Monday, August 14, 2017

बस्तर के नाग और उनकी जड़ें (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 57)


नागों की तीन मुख्य शाखाओं ने कर्नाटक को अपनी कर्मस्थली बनाया। ये तीन शाखाये हैं - सेन्द्रक शाखा; सेनावार शाखा तथा सिन्द शाखा।  नागों की सेन्द्रक शाखा दक्षिण का शक्तिशाली राजवंश बन कर उभरी और उसका प्रभुत्व कर्नाटक में पाँचवी से सातवी शताब्दी तक रहा है। प्राप्त अभिलेख बताते हैं कि नाग राजा भानुशक्ति ने सेन्द्रक नागों के साम्राज्य की स्थापना की थी। उसके बाद की पीढ़ियों के ज्ञात शासकों में आदित्यशक्ति  और पृथ्वीवल्लभ निकुम्भलशक्ति प्रमुख नाग शासक थे। अभिलेखों से यह भी ज्ञात होता है कि कर्नाटक में शासन करने वाले इन सेन्द्रक नागों ने एक समय में गुजरात के एक भाग तक अपनी सीमा का विस्तार कर लिया था। नागों की अगली कड़ी अर्थात सेनावार शाखा कर्नाटक के कडूर और सिमोगा के के आसपास अत्यधिक प्रभावशाली थी। इनका शासन समय उतार चढ़ावों भरा रहा है। फणिध्वज सेनावार शाखा के नागों का राजकीय प्रतीक था। सेनावार नागों की सत्ता के संस्थापक नाग राजा जीविताकार माने जाते हैं जिनके पश्चात की ज्ञात पीढ़ियाँ हैं जीमूतवाहन तथा मारसिंह। अंतिम सेनावार नाग शासक के सम्बन्ध में जानकारी वर्ष- 1058 के आसपास प्राप्त होती हैं; संभवत: इसके पश्चात इस नाग शाखा का पतन हो गया। 

तीसरी, सिन्द शाखा की छ: उपशाखायें हुई और उन्होंने दक्षिण भारत के विभिन्न क्षेत्रों पर अपनी सत्ता कायम की। इन छ: शाखाओं में चार अर्थात बगलकोट के सिन्द, येलबुर्गा के सिन्द, बेलगविट्ट के सिन्द तथा बेल्लारी के सिन्द नागों ने कर्नाटक में तथा दो अर्थात चक्रकोट के सिन्द तथा भ्रमरकोट के सिन्द ने बस्तर में शासन स्थापित किया। छिन्द शब्द सिन्द से ही उत्पन्न हुआ है। (चक्रकोट के छिन्दक नाग; डॉ. हीरालाल शुक्ल)। बस्तर में नागवंश एक वैभवशाली सत्ता रही है जिसने 760 ई से 1324 ई. तक शासन किया। आज बस्तर में प्राप्त पुरातात्विक महत्व की अधिकतम ज्ञात विरासतें नाग शासकों की निर्मितियाँ हैं। 

- राजीव रंजन प्रसाद

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Sunday, August 13, 2017

भोई से पामभोई (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 56)


वर्ष 1324, वारंगल से 200 घुडसवारों के साथ चालुक्य राजकुमार अन्नमदेव ने गोदावरी पार कर भोपालपट्टनम में प्रवेश किया। भद्रकाली संगम की ओर से नदी पार करने के पश्चात अन्नमदेव ने साथियों के साथ भोपालपट्टनम किले पर धावा बोल दिया। यह अप्रत्याशित था चूंकि दो ओर से पर्वत श्रंखलाओं से एवं दो ओर से इंद्रावती और गोदावरी जैसी विशाल नदियों के मध्य सुरक्षित यह किला लगभग अजेय माना जाता था। अन्नमदेव जब किले के भीतर दाखिल हुए तो उन्होंने पाया कि महल खाली था, नाग राजा अपने बन्धु-बांधवों के साथ दुर्ग से पलायन कर गया था। बिना रक्तपात के यह पहली विजय अन्नमदेव के हाथ लगी। विजित महल क्या था, कच्ची मिट्टी की दीवारें और खपरैल की छत। वे जान गये थे कि इस विजय में किसी खजाने को पाने की आस तो छोड़ ही देनी चाहिये। 

