Sunday, August 17, 2008

जैसे कोई मर्तबान में, जल-चीनी का घोल बना दे..


जैसे इकलौता गुल खिल कर, काँटों को बेमोल बना दे
सीपी क्या है एक खोल है, मोती हो अनमोल बना दे..

तुम होते हो खो जाता हूं, फिर अपनी पहचान साथ है
जैसे कोई मर्तबान में, जल-चीनी का घोल बना दे..

मन के भीतर की आवाज़ें, आँखों से सुन लेता हूँ,
साथ हमारा एसा जो, खामोशी को भी बोल बना दे..

तुम को खो कर हालत मेरी, उस बच्चे के इम्तिहान सी
टीचर उसकी काँपी में, कुछ अंक नहीं दे गोल बना दे..

चार दीवारें, आँखों में छत, तनहाई "राजीव" रही
जैसे गम दुनिया निचोड कर इतना ही भूगोल बना दे..

*** राजीव रंजन प्रसाद
१२.११.२०००

8 comments:

L.Goswami said...

wah rajiw jee ,yah bahut achchhi lagi..sundar

अमिताभ मीत said...

मन के भीतर की आवाज़ें, आँखों से सुन लेता हूँ,
साथ हमारा एसा जो, खामोशी को भी बोल बना दे..

बहुत बढ़िया है राजीव जी.

Anil Pusadkar said...

bahut sunder,rajeev jee

Nitish Raj said...

राजीव पहली दो लाइनों में ही दिल जीत लिया
जैसे इकलौता गुल खिल कर,काँटों को बेमोल बना दे
सीपी क्या है एक खोल है,मोती हो अनमोल बना दे.
बहुत ही सुंदर, अति उत्तम

बालकिशन said...

अति सुंदर...बहुत उम्दा.....
पढ़ कर बहुत ही अच्छा लगा.

Doobe ji said...

wah rajeev ji doobeyji doob gaye apki is kavita mein

राकेश खंडेलवाल said...

उफ़ ये अधर गुलाबों जैसे और डली मिश्री की वाणी
छू कर ये गुलकन्द होंठ को, पग को डावांडोल बना दे

rakhshanda said...

behad sundar rajeev, kavita kii tarah tasveer bhi haseen hai.