ ये अधर गुलाबों जैसे और डली मिश्री की वाणी
छू कर ये गुलकन्द होंठ को, पग को डावांडोल बना दे
behad sundar rajeev, kavita kii tarah tasveer bhi haseen hai.
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