सभी सैनिक तथा उपस्थित प्रजाजन भी तब आश्चर्य से भर गये जब राजा ने अपने पालकी उठाने वाले साथी नाहरसिंह भोई को भोपालपट्टनम का जागीरदार नियुक्त कर दिया। नाहरसिंह की इस नियुक्ति के पीछे अन्नमदेव के कई हित थे। पहला कि नाहर भी भोपालपट्टनम की प्रजा की तरह ही एक गोंड थे, दूसरा यह कि इसी तरह वे अपने शुभचिंतकों और विश्वासपात्रों को पुरस्कृत कर सकते थे। नाहरसिंह की स्वीकार्यता के पीछे एक किम्वदंती ने बडी भूमिका अदा की है। भोपालपट्टनम के जमीदार ‘भोई’ कैसे ‘पामभोई’ कहलाये इसके पीछे एक रोचक कहानी है। कहा जाता है कि अन्नमदेव जब अपने दल-बल के साथ गोदावरी नदी को पार कर रहे थे तब अचानक बहुत तेज हवा चलने लगी। पल भर में लगा कि सभी नावें डूब जायेंगी। हम सबने देखा कि वहाँ एक बहुत बड़ा सा पाम (अजगर) प्रकट हुआ था। नाहरसिंह ने भाले से आगे आ कर उस पाम का सामना किया और मार गिराया। उनकी इसी वीरता के कारण नाहरसिंह तथा उनके वंशजो को पामभोई नाम से जाना गया। 

- राजीव रंजन प्रसाद

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Saturday, August 12, 2017

रानी से महारानी बनायी गयीं प्रफुल्ल कुमारी (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 55)


बस्तर के राजाओं को कठपुतली बनाये रखने के लिये अंग्रेजों को जो भी यत्न करना पड़ा उन्होंने निरंतर किया है। बस्तर राज्य की शासिका प्रफुल्ल कुमारी देवी (1921 – 1936 ई.) का सम्बोधन 1 अप्रैल 1933 में “रानी” से बदल कर “महारानी” कर दिया गया। यह ब्रिटिश फैसला आश्चर्यजनक था चूंकि जिस राज्य को दोनों हाँथों से चूसा जा रहा हो उसे चर्चा का विषय बनाना अथवा महत्ता देना भी अंग्रेज क्यों चाहेंगे? राजा रुद्र प्रताप देव (1891 – 1921 ई.) के रहस्यमय देहावसान के बाद तथा राजकुमारी प्रफुल्ल के राज्यारोहण के बाद भी अंग्रेजों ने राज्याधिकार देने सम्बन्धी निर्णय को वैधानिक मान्यता देने में लम्बा समय लगाया। प्रफुल्ल कुमारी देवी को शासक स्वीकार करने से पूर्व असंतोष तथा पारिवारिक विवादों को हवा दी गयी। राजा की विधवा कुसुमलता, भाईयों के बेटों तथा ब्रिटिश अधिकारियों के बीच आपसी खींचतान लम्बे समय तक बनाये रखी गयी। प्रफुल्ल कुमारी देवी को राजा की एकमेव संतान होने के कारण वैध उत्तराधिकारी घोषित किया गया, किंतु यही उन्हें राज्याधिकार देने का एकमेव कारण नहीं था। अंग्रेज अब बस्तर पर अपनी सम्पूर्ण पकड चाहते थे, जिसके लिये उनकी मान्यता थी कि अल्पायु रानी को वे दबाव में रख सकेंगे। राजा के निधन के एक वर्ष बाद अर्थात 22.11.1922 को प्रफुल्ला को शासिका और रानी होने की मान्यता प्राप्त हुई थी।

