कितनी शरारती आँखें बना कर
तुमनें पूछा था मुझसे
कितना प्यार करते हो मुझसे?
और अपनी बाहें पूरी फैला कर
तुमने पूछा था क्या इतना?
और मैं मुस्कुरा भर गया था
कि तुम्हारी फैली बाहों के भीतर
सारा आकाश सिमट सकता था
सारी की सारी सृष्टि
सभी कुछ..
मैं भी और मेरा हृदय भी
मेरी तपन भी और मेरा स्नेह भी
और तुम भी
जो मेरे ही भीतर मेरा ही अस्तित्व हो..
तुमनें पूछा था मुझसे
कितना प्यार करते हो मुझसे?
और अपनी बाहें पूरी फैला कर
तुमने पूछा था क्या इतना?
और मैं मुस्कुरा भर गया था
कि तुम्हारी फैली बाहों के भीतर
सारा आकाश सिमट सकता था
सारी की सारी सृष्टि
सभी कुछ..
मैं भी और मेरा हृदय भी
मेरी तपन भी और मेरा स्नेह भी
और तुम भी
जो मेरे ही भीतर मेरा ही अस्तित्व हो..
*** राजीव रंजन प्रसाद
६.१२.१९९६
11 comments:
राजीव जी
बहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण कविता है। आनन्द आगया पढ़कर।
komal bhaav..sundar
राजीव जी बेहद खूबसूरत कविता लिखी है आपने ..बहुत ही अच्छी लगी
कितनी शरारती आँखें बना कर
तुमनें पूछा था मुझसे
कितना प्यार करते हो मुझसे?
और अपनी बाहें पूरी फैला कर
तुमने पूछा था क्या इतना?
एक सादा सा लेकिन बहुत ही ख़ास सवाल एक लड़की के लिए,,सचमुच वो जानना चाहती है कि उसे प्यार करने वाला उस से कितना प्यार करता है...लेकिन महबूब के लिए इसका जवाब उतना ही मुश्किल...बताइए..क्या जवाब दिया आपने?
बेहद खूबसूरत रचना.
शुक्रिया
awesome behad khusurat bhav
और तुम भी
जो मेरे ही भीतर मेरा ही अस्तित्व हो..
--यह तो एकदम दार्शनिक भाव हो गये-
मै तुम संग ही तुम में समा के तुम हो जाऊँ!!
बहुत खूब!!
क्या बात है. बहुत ख़ूब.
बहुत ही सुंदर भाव लिए हुए लिखी गयी रचना.. बधाई स्वीकार करे
50राजीव जी
बहुत संवेदन शील रचना...वाह.
नीरज
"कि तुम्हारी फैली बाहों के भीतर
सारा आकाश सिमट सकता था
सारी की सारी सृष्टि
सभी कुछ..
मैं भी और मेरा हृदय भी
मेरी तपन भी और मेरा स्नेह भी
और तुम भी
जो मेरे ही भीतर मेरा ही अस्तित्व हो.."
वाह क्या खूब लिखा ह आपने.. लाजवाब..
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