Thursday, December 19, 2013

बस्तर के लोकजीवन में रचा बसा नशा


अक्टूबर 2012 की बात है। भाई अशोक कुमार नाग के साथ उनके गाँव गया था। वहाँ से आदिवासी जीवन की कई महत्वपूर्ण जानकारियाँ मैने एकत्रित की। यह कहना अनुचित न होगा कि महुआ, शराब और नशा लगभग हर घर की कहानी है। किसी न किसी तरह अपने दैनिक उपयोग का नशा आदिवासी परिवार अपने घर अथवा सामूहिक रूप से अपने गाँव में ही तैयार कर लेता है। घर में ही इसे तैयार करने योग्य वस्तुओं, पकाने योग्य हांडी-भट्टी की व्यवस्था रहती है। मैने महसूस किया कि महुआ और शराब सामाजिक सम्बन्धों की प्रगाढता के साथ भी घुल-मिल और रच बस गयी है। इतना ही नहीं यह उनके देवी-देवताओं की भी आवश्यकता है। इस कथन के साथ मैं यह नहीं कहना चाहता कि शराब उचित है अथवा नशा आदिवासी जीवन के लिये अभिशाप नहीं है। निश्चित ही नशा आदिवासी जीवन का अनिवार्य हिस्सा बना हुआ है किंतु यह उनका प्रसंशनीय पक्ष नहीं है। इस बातपर आलेख के उपसंहार में चर्चा करते हैं पहले यह जानने की कोशिश करते हैं कि कितने प्रकार का नशा बस्तर मे जगभग हर आदिवासी जनजाति के दैनिक जीवन का हिस्सा है।

सर्वप्रथम लांदा बनाने की विधि जान लें। चावल को धो कर पीस लिया जाता है। जरूरत समझी गयी तो चावल के साथ कोसरा और मंडिया को भी मिला कर तथा पीस कर इसे तैयार किया जाता है। एक बडे से घड़े में जिसमे नीचे पानी खौल रहा होता है तथा उसके उपर छिद्रों वाली जाली रखी होती है, इसमें इस मिश्रण को रख दिया जाता है। अब भांप सारी प्रक्रिया को अंजाम देता है जिसमे इसे सेंक कर उतार लिया जायेगा। फिर अंकुरित जोंदरा के पावडर से मिला कर इसमे थोडा पानी डाल कर छ:-सात दिनों के लिये रख दिया जायेगा। घडे में अब खमीर उठने लगेगी। यह लांदा बनने की प्रक्रिया का अंतिम चरण है। लांदा का नशा एकदम से नहीं चढ़ता कितु एक बार चढ जाये तो आदिवासी लम्बे समय तक इसके सुरूर के आनंद में झूमते रह्ते हैं। 

इसी तरह सुराम बनाने के लिये मुख्य आवश्यकता है महुवे की। महुवे को धो कर देर शाम तक उबाला जाता है तथा फिर उसे उतार कर ढक लिया जाता है। अब इसे छान कर दूसरी हांडी में डाल दिया जायेगा। इसमें कुछ लोग आम की फांक का भी कभी कभी प्रयोग करते हैं। जितनी देरी से इसका सेवन होगा उतना ही अधिक नशा सिर पर चढेगा।

मंद बनाने के लिये महुआ को पानी में डाल कर किसी हांडी में तीन चार दिनों के लिये रख दिया जाता है। अब यहाँ अपने घरेलू यंत्र में भाप के योगदान से आगे की प्रक्रिया कीजाती है। इस सम्मिश्रण को हल्की आंच दी जाती है तथा इससे निकलने वाली भाप को बर्तन में उपर उठते ही ठंडा कर दूसरे बर्तन में बूंद बूंद एकत्रित कर लिया जाता है। भाप से ठंडा हो कर एकत्रित हुआ तरल पदार्थ ही मंद कहा जाता है। 