अंग्रेजों को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में तीव्र होते स्वतंत्रता आंदोलनों के कारण अनेक तरह के दबावों का सामना करना पड रहा था। ऐसे में सैंकडों राजतंत्रों में बटे हुए भारत देश के राजा-रजवाडों को  अंग्रेज कभी दबाव डाल कर तो कभी सांकेतिक लाभ प्रदान कर अपनी जकडन में बनाये रखना चाहते थे। अंग्रेजों ने महारानी प्रफुल्ल के हाँथों में ऐसा शासन सौंपा जिसकी तकदीर या तो रायपुर में बैठ कर लिखी जाती या फिर शिमला, या देहली में। उनकी शिक्षा-दीक्षा अंग्रेजी शिक्षक-शिक्षिकाओं द्वारा इस तरह की गयी थी जिससे यह समझने में भूल न हो कि सम्राट जॉर्ज पंचम के शासन में देसी महाराजे-महारानियाँ केवल दिखावे का सामान हैं; कठपुतलियाँ हैं। ऐसे में महारानी सम्बोधन के अपने राजनीतिक मायने जो भी हों किंतु इससे उस दौर में बस्तर रियासत, अंग्रेजकालीन भारत के प्रमुख सामंती राज्यों में शुमार हो गया था। ‘महारानी’   सम्बोधन प्रदान किये जाने का एक कारण यह भी था कि बस्तर भौगोलिक दृष्टि से बडे भूभाग में विस्तृत था। इतनी भूमि मुख्यधारा में प्रभावशाली तथा तोपों की सलामी लेने वाले राजे-रजवाडों के पास भी नहीं थी।   

-  राजीव रंजन प्रसाद
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Friday, August 11, 2017

रामलीला से आरम्भ हुआ बस्तर में रंगकर्म (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 54)


बस्तर में ज्ञात रंग कर्म का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। सन 1913 में बनारस से एक रामलीला मंडली राजधानी जगदलपुर पहुँची। मंड़ली ने कई दिनों तक राजमहल में रामलीला का मंचन किया। इससे प्रभावित हो कर सन 1914 में राजा रुद्रप्रताप देव ने एक रामलीला मंडली की स्थापना की। यह एक तरह से जगदलपुर में रंगमच का आरंभ था। भव्य रामलीला हुआ करती थी। पात्रों का चयन करते हुए उनकी आयु, कद काठी और स्वभाव तक का ध्यान रखा जाता। स्त्री पात्रों का किरदार भी पुरुष करते थे। राम, लक्ष्मण और सीता पात्रों को मंच पर आने के लिये उपवास करना पड़ता था। राज्य की ओर से पात्रों की नियुक्तियाँ होती तथा उन्हें जीवन यापन की अनेकों सुविधायें प्रदान की जाती। रामलीला का मंचन सीरासार में तथा राजमहल में गणेशोत्सव, दशहरा, जन्माष्टमी और रामनवमी के अवसरों पर भव्य स्वरूप में राज्य के खर्च पर किया जाता था। इस आयोजन में आरती से प्राप्त राशि पर भी रामलीला मण्डली तथा रंगकर्मियों का ही अधिकार होता था। लीला में ‘राम की बारात’ जैसे प्रसंगों की शोभायात्रा में राज्य पुलिस के घुड़सवार तथा पैदल सिपाही सम्मिलित होते थे। 

राजतंत्र ने अपनी समयावधि में रंगकर्म को प्रोत्साहित किया और इस कारण अनेक संगठन खडे हुए,  रंगकर्मियों की तादाद बढी और कई बेहतरीन नाटक मंचित किये गये। राजा रुद्रप्रताप देव की स्थापित परम्परा को डॉ. अविनाश बोस तथा कुँअर अर्जुन सिंह ने एमेच्योर थियेट्रिकल सर्विस के नाम से आगे बढ़ाने का यत्न किया। वर्ष 1927 में अंचल में छदामीलाल पहलवान ने नौटंकी का सूत्रपात किया। 1929 में छोटे लाल जैन ने प्रेम मण्डली नाट्य संस्था की स्थापना की जिसका प्रदर्शित नाटक ‘हरिश्चंद’ महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी के द्वारा बहुत सराहा गया था। 1929 में जगदलपुर के महार-कोष्टा समाज ने सीताराम नाटक मंडली का गठन किया जिनका नाटक ‘वीर अभिमन्यु’ सर्वाधिक चर्चा में रहा। 1939 में बाल समाज जी स्थापना हुई जिसका सर्वाधिक चर्चित नाटक था ‘सीता वनवास’। पैट्रोमैक्स और चिमनियों की रोशनी में काम करने वाली इस संस्था ने 1940 में अपना नाम बदल कर सत्यविजय थियेट्रिकल सोसाईटी रख लिया। व्याकुल भारत, असीरेहिंद, दानवीर कर्ण आदि इस संस्था द्वारा प्रदर्शित चर्चित नाटक थे। इस संस्था ने 1946 में लाला जगदलपुरी लिखित नाटक "पागल" का मंचन किया था जो बहुत चर्चा में रहा था। आज मीडिया के दखल, सिनेमा की चकाचौंध तथा वैकल्पिक मनोरंजन के साधनों ने रंगकर्म को पर्याप्त क्षति पहुँचायी है, तब भी साँसे ले रहा है बस्तर में रंग कर्म। अब भी सक्रिय हैं अनेक पुराने नये रंगकर्मी। महत्वपूर्ण बात यह कि बस्तर में रंगकर्म का अपना गौरवशाली अतीत है।

