Monday, June 09, 2014

राजनीति में सनसनी की दुर्गति और सोनी सोरी


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आम आदमी पार्टी ने सनसनी की राजनीति का प्रसार करते हुए बस्तर में विवादित तथा बहुचर्चित सोनी सोरी को प्रत्याशी बनाया था। लोकतंत्र केवल विधारधाराओं का पंचवर्षीय शक्तिपरीक्षण भर नहीं है यह जमीनी आन्दोलनों को भी अपनी लोकप्रियता परखने की परिपाटी प्रदान करता है। पिछले कुछ दशकों से लोकसभा चुनावों के दृष्टिगत बस्तर सीट में मुख्य मुकाबला यदि कॉग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच बना हुआ है तो तीसरी ताकत वर्ष 1984 के बाद से यहाँ भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी बन कर उभरी है। कतिपय चुनावों में यहाँ बहुजन समाज पार्टी और नेशनलिस्ट कॉग्रेस पार्टी का प्रदर्शन भी बहुत अच्छा देखा गया है। ऐसे में आम आदमी पार्टी का बस्तर के चुनाव में उतरना और यहाँ से सोनी सोरी को टिकट दिया जाना कई राजनैतिक पंडितों को बडे बडे दावे करने के लिये बाध्य कर रहा था। चूंकि इस प्रत्याशी पर नक्सलवादी मामलों में संलिप्तता होने के कारण अदालत में मामला लम्बित है अत: स्वाभाविक था कि आम आदमी पार्टी के कदम से देश भर में नक्सलवाद और उसकी प्रासंगिकता पर बहस छिडी। यदि पार्टी के एकमेव चेहरा अरविन्द केजरीवाल बस्तर में चुनाव प्रचार करने के लिये आये होते तो माना जा सकता था कि कथित पुलिस प्रताडना की शिकार महिला सोनी सोरी को संसद की आवाज बनाने के लिये पार्टी संजीदा है। प्रशांत भूषण बस्तर में प्रचार करने पहुचे किंतु इस वकील का जनाधार नहीं तो वह अपने प्रत्याशी की क्या मदद कर सकता था, परिणाम सामने है।     
  
चुनावी नतीजों का बस्तर के परिप्रेक्ष्य मे विश्लेषण कई कारणों से आवश्यक है। पहला यह कि कोई गलतफहमी न पाले कि बस्तर का मतदाता गंभीर मामलों के प्रति संजीदा नहीं है या यह न समझ बैठे कि सोनी सोरी से पहले क्षेत्रीय मुद्दों पर प्रत्याशी खडे नहीं किये गये और वे सफल नहीं हुए। बहरहाल बस्तर के चुनावी इतिहास से पहले बात उस पार्टी की जिसके दावों के गुब्बारे में जनता ने पिन मार दिया है। आन्दोलन की जमीन तो अन्ना के हटते ही खसक गयी थी लेकिन उसके शेष बचे प्रभाव की परिणति थी कि केजरीवाल के नेतृत्व में दिल्ली में आम आदमी की सरकार बन सकी।   एक एक गाँव जितने बडे क्षेत्रफलों वाली विधानसभाओं वाले राज्य की सरकार जिनसे नहीं चल सकी उनकी महत्वाकांक्षाओं के हवाई किले दर्शनीय थे। “हम राजनीति को बदलने आये हैं” जैसे वाक्यांश का थोथापन आज उजागर हो चुका है किंतु इस दावे को बस्तर के परिप्रेक्ष्य में तौलता हूँ तो यह लगता है कि सोनी सोरी का इस्तेमाल हुआ है। यह जानकारी सार्वजनिक है कि पार्टी को सोनी सोरी के नाम पर बहुत अच्छा चन्दा मिला जिसमें विदेशों से भी लोगों ने मोटी मोटी धनराशि भेजी थी। इस राशि और उसके इस्तेमाल पर प्रश्नचिन्ह लगाना मेरे आलेख का उद्देश्य नहीं है अपितु जो महिला आन्दोलन की वैश्विक प्रतीक बना दी गयी हो उसका अपने ही निवास क्षेत्र में जनाधार क्यों नहीं पन सका, इसपर तो बात होनी ही चाहिये। 