इसके अलावा सल्फी और ताड़ी की चर्चा के बिना लोकजीवन मे नशे पर चर्चा अधूरी रहेगी। क्षेत्रवार यदि सल्फी के पेड की तलाश की जाये तो इसका वितरण उत्तर तथा मध्य बस्तर में अधिक हैं जबकि दक्षिण बस्तर में ये कम पाये जाते हैं। दक्षिण बस्तर में ताड़ के वृक्ष ज्यादा हैं और वहाँ के लोग सल्फी की अपेक्षा ताड़ी पीने के अधिक आदी हैं। यह भी जोडना होगा कि यद्यपि ताडी का वृक्ष सल्फी के वंश का ही है; तथापि ताडी सल्फी से कहीं अधिक मादक होती है। सल्फी का रस निकालने के लिये पेड के अग्रभाग को जिसे ‘कली’ कहते हैं को काट दिया जाता है। रस को एकत्रित करने के लिये रस्सी के सहारे नीचे एक घडा बाँध दिया जाता है जिसमे कली से बूंद बूंद टपक कर रस संग्रहित होता रहता है। सल्फी का रंग दूध की तरह सफेद होता है, थोडा पतला भी जैसे किसी ने दूध में पानी मिला दिया हो। पीने पर सल्फी थोडा खट्टापन लिये हुए मीठी सी होती है। लगभग इसी प्रक्रिया से ताडी भी प्राप्त की जाती है अर्थात ताड़ के पेड़ से निकाले गये दूध से बनी मदिरा को ताड़ी कहते हैं। ताजी सलफी अथवा ताड़ी में नशा नहीं होता और यह सुबह सुबह एक ऊर्जा दायक पेय के रूप में पी जाती है। जैसे जैसे दिन चढता है तथा रस में फरमंटेशन की प्रक्रिया जोर पकडने लगती है, रस कडुवा होने लगता है साथ ही अधिक नशीला भी। 

नशा किसी भी समाज की अवनति का ही कारक है तथा एक सीमा से अधिक इसका प्रयोग सर्वथानुकसानदेय ही होता है। यह बात तथाकथित सभ्य कहे जाने वाले समाज पर भी लागू होती है और हमारे आदिवासी भाईयों पर भी। बस्तर में शराब उन्मूलन के जितने भी सरकारी कार्यक्रम चले हैं वे गैर व्यवहारिक है तथा समाजशास्त्र को समझे बिना चलाये जाते रहे हैं। एक समय मे अंग्रेजों ने अपनी शराब को यहाँ खपाने के लिये इनकी परम्परागत शराब को बंद कराने की तमाम तरह की कोशिशे की थी। समय के साथ हमारा अपरिपक्व लोकतंत्र उसी ढर्रे पर चलने लगा तथा उसे नीयम, कानून और प्रतिपादन छोड कर बाकी सब नज़र आना बंद हो गया। परम्परा बन चुकी आदते कानूनो के मथ्थे मार कर नहीं छुडवायी जा सकती वह भी तब जब इसकी आवश्यकता आदमी को ही नहीं उनके बेजुबान देवी-देवताओं को भी रोज ही पडती हो? हम सोचते हैं कि एसी कमरों में बैठ कर आज निर्णय ले लिया कि कल से देसी बंद, शराब बंद और हो गया? होता यह है कि इससे खाकी की चाँदी हो जाती है और उनके रोज के ठर्रे का पुख्ता इंतजाम होने लगता है। आदिवासी समाज में नशा अवमुक्ति किसी कानून से नहीं अपितु समाज की समझ और वैज्ञानिक दृष्टिकोण भरे किसी अभियान से ही संभव है। हाँ, इसके साथ ही इस विषय पर जंगल के भीतर आदिवासी समाज की भलाई के स्वयंभू ठेकेदार अर्थात माओवादियों पर चर्चा भी कर ली जाये। माओवादियों ने समय समय पर शराब बंदी की घोषणाये उसी तरह की है जिस तरह व्यवस्था के पैरोकार करते रहते हैं। एक गाँव के पूर्व सरपंच ने नाम न जाहिर करने की शर्त पर जानकारी दी थी कि असल में उनकी शराबबंदी का मायना सामाजिक बदलाव नहीं अपितु अपनी खुद की सुरक्षा है। एसी कई घटनाये हुई हैं जहाँ नशे में आदिवासियों नें जंगल के भीतर की जानकारियाँ पुलिस के हथ्थे चढते ही उन्हे प्रदान कर दी हैं। अत: नशा तो बंद कराना ही होगा वह भी सख्ती से? कथनाशय यह है कि बस्तर के आदिवासी समाज में नशे की उपलब्धता बहुत सहज है तथा प्रत्येक घर में है। नशा उनके त्यौहारों का हिस्सा है, पूजा-परम्परा का हिस्सा है नृत्य-गीत का हिस्सा है। जितना गहरा नशा यहाँ की सामाजिकता से जुडा हुआ है उतनी ही गहन सोचपूर्णता के साथ बदलाव लाये जाने की आवश्यकता है।

राजीव रंजन प्रसाद 

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