 - राजीव रंजन प्रसाद
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Wednesday, August 09, 2017

आस्था और मनोकामना (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 53)


बस्तर में चालुक्य वंश के संस्थापक अन्नमदेव से ले कर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव तक सभी की देवी दंतेश्वरी पर प्रगाढ आस्था थी। इस आशय के अनेक दृष्टांत, विवरण अथवा किम्वदंतियाँ पढ़ने सुनने को मिलती रहती हैं। बस्तर में राजा राजपालदेव (1709 – 1721 ई.) का शासन समय नितांत उथलपुथल का दौर भी था। राजमहल के भीतर किये जाने वाले षडयंत्रों की बहुधा खबरें बाहर नहीं आ पातीं, लेकिन वहीं से किसी राज्य की भविष्य की राजनीतियाँ तय हुआ करती थीं।  ऐसी की एक कहानी राजा राजपालदेव की भी है जिनकी दो रानियाँ थी – रुद्रकुँवरि बघेलिन तथा रामकुँवरि चंदेलिन। रानी रुद्रकुँवरि से दलपत देव तथा प्रताप सिंह राजकुमारों का जन्म हुआ तथा रानी रामकुँवरि के पुत्र दखिन सिंह थे। 

प्रिय रानियों ने शासक पतियों से सर्वदा अपना मनचाहा करवा लिया है। रानी रामकुँवरि अपने पुत्र दखिन सिंह को अगला राजा बनाना चाहती थी। इस प्रयास में आवश्यक था कि राजधानी पर प्रिय बेटे की पकड़ मजबूत की जाये। रामकुँवरि की साजिश के अनुसार ही चलते हुए राजा राजपाल देव ने अपनी दूसरी रानी रुद्रकुँअरि के पुत्रों, राजकुमार दलपत देव को कोटपाड़ परगने तथा प्रतापसिंह को अंतागढ़ मुकासा का अधिपति बना कर राजधानी से बाहर भेज दिया गया। यह पूरी कवायद इस लिये थी जिससे कि वयोवृद्ध राजा के स्वर्गवास के बाद राजकुमार दखिन सिंह को निष्कंटक रूप से बस्तर के राजसिंहासन पर बैठाने में आसानी होती। कहते हैं कि बुरी नीयत से देखे गये सपने सच नहीं होते। राजकुमार दखिन सिंह किसी अज्ञात बीमारी के कारण बीमार पड़ गये। वैद्यों और ओझाओं ने सारे प्रयास करने के पश्चात नाउम्मीदी में सिर हिला दिया। राजकुमार के बचने की सारी उम्मीद जाती रही थी। अब आखिरी कोशिश के रूप में राजा ने दंतेश्वरी माँ के दरबार में अपने बेटे को उपस्थित कर दिया। मृत्यु से बचाने के लिये राजकुमार दखिन सिंह के शरीर को दंतेश्वरी माँ की मूर्ति के साथ बाँध दिया। देवी ने संभवत: राजकीय षडयंत्रों में पूर्णविराम लगाने का सुनिश्चित कर लिया था। रात्रि ही राजकुमार दखिन सिंह स्वर्ग सिधार गये। लाश के बोझ से रस्सियाँ टूट गयी और सुबह परिजनों ने देखा कि माँ दंतेश्वरी के चरणों में राजकुमार का मस्तक पड़ा हुआ था। 

- राजीव रंजन प्रसाद 

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Tuesday, August 08, 2017

कच्चा महल-पक्का महल (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 52 )


