Monday, May 05, 2008

अस्तित्व..


कितनी शरारती आँखें बना कर
तुमनें पूछा था मुझसे
कितना प्यार करते हो मुझसे?
और अपनी बाहें पूरी फैला कर
तुमने पूछा था क्या इतना?
और मैं मुस्कुरा भर गया था
कि तुम्हारी फैली बाहों के भीतर
सारा आकाश सिमट सकता था
सारी की सारी सृष्टि
सभी कुछ..
मैं भी और मेरा हृदय भी
मेरी तपन भी और मेरा स्नेह भी
और तुम भी
जो मेरे ही भीतर मेरा ही अस्तित्व हो..

*** राजीव रंजन प्रसाद
६.१२.१९९६

11 comments:

शोभा said...

राजीव जी
बहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण कविता है। आनन्द आगया पढ़कर।

पारुल "पुखराज" said...

komal bhaav..sundar

रंजू भाटिया said...

राजीव जी बेहद खूबसूरत कविता लिखी है आपने ..बहुत ही अच्छी लगी

rakhshanda said...

कितनी शरारती आँखें बना कर
तुमनें पूछा था मुझसे
कितना प्यार करते हो मुझसे?
और अपनी बाहें पूरी फैला कर
तुमने पूछा था क्या इतना?

एक सादा सा लेकिन बहुत ही ख़ास सवाल एक लड़की के लिए,,सचमुच वो जानना चाहती है कि उसे प्यार करने वाला उस से कितना प्यार करता है...लेकिन महबूब के लिए इसका जवाब उतना ही मुश्किल...बताइए..क्या जवाब दिया आपने?

Richa Sen said...

बेहद खूबसूरत रचना.

शुक्रिया

Anonymous said...

awesome behad khusurat bhav

Udan Tashtari said...

और तुम भी
जो मेरे ही भीतर मेरा ही अस्तित्व हो..


--यह तो एकदम दार्शनिक भाव हो गये-

मै तुम संग ही तुम में समा के तुम हो जाऊँ!!

बहुत खूब!!

अमिताभ मीत said...

क्या बात है. बहुत ख़ूब.

कुश said...

बहुत ही सुंदर भाव लिए हुए लिखी गयी रचना.. बधाई स्वीकार करे

नीरज गोस्वामी said...

50राजीव जी
बहुत संवेदन शील रचना...वाह.
नीरज

Abhishek Ojha said...

"कि तुम्हारी फैली बाहों के भीतर
सारा आकाश सिमट सकता था
सारी की सारी सृष्टि
सभी कुछ..
मैं भी और मेरा हृदय भी
मेरी तपन भी और मेरा स्नेह भी
और तुम भी
जो मेरे ही भीतर मेरा ही अस्तित्व हो.."

वाह क्या खूब लिखा ह आपने.. लाजवाब..