Sunday, June 10, 2007

नाउम्मीदी..

पेड के बिलकुल उपर की
फुनगी पर बैठी खमोशी
मेरी निगह से अनबोली सी
देखती रही एकटक
ओह कि ये अनबोला
खलबला देता है मुझे
कि तुम्हारी बडी बडी आखें
एकदम से याद आती हैं
और मुस्कुराता चेहरा भी
कि देखें कबतक न बोलोगे
और तुम्ही बोलोगे पहले
उफ कि वो खमोशी
उफ कि वो आतुरता
पिघल पिघल कर मोम की दीवार हो गयी
और हमारे बीच की खामोशी
सिमटती सिमटती ठहरी मेरी आँखों में
बैठ गयी फुनगी पर
उफ कि ये अनबोला
क्या फुनगी पर बैठ गयी चिडिया सा
फुर्र से उडेगा
और दूर क्षितिज तक देखता रहूंगा मैं
नाउम्मीदी फुनगी सी सिर हिलायेगी..

*** राजीव रंजन प्रसाद
१६.११.१९९५

9 comments:

Sanjeet Tripathi said...

बढ़िया रचना।

और हां आपकी वह रचना आमचो बस्तर…पहले ही पढ़कर टिपिया चुका हूं आपने शायद टिप्पणियों पे नज़र नहीं डाली है

Rachna Singh said...

the photos accompanying the poem are as good as the poem

Anonymous said...

राजीवजी,

रचना सुन्दर बन पड़ी है मगर "फुनगी" का अर्थ नहीं समझ पा रहा हूँ, क्या यह कोई स्थानीय शब्द है? कृपया इसका अर्थ बतलावें।

बधाई स्वीकार करें।

योगेश समदर्शी said...

Ati Sunder Rachana Hai. Phungi ki mahatta ya fungi ka dansh? phungi para baithana, phungi se dekhanaa phungi kaa achChaa upyog. vicharon ki ek antheena udaana kaa prteeka kavita. badhaai svikaar karen

Anonymous said...

’निगह’ शब्द का क्या अर्थ है ?

रिपुदमन पचौरी

राजीव रंजन प्रसाद said...

त्रुटि सुधार कराने का धन्यवाद रिपुदमन जी वह "निगाह" ही है निगह नहीं।

*** राजीव रंजन प्रसाद

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

waah bhai rajeev ji
majaa aa gaya padh kar. bahut logon ke man kee baat apne kahee hai.

विश्व दीपक said...

बहुत खुबसूरत लिखा है आपने।
बधाई स्वीकारें।

Anonymous said...

ह्ह्म्म्म्म.. अच्छा है

रिपुदमन पचौरी