राजा दलपत देव ने जगदलपुर राजधानी के स्थानांतरण के पश्चात जिस राजमहल का निर्माण करवाया वह काष्ठ निर्मित थी एवं उसकी छत पर खपरैल लगायी गयी थी। वर्ष 1910 के महान भूमकाल आंदोलन के पश्चात ब्रिटिश शासन को यह महसूस होने लगा कि राजमहल तथा प्रशासकीय कार्यालय  मजबूत हों एवं इसके लिये पक्का निर्माण कराया जाये। इसके लिये महल के साथ लगे लम्बे-चौडे प्रांगण को घिरवा कर ईँटों की ऊँची दीवार से किलेबदी की गयी। दक्षिण दिशा की ओर इस किले का मुख्यद्वार बनवाया गया। दोनों ओर विशाल सिंह की आकृतियाँ निर्मित की गयी जिसके कारण मुख्यद्वार का नाम सिंहद्वार पड़ गया। चार दीवारी की अन्य दिशाओं में भी प्रवेश द्वार बनवाये गये। सिंह द्वार से लग कर पूर्व की ओर रियासत की कचहरी के लिये कक्ष निर्मित थे। दरबार-हॉल को अस्त्र शस्त्रों और चित्रों से सुसज्जित किया गया। महल के सामने, बागीचे में अनेकों जलकुण्डों का निर्माण किया गया जिसमें सुनहरी और लाल मछलिया डाली गयीं। उद्यान को आधुनिकता देने के लिये सुन्दर युवती की मूर्ति स्थापित की गयी जिसके घडे से निरंतर जल गिरता रहता था। महल की पूर्व दिशा में हिरण और सांभरों को रखने के लिये लोहे के बाडे से घेर कर जगह बनायी गयी। स्थान-स्थान पर सीमेंट से बनाये गये जलकुण्ड थे जिनमें जानवरों के पीने के लिये पानी का निरंतर प्रवाह रखा जाता था। हाथीसाल, घुडसाल, बग्घियों को रखने के स्थल आदि का निर्माण महल परिधि में ही किया गया। अहाते के भीतर ही महल प्रबंधक तथा महल सुप्रिंटेंडेट के आवास बनवाये गये। महल की दीवारों से लग कर कई आउट हाउस थे, जिसमें राजकीय कर्मचारी रहा करते थे। राजा ने अपनी प्रतिष्ठा तथा शौर्य प्रदर्शन के लिये बाघ पाला, जिसे महल के सम्मुख ही पिंजरे में रखा जाता था। इसी दौर में मोटरगाडियाँ भी चलने लगी। परम्परागत हाँथी की जगह राजा के पास भी रोल्स रॉयस कार आ गयी थी। महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी  ने भी अपने शासन समय में राजमहल में कई बदलाव किये। पिता के बनवाये महल से जोड़ कर अपने रहने के लिये आधुनिक सुविधाओं से युक्त नया महल बनवाया। इस महल के भूतल में ‘बिलियर्ड्स हॉल’  बनवाया गया। महल के उत्तरी दरवाज़े से लगा कक्ष ‘डॉल हाउस’ था, जिसमें राजकुमार-राजकुमारियों के खिलौने रखे हुए थे (दो महल, डॉ. के के झा)। 

- राजीव रंजन प्रसाद 

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गोलकुण्डा की शह पर भेजी विद्रोह (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 51)


इतिहास को जनश्रुतियों और लोकगीतों से भी खुरच कर निकाला जा सकता है। विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा के दौरान पोटानार (जगदलपुर) के ग्रामीण रथ के आगे नाचते गाते चलते हैं तथा अनेक ऐसे गीत गाते हैं जिनमे ऐतिहासिकता के पुट हैं। महाराजा प्रवीरचन्द्र भंजदेव अपनी कृति लौहण्डीगुडा तरंगिणी में इस अवसर पर गाये जाने वाले चूडामन गीत का उल्लेख करते है। यह गीत एक कथा पर आधारित है जो बस्तर में राजा वीरसिंह देव (1654-1680 ई.) के शासन समय को प्रस्तुत करता है। अपने दरबार में राजा वीरसिंह, दीवान चूडामन से प्रश्न करते हैं कि क्या राज्य के अंदर की सभी जमीदारियाँ मेरे शासन के प्रति वफादार हैं?  दीवान उत्तर देते हैं कि भेजी जमीदारी को छोड कर अन्य सभी जमीदार राज्य शासन के लिये प्रतिबद्ध हैं। राजा को यह बात नागवार गुजरती है और वे भेजी के जमीदार का दमन करने के लिये दीवान को सेना ले कर जाने का आदेश देते हैं। इस कहानी में मोड़ तब आता है जब भेजी के निवासी जगराज और मतराज नाम के दो भाई चतुराई से सेना में प्रवेश कर जाते हैं तथा चूडामन का विश्वास अर्जित कर लेते हैं। वे बाध्य करते हैं कि वन्य मार्ग में उनके मनचाहे तथा पूर्वनियोजित स्थान पर शिविर लगाया जाये। शिविर लगाया जाता है जिसपर रात में भेजी के सैनिक हमला कर देते हैं। अफरातफरी का वातावरण निर्मित हो जाता है तथा राजा की सेना को बाध्य हो कर पीछे हटना पडता है। 

