Tuesday, October 29, 2013

बस्तर के भित्तिचित्र कला भी हैं और इतिहास भी


पाषाणकाल से ही स्वयं को अभिव्यक्त करने का माध्यम बस्तर के आदिवासी समाज के पास उपलब्ध रहा है। अपनी अनुपम शैली तथा कलात्मक भाषा से बस्तर के आदिवासी समाज ने मनुष्य सभ्यता और उसके विकास के विभिन्न चरणों को लिपिबद्ध किया है। आप चित्रलिपि नाम देना चाहें अथवा शैलचित्र नामित करें किंतु मैं इसे लेखन कला के आरंभ, किसी भी लिपि के उद्भव के साथ साथ एसा अमरकंटक मानता हूँ जहाँ चित्रकला की विशाल नर्मदा का उद्गम स्थल है। दक्षिण बस्तर में अवस्थित अनेक पाषाणकालीन गुफायें यह बताती हैं कि वे ही आदि-मनुष्य का प्रारंभिक निवास थे। 

चित्रकला और गुफाचित्रों पर चर्चा से पहले बस्तर में अवस्थित आदिमनुष्य के आरंभिक हथियारों तथा औजारों की एक झलख देखें। निम्न पुरापाषाण काल के मूठदार छुरे जिसकी नोक चोंच के आकार की है, इन्द्रावती, नारंगी और कांगेर नदियों के किनारे मिले हैं। मध्यपाषाण काल में फ्लिट, चार्ट, जैस्पर, अगेट जैसे पत्थरों से बनाये गये तेज धार वाले हथियार इन्द्रावती नदी के किनारों पर खास कर खड़क घाट, कालीपुर, भाटेवाड़ा, देउरगाँव, गढ़चंदेला, घाटलोहंगा के पास मिले हैं; इन जगहों से अब भी कई तरह के खुरचन के यंत्र, अंडाकार मूठ वाला छुरा और छेद करने वाले औजार मिल रहे हैं। उत्तर-पाषाणकाल का आदमी छोटे और प्रयोग करने में आसान हथियार बनाने लगा था; इनको लकड़ी, हड्डी या मिट्टी की मूठों में फँसा कर बाँधा जाता था, यद्यपि हथियार व औजार चर्ट, जैस्पर या क्वार्ट्ज जैसे मजबूत पत्थरों से ही बनाए जाते थे। इस समय के अवशेष इन्द्रावती नदी के किनारों पर विशेष रूप से चित्रकोट, गढ़चंदेला तथा लोहांगा के आसपास प्राप्त होते हैं। उत्तर-पाषाण युग के समानांतर तथा उसके पश्चात धातुओं ने पत्थर के हथियारों और औजारों का स्थान ले लिया। यदि हथियारों और औजारों के प्रकार ध्यान से विवेचित किये जाये तों उनकी उत्पत्ति और विकास के चरणों में न केवल शिकार, आत्मरक्षा, खेती-बागानी अपितु कलात्मकता का भी बराबर योगदान रहा है। खुरचन के लिये प्रयोग में आने वाले मूठदार हथियार आदिमनुष्य की अभिव्यक्ति का साध्य भी बने और उसने शनै: शनै: अपनी मौखिक और सांकेतिक भाषा को पत्थरों, पर्वतों और गुफाओं पर अंकित करना आरंभ कर दिया।

आड़ी टेढी खुरचनों से आरंभ हो कर परिष्कृत गुफाचित्रों तक कला की प्रारंभिक यात्रा बहुत रुचिकर जान पड़ती है। आदि-मनुष्य तब अपनी जिज्ञासाओं का परिष्कार तथा नित नये आविष्कार कर रहा था जिन्हें वह अचरज से देखता तथा उसकी कोशिश होती कि अपने साथियों और संततियों को भी वह इस नव-ज्ञान से अवगत करा सके। वस्तुत: बस्तर में प्राप्त गुफाचित्रों में दैनिक जीवन विषयक संदर्भों का आलेखन गुफा की छत और दीवारों पर किया गया है। इन चित्रों में आखेट, मधुसंचय, नृत्य, पशुयुद्ध, अग्निपूजा, वनस्पति इत्यादि से सम्बन्धित दृश्य प्रस्तुत किये गये हैं। दक्षिण बस्तर में लगभग चार हजार फुट ऊँची नड़पल्ली पहाड़ी के ऊपर चित्रित गुफा प्राप्त हुई है जिसमें हिरणों की आकृतियाँ बनी हुई हैं। मटनार गाँव के पास इन्द्रावती नदी के तट पर चित्रित पशु-पक्षियों तथा मनुष्य की हथेलियों के चित्रन से यहाँ किसी अलौकिक शक्ति की पूजा का संकेत मिलता है। अपनी खुरचन कला मे प्रवीणता हासिल करने के पश्चात उसे प्रकृति ने ही रंगों का आरंभिक ज्ञान भी दिया होगा। फरसगाँव के समीप आलोर के निकट की पहाडी पर अनेक शैल चित्र बने हुए मिले हैं जो लाल रंग के हैं तथा मृदा वर्णों से चित्रित हैं; इन चित्रों को क्षरण के कारण स्पष्ट नहीं देखा जा सकता किंतु इनमे मानव और पशुओं की आकृति को आसानी से पहचाना जा सकता है।    

