Tuesday, April 29, 2008

राधिका गवांर हो गयी...


बाँसुरी गिटार हो गयी
राधिका गँवार हो गयी..

पीने का पानी काला है
कालिन्दी गंदा नाला है
कंकरीट के जंगल में
पीपल की छैंया रोती है
कल यह मुन्नी पूछ रही थी
तितली कैसी होती है
खेतीहर फैक्ट्री चले
रोजी अब पगार हो गयी
राधिका गँवार हो गयी...
बीमारियों में घर साफ हो गये
ओझा “झोला-छाप” हो गये
पग्गड लंगोट हो गयी है
बकरियाँ “गोट” हो गयी हैं
चौपाल पर कबूतर हैं
शराब जब वोट हो गयी है
अंगूठे हस्ताक्षर हो गये
आमदनी उधार हो गयी
राधिका गँवार हो गयी...

*** राजीव रंजन प्रसाद
9.03.2007

12 comments:

अमिताभ मीत said...

अच्छा है भाई.
"आमदनी उधार हो गयी" .... सही है.

Anonymous said...

are bahut sahi,
sach me bahut sunder,

Alpana Verma said...

अंगूठे हस्ताक्षर हो गये
आमदनी उधार हो गयी'


वाह !!!बहुत खूब!

Abhishek Ojha said...

क्या बात कही है आपने... बहुत अच्छी कविता.
पर मैं झोला छाप नहीं हो पाया :P

rakhshanda said...

बहुत सुंदर

कुश said...

आमदनी उधार हो गयी
बहुत अच्छे.. क्या बात कही है..

नीरज गोस्वामी said...

राजीव जी
कल यह मुन्नी पूछ रही थी
तितली कैसी होती है
भविष्य की और डरावना संकेत...बहुत सुंदर रचना. बधाई.
नीरज

रंजू भाटिया said...

बहुत खूब राजीव जी ..

राकेश खंडेलवाल said...

कंकरीट के जंगल में
पीपल की छैंया रोती है
कल यह मुन्नी पूछ रही थी
तितली कैसी होती है

सुन्दर प्रयोग है.

शोभा said...

राजीव जी
आज की स्थिति का बहुत ही सुन्दर चित्रण किया है। प्रकृति और सुन्दरता से दूर पता नहीं मानव कहाँ जा रहा है? कविता बहुत ही प्रासंगिक है और प्रेरणा पूर्ण है। बधाई स्वीकारें।

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा-आनन्द आ गया इस तरह का चित्रण देख कर.

Anonymous said...

वाह....
आमदनी उधार हो गयी.... सच ही है....
ज़िंदगी ही उधार हो गई है आजकल