इस गीत में अंतर्निहित कहानी को तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों के सामने रख कर देखना चाहिये। भेजी का विद्रोह वस्तुत: गोलकुण्डा के कुतुबशाही सल्तनत की शह पर था। गोलकुण्डा, जो भेजी से लगा हुआ बड़ा और शक्तिशाली राज्य था उसे भौगोलिक रूप से सुरक्षित बस्तर में अपनी पैठ स्थापित करने के लिये भेजी के जमीदार को प्रभाव में ले कर उकसाना उचित लगा। यद्यपि इस विद्रोह का दमन कर दिया गया। इसके पश्चात से भेजी जमीदारी हमेशा बस्तर राज्य का हिस्सा बनी रही।  

- राजीव रंजन प्रसाद

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विजय-पराजय (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 50)


एक बड़ी विजय कैसे निर्णायक पराजय में बदल जाती है इसका उदाहरण भूमकाल आंदोलन का आखिरी चरण है। आंदोलन के दमन के लिये 24 फरवरी 1910 की सुबह मद्रास और पंजाब बटालियन जगदलपुर पहुँच गयी। जबलपुर, विजगापट्टनम, जैपोर और नागपुर से भी 25 फरवरी तक सशस्त्र सेनायें जगदलपुर आ पहुँची थी। राजधानी की सड़कों पर फ्लैग मार्च किया गया। यह एक अपराजेय ताकत थी। विद्रोही राजधानी और आसपास से पीछे हटने को बाध्य किये गये। ब्रिटिश कमांडर गेयर तक खबर पहुँच गयी कि विद्रोही अब उलनार गाँव के पास एकत्रित हो रहे हैं। आधी रात को आदिवासियों पर कायराना-अंग्रेज आक्रमण किया गया। भोर की पहली किरण के साथ ही युद्ध समाप्त हो सका। अलनार गाँव से विद्रोही पलायन कर गये। विद्रोहियों के तितर बितर होते ही दि ब्रेट ने छब्बीस-फरवरी को ताडोकी पर हमले का आदेश दे दिया। आधे घंटे की गोलाबारी के बाद ही लाल कालेन्द्रसिंह गिरफ्तार किये जा सके। उनके मकान में आग लगा दी गयी। पाँच-मार्च को तैयारी के साथ राजमाता सुबरन कुँअर के आवास पर छापा मारा गया। राजमाता को गिरफ्तार कर राजमहल लाया गया; उन्हें नजरबंद कर दिया गया। 

25 मार्च, 1910 को उलनार भाठा के निकट सरकारी सेना का पड़ाव था। गुण्डाधुर को जानकारी दी गयी कि गेयर भी उलनार के इस कैम्प में ठहरा हुआ है। डेबरीधुर, सोनू माझी, मुस्मी हड़मा, मुण्डी कलार, धानू धाकड़, बुधरू, बुटलू जैसे राज्य के कोने कोने से आये गुण्डाधुर के विश्वस्त क्रांतिकारी साथियों ने अचानक हमला करने की योजना बनायी। एक घंटे भी सरकारी सेना विद्रोहियों के सामने नहीं टिक सकी और भाग खड़ी हुई। लेकिन उसी रात यह विजय अंतिम पराजय में बदल गयी। किसी लालच के वशीभूत गुण्डाधुर का ही एक विश्वासपात्र साथी सोनू माझी, गेयर से मिल गया तथा उसकी सूचना के आधार पर विद्रोही सेना का दमन कर दिया गया। सुबह इक्क्सीस लाशें माटी में शहीद होने के गर्व के साथ पड़ी हुई थी। गुण्डाधुर को पकड़ा नहीं जा सका लेकिन डेबरीधूर और अनेक प्रमुख क्रांतिकारी पकड़ लिये गये। गेयर बाजार में नगर के बीचो-बीच इमली के पेड़ में डेबरीधूर और माड़िया माझी को लटका कर फाँसी दी गयी। इसके साथ ही महान भूमकाल कभी न भुलायी जाने वाली दास्तान बन कर इतिहास के पन्नों में अंकित हो गया। 