अब यदि इन आरंभिक चित्रों का बारीकी से प्रेक्षण निरीक्षण करें तो यह ज्ञात होता है कि रेखांकन से चित्र तक पहुँचने के पश्चात आदि-मनुष्य ने इनमे रंग भरने की भी कोशिश की होती। भांति भांति के प्रयोगों के पश्चात उसे गेरू मिट्टी के रूप में एक एसा रंग मिल गया होगा जो न केवल लम्बे समय तक स्थायी रह सकता था अपितु उसकी चटखीली लाल तथा भूरे रंग की आभा भी प्रभावित करती थी। गेरू-मिट्टी की कृतियों ने गुफाचित्रों को सजीव करना प्रारंभ किया तथा  कालांतर में अन्य प्राकृतिक रंगों का भी आविष्कार व प्रयोग होने लगा। उदाहरण के लिये पत्तियों के रस से हरा रंग निकाला गया होगा तो भांति भांति के फूलों ने लाल, नीले, बैंगनी, पीले आदि रंग प्रदान किये होंगे; काले रंग के लिये गाय के गोबर का प्रयोग किये जाने के भी संकेत प्राप्त होते हैं। 

समय बदलता गया और चित्रों के विषय भी बदलते चले गये। अब इन चित्रों में मनुष्य का सामाजिक जीवन प्रविष्ठ हो गया; उसका जन्म, उसकी मृत्यु, उसका बालपन, उसका बुढापा, उसका प्रेम उसके यौन सम्बन्ध, उसकी वितृष्णा, उसकी नफरत, उसके युद्ध, उसके वाद्य, उसके नृत्य, उसके देव, उसकी देवी, उसकी जिज्ञासायें उसके सपने.....यह सूची लगातार लम्बी होती चली गयी और ये भित्तिचित्र बस्तर की एक परिष्कृत और विश्व भर में सराही जाने वाली कला के रूप में अब हमारे सामने है। भित्तिचित्रों में बस्तर के लोक जीवन ही नहीं लोक काव्यों को भी सम्पूर्णता से अभिव्यक्त किया है, जनश्रुतियों और कथाओं को मूर्तरूप दे कर पीढियों के लिये सुरक्षित करने का महति कार्य इन चित्रों के माध्यम से आज भी हो रहा है। बस्तर में भित्तिचित्र कला को गढ लिखना अथवा गढ लेखन करना भी कहा जाता रहा है। इन भित्तिचित्रों के केवल विषय ही नहीं बदले अपितु समय के साथ चित्र उकेरने और रंग भरने के माध्यम भी बदलते चले गये। गेरु मिट्टी, प्राकृतिक रंगों के साथ साथ अब चावल का आंटा जिसे स्थानीय बोली में बाना कहा जाता है; फर्श और दीवार के चित्रों को रंग व स्वरूप देने के कार्य में लिया जाने लगा। इस माध्यम से फर्श पर की जाने वाली चित्रकारी को बाना लिखना कहते हैं। चावल के आँटे को पानी में घोल लिया जाता है फिर कपडे के टुकडे की पोतनी बना कर उसी से मिट्ती अथवा लिपे हुए फर्श और दीवारों पर चित्रकारी करने की परम्परा बस्तर की थाती है। 

एक मुकम्मल कला बनने के साथ ही गढलेखन अथवा भित्तिचित्र निर्माण को न केवल सम्मान ही प्राप्त हुआ अपितु उसके आयामों मे भी परिवर्तन देखने को मिले। अब इन भित्तिचित्रों ने देवगुडियों को सजाया, घोटुलों के दरवाजों, फर्श और दीवारों को संवारा, महत्वपूर्ण व्यक्तियों के निवास की शोभा बनी। वेरियर एल्विन की पुस्तक “दि डोर एण्ड वॉल डेकोरेशन” में बस्तर के भित्तिचित्रों की महान कलायात्रा का सुन्दर वर्णन उपस्थित है। आधुनिक समय ने बस्तर की इस कला को दीवार और भूमि जैसे केनवास के अलावा कागज और कपडे के माध्यम भी प्रदान किये हैं। प्राकृतिक रंगों के स्थान पर फेब्रिक रंग, पोस्टल कलर या ऑयल पेंट का उपयोग भी किया जाने लगा है। यद्यपि इस कला में अब भी परम्परागत विषयवस्तु को ही उकेरा जाता है किंतु समय के साथ आधुनिक बिम्बों के प्रयोग भी होने लगे हैं। जगदलपुर के मानवविज्ञान संग्रहालय में मेरी मुलाकात दो चित्रकारों महारूराम नेताम और बुधराम मरकाम से हुई। ये दोनो ही कोण्डागाँव से आये हुए कलाकार थे तथा आधुनिक माध्यमों और रंगों से अपनी विरासत कला का प्रदर्शन कर रहे थे। बस्तर की भित्तिचित्र कला के एक बडे साधक हैं कोण्डागाँव निवासी श्री खेम वैष्णव जिन्होंने न केवल इसे अपनी साधना बनाया अपितु देश-विदेश में इस कला की ख्याति को पहुँचाया है। इस वर्ष आईपीएल-2013 में देहली देयर डेविल्स की क्रिकेट टीम का सांकेतिक बल्ला श्री खेम वैष्णव द्वारा ही डिजाईन किया गया था जिसमे उन्होंने बस्तर की भित्ति चित्र कला की अनेक बारीकियाँ प्रस्तुत की थीं; यह इस कला की अनंत यात्रा का एक महत्वपूर्ण पडाव भर है। यहाँ हमें ठहर कर सोचना होगा कि कुछ विवादास्पद कलाकृतियों के लिये लाखों-करोडो की कीमत अदा करने वाले लोग क्यों इस महति कला की ओर उपेक्षा की दृष्टि रखते हैं?

 – राजीव रंजन प्रसाद


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