मछली -१
मुझे पानीं से निकाल कर
यूं हथेली पर न रखो
जानम तुममें डूबा हुआ ही ज़िन्दा हूं मैं..
मछली -२
मेरी सोन मछली मेरी जल परी
यूं डुबक पानी में उतर
अनगिनत भँवरें गिनता मुझे छोड
हर पल डूबती उतराती हुई तुम
बार बार करीब आ कर जाती हुई तुम
क्यों चाहती हो कि
जाल फेंक तुम्हें उलझा लाऊं
मछली -३
हर बार सोचता हूँ
उस एक मछली को
जिसनें सारा तालाब उथल पुथल कर रखा है
काँच के मर्तबान में कैद कर दूं
और अपनी आँखों में
पार्थ का चिंतन..
मछली -४
उस चटुल मछरिया नें
मेरी आँखों में डूब कर कहा
तुम बहुत गहरे हो..
*** राजीव रंजन प्रसाद
२०.०४.१९९७
मुझे पानीं से निकाल कर
यूं हथेली पर न रखो
जानम तुममें डूबा हुआ ही ज़िन्दा हूं मैं..
मछली -२
मेरी सोन मछली मेरी जल परी
यूं डुबक पानी में उतर
अनगिनत भँवरें गिनता मुझे छोड
हर पल डूबती उतराती हुई तुम
बार बार करीब आ कर जाती हुई तुम
क्यों चाहती हो कि
जाल फेंक तुम्हें उलझा लाऊं
मछली -३
हर बार सोचता हूँ
उस एक मछली को
जिसनें सारा तालाब उथल पुथल कर रखा है
काँच के मर्तबान में कैद कर दूं
और अपनी आँखों में
पार्थ का चिंतन..
मछली -४
उस चटुल मछरिया नें
मेरी आँखों में डूब कर कहा
तुम बहुत गहरे हो..
*** राजीव रंजन प्रसाद
२०.०४.१९९७
10 comments:
सुंदर क्षणिकायें....
उस चटुल मछरिया नें
मेरी आँखों में डूब कर कहा
तुम बहुत गहरे हो..
bahut khoob
सभी सुंदर हैं विशेषकर:
उस चटुल मछरिया नें
मेरी आँखों में डूब कर कहा
तुम बहुत गहरे हो..
वाह!!
बड़ी सुंदर क्षणिकायें हैं। चित्र भी बहुत अच्छा लगा।
राजीव भाई
बहुत गहरी सोच लाये हैं आप
और अपनी आँखों में
पार्थ का चिंतन..
आधे छोड़े हुए अभिप्राय में पूरा दर्शन समाहित किया है.
उस चटुल मछरिया नें
मेरी आँखों में डूब कर कहा
तुम बहुत गहरे हो..
मुझे पानीं से निकाल कर
यूं हथेली पर न रखो
जानम तुममें डूबा हुआ ही ज़िन्दा हूं मैं..
bahut aachi lagi yeh dono shanikaayen...
baaki do bhi aachi ban padi hain magar yu lagta hai jaise aapne fish tank ke paas baith kar likhi hain :)
तुम्हारी लेखनी में एक खिचाव तो जरुर है कि आना हो ही जाता है…उम्दा एक बार फिर…।
राजीव जी,
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति के साथ गहरे अर्थ....बधाई
Bahut sundar hain saaree chhadikaayen..darshan bhi hai aur roomaniyat bhi.. behad umdaa..
पाडकास्ट पर टिप्पणी हो नहीं पा रही है, यह कलम घसीटो कविता पर टिप्पणी है,
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भाई राजीव जी,
आपकी रचना में आग है, हम भी बस्तर में रहे हैं, दन्तेवाड़ा में। आपकी बातों के सच की चुभन महसूस कर पा रहा हूँ। उस समय आपसे परिचय नहीं था, अन्यथा साक्षात आपको सुनते। खैर वह अवसर अवश्य आएगा।
ये पंक्तियाँ विशेष रूप से पसंद आईं,
बड़े विचारक हो तुम तो भाई,
चने बिक रहे हैं उसी लेखनी पर,
ज़रा सोच पर अपनी पोंछा लगाओ,
कलम हाथ में तो खुदा बन गए हो,
नकाबों के पीछे लुटेरे छिपे हैं,
अभिनव
मुझे पानीं से निकाल कर
यूं हथेली पर न रखो
जानम तुममें डूबा हुआ ही ज़िन्दा हूं मैं..
उस चटुल मछरिया नें
मेरी आँखों में डूब कर कहा
तुम बहुत गहरे हो..
बहुत खुब राजीव जी। सुंदर क्षणिकाएँ हैं।समझने में मुझे ज्यादा मशक्कत भी नहीं करनी पड़ी ।
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