जैसे ही आईना देखा, चौंक गया,
मेरा चेहरा कहीं नहीं था, कहीं नहीं..
सिर धुनता दीवारों पर मैं चीख उठा
खंडहर पर बैठे चमगादड़ उड़ कर भागे
डर कर मकड़ी धागे पर कुछ और चढ़ी
आँखें मिच-मिच करते उल्लू अलसाये
खिल-खिल कर के हँसी गहनतम खामोशी
कितने फैल गये देखो मेरे साये..
*** राजीव रंजन प्रसाद
९.११.१९९५
4 comments:
जैसे ही आईना देखा, चौंक गया,
मेरा चेहरा कहीं नहीं था, कहीं नहीं.
वाह क्या बात है। बहुत अच्छे।
वाह!! जबरदस्त मंथन है.बहुत बढ़िया.
आज मुझे आप का ब्लॉग देखने का सुअवसर मिला।
वाकई आपने बहुत अच्छा लिखा है। आशा है आपकी कलम इसी तरह चलती रहेगी
और हमें अच्छी -अच्छी रचनाएं पढ़ने को मिलेंगे
बधाई स्वीकारें।
“उसकी आंखो मे बंद रहना अच्छा लगता है
उसकी यादो मे आना जाना अच्छा लगता है
सब कहते है ये ख्वाब है तेरा लेकिन
ख्वाब मे मुझको रहना अच्छा लगता है.”
आप मेरे ब्लॉग पर आए, शुक्रिया.
मुझे आप के अमूल्य सुझावों की ज़रूरत पड़ती रहेगी.
Really i like it and desirous to get your all new creations.
...रवि
http://meri-awaj.blogspot.com/
http://mere-khwabon-me.blogspot.com/
खिल-खिल कर के हँसी गहनतम खामोशी
कितने फैल गये देखो मेरे साये..
"" bemeesal, beautiful compositon of words with deep thought"
Regards
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