बाँसुरी गिटार हो गयी
राधिका गँवार हो गयी..
राधिका गँवार हो गयी..
पीने का पानी काला है
कालिन्दी गंदा नाला है
कंकरीट के जंगल में
पीपल की छैंया रोती है
कल यह मुन्नी पूछ रही थी
तितली कैसी होती है
खेतीहर फैक्ट्री चले
रोजी अब पगार हो गयी
राधिका गँवार हो गयी...
रोजी अब पगार हो गयी
राधिका गँवार हो गयी...
बीमारियों में घर साफ हो गये
ओझा “झोला-छाप” हो गये
पग्गड लंगोट हो गयी है
बकरियाँ “गोट” हो गयी हैं
चौपाल पर कबूतर हैं
शराब जब वोट हो गयी है
ओझा “झोला-छाप” हो गये
पग्गड लंगोट हो गयी है
बकरियाँ “गोट” हो गयी हैं
चौपाल पर कबूतर हैं
शराब जब वोट हो गयी है
अंगूठे हस्ताक्षर हो गये
आमदनी उधार हो गयी
राधिका गँवार हो गयी...
आमदनी उधार हो गयी
राधिका गँवार हो गयी...
*** राजीव रंजन प्रसाद
9.03.2007
12 comments:
अच्छा है भाई.
"आमदनी उधार हो गयी" .... सही है.
are bahut sahi,
sach me bahut sunder,
अंगूठे हस्ताक्षर हो गये
आमदनी उधार हो गयी'
वाह !!!बहुत खूब!
क्या बात कही है आपने... बहुत अच्छी कविता.
पर मैं झोला छाप नहीं हो पाया :P
बहुत सुंदर
आमदनी उधार हो गयी
बहुत अच्छे.. क्या बात कही है..
राजीव जी
कल यह मुन्नी पूछ रही थी
तितली कैसी होती है
भविष्य की और डरावना संकेत...बहुत सुंदर रचना. बधाई.
नीरज
बहुत खूब राजीव जी ..
कंकरीट के जंगल में
पीपल की छैंया रोती है
कल यह मुन्नी पूछ रही थी
तितली कैसी होती है
सुन्दर प्रयोग है.
राजीव जी
आज की स्थिति का बहुत ही सुन्दर चित्रण किया है। प्रकृति और सुन्दरता से दूर पता नहीं मानव कहाँ जा रहा है? कविता बहुत ही प्रासंगिक है और प्रेरणा पूर्ण है। बधाई स्वीकारें।
बहुत उम्दा-आनन्द आ गया इस तरह का चित्रण देख कर.
वाह....
आमदनी उधार हो गयी.... सच ही है....
ज़िंदगी ही उधार हो गई है आजकल
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