- राजीव रंजन प्रसाद 

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Sunday, August 06, 2017

ताड़-झोंकनी (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 49)


राजा दलपतदेव (1731-1774 ई.) ने अपनी पटरानी के बेटे राजकुमार अजमेरसिंह को डोंगर का अधिकारी बनाया था। उस समय डोंगर क्षेत्र भयानक अकाल से जूझ रहा था तथा जनश्रुतियाँ कहती हैं कि आजमेरसिंह के कुशल प्रबन्धन के कारण ही यहाँ निवासरत हलबा जनजाति की प्रजा उनकी अभिन्न सहयोगी हो गयी थी। राजा के देहावसान के समय अजमेरसिंह ड़ोंगर में ही थे। उनके भाई दरियाव देव ने सिंहासन पर अधिकार करने के लिये डोंगर पर हमला बोल दिया, लेकिन वे भीषण और अप्रत्याशित हलबा प्रतिरोध के आगे टिक न सके। उनके राजधानी जगदलपुर भाग आने के बाद अगले आक्रमण की तैय्यारी होने लगी। आजमेर सिंह ने अपने मामा और कांकेर के राजा से सैन्य सहायता प्राप्त कर जगदलपुर पर धावा बोल दिया जहाँ पुन: पराजित होने के बाद दरियावदेव जैपोर की ओर भाग गये। आजमेर सिंह (1774-1777 ई.) का इसके पश्चात ही विधिवत राज्याभिषेक हो सका। हलबा विद्रोही इस बात से निश्चिंत हो कर कि अब आजमेरसिंह बस्तर के राजा हो गये हैं, डोंगर लौट गये। 

दरियावदेव ने जैपोर के राजा से युद्ध खर्च के अलावा कोटपाड़, चुरुचुंड़ा, पोड़ागढ़, ओमरकोट और रायगड़ा परगने, देने के नाम पर समझौता कर लिया। अपनी विजय को और निश्चित बनाने के लिये दरियावदेव ने मराठों से भी बस्तर के स्वाधीनता की संधि कर ली। इन संधियों की बिसात पर दरियावदेव की एक विशाल सेना तैयार हो गयी। हलबा योद्धाओं ने इस युद्ध में भी राजा आजमेर सिंह के लिये अभूतपूर्व बलिदान दिये। अंतत: दरियाव देव ने जगदलपुर पर अधिकार कर लिया। आजमेरसिंह मार डाले गये। हलबा लड़ाके अपने नायक को खो देने के बाद भी विद्रोह करने पर उतारू थे। कई मोर्चों पर छापामार हमले हुए। विद्रोह का निर्दयता से दमन भी किया गया। पकड़े गये विद्रोहियों की आँखें निकाल ली गयीं तो कुछ हलबा विद्रोही चित्रकोट जलप्रपात से नीचे धकेल दिये गये। दरियावदेव हलबा विद्रोह को इस तरह दबाना चाहते थे कि एक उदाहरण बन जाये। दरियावदेव ने विद्रोहियों की सजा-ए-मौत को खेल बना दिया था; एक जनश्रुति के अनुसार शर्त रखी गयी कि ताड़ का पेड़ काटा जायेगा। जो विद्रोही अपने हाँथों में पेड़ को थाम लेगा और गिरने नहीं देगा उसे छोड़ दिया जायेगा। मौत हर हाल में थी लेकिन हलबा वीरों ने शान से मरना स्वीकार किया। पेड़ काटे जाते रहे और एक एक विद्रोही चिरनिंद्रा में सुलाया जाता रहा। इस कथा को ‘ताड़-झोंकनी’ के नाम से स्थानीय आज भी याद करते हैं। 

- राजीव रंजन प्रसाद 
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