इन चुनावों में बस्तर लोकसभा सीट पर भारतीय जनता पार्टी ने पचास प्रतिशत से अधिक मत प्राप्त कर अब तक की सबसे बडी जीत हासिल की किंतु ऐसा नहीं कि अन्य पार्टियाँ एकदम हाशिये पर ही चली गयी हों। कॉग्रेस के दीपक कर्मा को चौंतीस प्रतिशत मत प्राप्त हुए जबकि भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी की बिमला सोरी को साढे चार प्रतिशत मत मिले। यद्यपि महेन्द्र कर्मा (1984 में मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी के प्रत्याशी) तथा रामनाथ सर्फे ने कॉंग्रेस वर्चस्व के एक दौर (1984 – 1998 तक) में अपनी जबरदस्त उपस्थिति दर्ज करायी है तथापि तीसरे स्थान पर आज भी बस्तर में लाल चिनगारी की सुलगन देखी जा सकती है यदि राख को थोडा झाडा जाये। ऐसा क्यों हुआ कि बस्तर के आम मतदाता ने सोनी सोरी को वोट देने के स्थान पर उससे अधिक नोटा के बटन दबाये। बस्तर में कुल नोटा मत पडे 38772 अर्थात कुल प्राप्त मतों का पाँच प्रतिशत, जबकि आम आदमी पार्टी की प्रत्याशी सोनी सोरी को केवल सोलह हजार नौ सौ तीन मत प्राप्त हुए अर्थात महज दो प्रतिशत। यदि आम आदमी पार्टी को प्राप्त मतो का विश्लेषण किया जाये तो ये मत किसी भी राजनीतिक दल के जनाधार में सेंध नहीं लगाते अपितु उससे भी कम हैं जितने कि बस्तर में अनेक निर्दलीय प्रत्याशी बिना प्रोपागेंडा के लड कर हासिल करते रहे हैं। 

अतीत के चुनाव परिणामों पर एक दृष्टि डाली जा सकती है। लोकसभा चुनाव वर्ष-1952 में निर्दलीय प्रत्याशी मुचाकी कोसा कॉग्रेस को एक लाख से भी अधिक मतों से हरा कर विजयी हुए। वर्ष 1962 में पहले स्थान पर निर्दलीय प्रत्याशी लखमू भवानी (प्राप्त मत 87557) रहे तो दूसरा स्थान भी निर्दलीय लड रहे बोधा दादा (प्राप्त मत 61348 ) को मिला। 1971 के लोकसभा चुनाव में लम्बोदर बलिहार ने निर्दलीय लड कर जीत हासिल की जबकि निर्दलीय अनेक प्रत्याशी इस चुनाव में खडे हुए थे और एक दूसरे को बहुत अच्छी स्पर्धा दे रहे थे। 1977 का चुनाव एक बडे राष्ट्रीय आन्दोलन की भेंट चढा था और पूरे देश में जनता पार्टी की लहर देखी गयी थी। जनता पार्टी के तत्कालीन प्रभाव को वर्तमान की आम आदमी पार्टी के प्रादुर्भाव से जोड कर देखा जाता रहा है। इसका अनुमापन बस्तर के परिप्रेक्ष्य में करें तो भारतीय लोकदल के प्रत्याशी दृग्पाल शाह एक लाख से अधिक मत पा कर 1977 के चुनावों में विजयी हुए थे जबकि सोनी सोरी चुनाव में नाम मात्र की उपस्थिति भर दर्ज करा सकीं। महेन्द्र कर्मा 1996 का लोकसभा चुनाव निर्दलीय लडे थे और उन्हें 124322 मतों के साथ जबरदस्त जनसमर्थन प्राप्त हुआ था। महेन्द्र कर्मा की हत्या के पश्चात दंतेवाडा सीट पर भी जिस तरह देवती कर्मा के पक्ष में वोट पडे उससे भी इस आदिवासी नेता के जनाधार को खारिज नहीं किया जा सकता। तो क्या यह निष्कर्ष निकाला जाया कि सोनी सोरी भले ही बस्तर से हों, लेकिन वास्तव में वे जनाधार विहीन आम आदमी पार्टी के लेबल के साथ पैराशूट प्रत्याशी ही थीं। चुनावी इतिहास तो यही सिद्ध करता है अब चाहे दिल्ली-वर्धा-पुणे जो मर्जी आंकलन करे।

