Thursday, August 07, 2008
टुकडॆ अस्तित्व के..
मन का अपक्षय
आहिस्ता आहिस्ता
मुझको अनगिनत करता जाता है
नदी मेरे अस्तित्व से नाखुश है
और मुझे महज इतना ही अचरज है
इतना तप्त मैं
टूटता हूं पुनः पुनः
मोम नहीं होता लेकिन..
निर्निमेष आत्मविष्लेषण
एकाकी पन
एकाकी मन
और तम गहन..गहनतम
अपने ही आत्म में हाथ पाँव मारती आत्मा
दूरूह करती जाती है प्रश्न पर प्रश्न
और उत्तर तलाशता मन
क्या निचोड कर रख दे खुद को
फिर भी महज व्योम ही हासिल हो तब..
मन मुझे गीता सुनाता है
सांत्वना देता है कम्बख्त.."नैनम छिंदन्ति शस्त्राणि"
और जाने कौन अट्टहास करता है भीतर
और मन में हो चुके सैंकडो-सैंकडो छेद
पीडा से बिफर पडते हैं
दर्द और दर्द और वही सस्वर "नैनम दहति पावकः"
क्या जला है
क्या जल पायेगा?
और टुकडे टुकडे मेरे अस्तित्व के
अनुत्तरित बिखरते जाते हैं,बिखरते जाते हैं ,बिखरते जाते हैं..
*** राजीव रंजन प्रसाद
१७.०६.१९९५
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10 comments:
क्या जला है
क्या जल पायेगा?
और टुकडे टुकडे मेरे अस्तित्व के
अनुत्तरित बिखरते जाते हैं,बिखरते जाते हैं...
बहुत बढि़या, जो कहना चाहते थे वो शब्दों में घुल कर के दिख रहा है।
और अच्छा होता है गर आप सांत्वना देता है कम्बख्त.. एक लाइन में रखते और
"नैनम छिंदन्ति शस्त्राणि" को अलग लाइन में,
आजकल हर किसी को बुरा लग जाता है बहुत जल्दी। तो यदि बुरा लगे तो क्षमा।
toot,ta hun punah punah,mom nahi hota lekin... badhiya
एकाकी पन
एकाकी मन
और तम गहन..गहनतम
अपने ही आत्म में हाथ पाँव मारती आत्मा
दूरूह करती जाती है प्रश्न पर प्रश्न
और उत्तर तलाशता मन
" essence of the poem is hidden in these few words, so touching and near to the heart"
Regards
अद्भुत लिखा है आपने.
बहुत ही उम्दा.
भाई कमाल है. बहुत ही बढ़िया.
मन मुझे गीता सुनाता है
सांत्वना देता है कम्बख्त.."नैनम छिंदन्ति शस्त्राणि"
और जाने कौन अट्टहास करता है भीतर
और मन में हो चुके सैंकडो-सैंकडो छेद
पीडा से बिफर पडते हैं
बहुत सुन्दर भावों से लबालब कविता। मन की दशा का बहुत सुन्दर चित्रण किया है।
और मन में हो चुके सैंकडो-सैंकडो छेद
पीडा से बिफर पडते हैं
--भावपूर्ण, अति उत्तम...बहुत सुंदर!
bahut ghari soch
mun yun hi uljhataa hai.
acchha likha hai aapney
do baar padhni padi padi samajhne ke liye....sundar kavita.
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