Thursday, December 12, 2013

बस्तर में वामपंथ की कोई जमीन है भी?

बस्तर पर सर्वाधिक चर्चा वामपंथी ही करते हैं। माओवाद की आलोचना करने पर सबसे तल्ख प्रतिवाद वामपंथियों से ही प्राप्त होता है। बस्तर क्षेत्र में इस बार हुए चुनाव यह तो स्पष्ट कर रहे हैं कि माओवाद अपनी जमीन खो चुका और अधिकाधिक मतदाताओं ने बाहर आ कर लोकतंत्र के पक्ष में मतदान किया है। अब उस वामपंथ पर बात की जाये जिसने बैलेट से अपना शक्तिप्रदर्शन किया है। चुनावों से पहले ही कोण्टा, दंतेवाडा और बीजापुर सीट पर वामपंथी उम्मीदवारों के विजय की भविष्य़वाणी अनेको अतिउत्साही वाम-विचारधारापरक पत्रिकाओं और वेबपोर्टलों में की जा रही थीं। यह समझने के लिये मैने स्थानीय पत्रकार दोस्तों से लगातार यह जानने की कोशिश की कि विशेषरूप से दक्षिण बस्तर में वामपंथी दल किन मुद्दों के साथ बाहर आये हैं, उनकी घोषणायें क्या हैं, तथा चुनावस प्रचार में अपनी बात किस तरह रख रहे हैं। अधिकतर जानकारियाँ यही प्रतीत हुईं कि कोण्टा में मनीष कुंजाम अपनी फेस-वेल्यु पर लड रहे हैं लेकिन सभी जगह वामदल अपनी दृष्टिकोण नहीं केवल लाल झंडा ही आदिवासी मतदाताओं के सामने रख सके हैं। 

चुनाव परिणाम वामदलों के दिवास्वप्नों पर कुठाराघात था। यह ठीक है कि पूरा चुनाव ही दो बडी राष्ट्रीय पार्टियों के बीच का हो गया था लेकिन वामदल तो हमेशा ही अपनी उपस्थिति और प्रभाव का बस्तर में दावा करते रहे हैं। आज यह सवाल उठता ही है कि पिछले पाँच सालों में वाम दलों ने कितनी बार जमीनी मुद्दों को सडक तक लाने का श्रम किया? मनीष कुंजाम भी चार साल की गुमनामी बिता कर एकाएक चुनाव के समय सक्रिय हुए। यह बस्तर हो या दिल्ली जमीन पर अपनी ठोस उपस्थिति दिखाये बिना आप एक सीट पर भी अपनी जीत का दावा नहीं रख सकते। बस्तर वाम दलों ने खुल कर कभी वाम चरमपंथ का विरोध भी नहीं किया तथा स्पष्ट रूप से उनसे अपनी दूरी भी दिखाने मे वे नाकामयाब रहे हैं। जब सुकमा के कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन का अपहरण किया गया था तब मनीष कुंजाम का माओवादियों द्वारा नाम मध्यस्त के रूप में आगे किया जाना उनके खिलाफ ही गया लगता है। वामपंथी दल बस्तर की बारह में से नौं सीटों पर लडे और उन्हें तीसरे से ले कर दसवे स्थान तक की प्राप्ति हुई और वे कहीं भी मुख्य मुकाबले में नहीं थे। उन्होंने पूरे चुनाव प्रचार के दौरान सडक पर भी अपनी ठोस उपस्थिति नहीं दर्ज कराई बल्कि उनके जमीनी प्रचार से अधिक हवाई प्रचार तो बेवपोर्टल और फेसबुक पर सक्रिय वामपंथी करते दिखे। 

तो बस्तर में जमीनी वामपंथ की क्या हैसियत है इसपर बात करने के लिये नतीजों पर एक दृष्टि डालते है। कोंटा में कवासी लकमा फिर एक बार अपनी सीट समुचित बहुमत से निकाल ले गये जबकि दूसरा स्थान भाजपा को मिला है। पिछले चुनाव में दूसरे स्थान पर रहे वामपंथी इस बार पुन: मनीष कुंजाम के नेतृत्व में थे किंतु तीसरे स्थान पर खिसक गये और हार भी लगभग आठ हजार मतो से हुई है। दंतेवाडा (12954) और चित्रकोट (11099) छोड कर वामदलों को अन्य सभी सीटों में गिनती के वोट ही हासिल हुए हैं। अधिकतम सीटों पर तो इस वैकल्पिक राजनीतिक दल से अधिक मत बस्तर के मतदाताओं नें “नोटा” को दिया है। वामदल एकता के साथ भी नहीं लडे यहाँ तक कि जगदलपुर में तो सीपीआई और सीपीआई (एम-एल) एक दूसरे के खिलाफ ही चुनाव लड रही थी और दोनो को मिलाकर भी गिनती के वोट (3321) मिले। वाम दलों को न्यूनतम 655 मत (जगदलपुर में शंभु प्रसाद सोनी) तो अधिकतम 19384 मत (कोण्टा में मनीष कुंजाम) को प्राप्त हुए जो इस दल की क्षेत्र में बेहद पतली हालत का प्रदर्शन है और यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं कि वामपंथ अब बस्तर में कोई जमीनी हैसियत नहीं रखता।

-राजीव रंजन प्रसाद 

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