जो लोग नक्सलवाद पर पैनी दृष्टि रखते हैं वे स्वामी अग्निवेष की बस्तर में विशेष रुचि से अवश्य अवगत होंगे। अग्निवेश ने बाकायदा सोनी सोरी के पक्ष में चुनाव प्रचार किया और नक्सलियों से यह अपील भी की थी कि वे चुनाव जीतने में सोनी सोरी की मदद करें। नक्सलियों से मांगी गयी इस मदद के व्यापक मायने हैं, कोई गहरे इसे बूझने का यत्न तो करे। यद्यपि बीबीसी की हिन्दी बेबसाईट में इसी दौरान एक खबर छपी जिसमें बताया गया कि माओवादियों की दक्षिण रीज़नल कमेटी के सचिव गणेश उईके ने एक बयान जारी कर आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल और सोनी सोरी के ख़िलाफ़ गंभीर आरोप लगाये तथा चुनाव बहिष्कार की अपील जारी की। बस्तर में चल रहा यह पूरा प्रकरण चुनाव में गहरी अभिरुचि बढा रहा था। 

यह चुनाव यह स्पष्ट करता है कि नक्सलवाद के नाम पर बाहर से होने वाली चीख चिल्लाहट का कोई जमीनी आधार बस्तर में मौजूद नहीं है। अगर आम आदमी पार्टी की खाल सोनी सोरी ने न भी ओढी होती तो भी इतने वोट उन्हें आसानी से मिल जाते अपितु अधिक सम्मान से उन्हे देखा जाता तथा संभव है तब चुनाव लडे जाने को संघर्ष की संज्ञा भी दी जा सकती थी। आम आदमी पार्टी अपने इस प्रत्याशी को ले कर कितनी संजीदा थी इस बात का प्रमाण यह है कि जहाँ अमेठी, वाराणासी, गाजियाबाद जैसी हारी हुई सीटों पर माथाफुटौव्वल आज भी जारी है वही बस्तर सीट की इस पराजय का कोई नामलेवा पिछले तीन दिनो से चल रही पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में भी कोई नहीं था। वस्तुत: मुझे सोनी सोरी और विनायक सेन एक ही तराजू में झूलते नजर आते थे। वे जब तक जेल में थे तब तक कथित आन्दोलन और हवाई जिन्दाबाद-मुर्दाबाद वादियों के प्रतीक थे जेल से बाहर आने के बाद सेन नदारद हैं और सोरी भी भुला दी जायेंगी, झंदाबरदार जल्दी ही कोई न कोई नया प्रतीक तलाश लेंगे। सनसनी की राजनीति की यह स्वाभाविक परिणति है। रही आम आदमी पार्टी की बात तो बस्तर के परिप्रेक्ष्य में ये मौकापरस्त किसी सहानुभूति के भी हकदार नहीं है। 

-राजीव रंजन प्रसाद
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1 comment:

Saurabh said...

इस स्पष्ट और विन्दुवत आलेख (रिपोर्ताज़) के लिए हार्दिक बधाइयाँ.
इसमें संदेह नहीं कि जिस गुब्बारे को हवा भर कर सामने किया गया था, उसकी औकात का सही-सही जगहों पर ठीक समय से पता चल गया. ऐसा नहीं कि सोनी सोरी ही ’भटकी’ हुई उम्मीदवार की तरह सामने आयीं. अब कई-कई महत्वपूर्ण नाम सामने आ रहे हैं. ’बदलाव’ की उम्मीद कुछ अधिक ही सिर चढ़ कर बोलती है और इसके सड़सठ साला माकूल कारण हैं.
सधन्यवाद