Friday, October 25, 2013

बस्तर में बांस की कलात्मक दुनियाँ


तेरहवी शताब्दी का पूर्वार्द्ध जब अन्नमदेव ने चक्रकोट के नाग शासकों को अंतिम रूप से परास्त कर अपना शासन स्थापित किया तब कोंटा से कांकेर तक उनके द्वारा शासित क्षेत्र का नाम बस्तर रखा गया। इस नामकरण के पीछे अनेक कहानियाँ हैं जिसमे से प्रमुख मान्यता है कि वारंगल से निष्काषित होने के पश्चात बस्तर में अपने विजय अभियान का आरंभ करने के दौरान अन्नमदेव को अनेक बार बांसतरी में विश्राम करना पड़ा; बांस से शासक के इसी सम्बन्ध ने संभवत: बस्तर शब्द की उत्पत्ति की होगी। आदिवासी जीवन में वही वस्तुएं कला का माध्यम भी बनी हैं जो उनके आम जीवन की संगिनी रही हैं। वह चाहे पाषाण हो, धातु हो, मृदा हो, काष्ठ हो अथवा बांस। जहाँ तक बांस का प्रश्न है, यह आदिवासी जीवन का अभिन्न है तथा मृत्यु पर्यंत तक उसकी किसी न किसी दैनिक गतिविधि का हिस्सा बना रहता है।



लोकजीवन से आगे बढ कर लोक संस्कृति का हिस्सा बनते हुए बांस कभी आदिवासियों की पूजा परम्परा में इस्तेमाल होते हैं तो कभी लोकनृत्य और लोक वाद्य का भाग भी बनते हैं। इसका महत्वपूर्ण उदाहरण डंगईयाँ को कहा जा सकता है। एक मोटे मजबूत साबुत बाँस को डंगई कहते हैं जिसके शिखर पर चाँदी, कासा, या पीतल का बना सम्बन्धित देवी या देवता का एक कलापूर्ण प्रतीक लगा होता है; इस प्रतीक को हलबी-भतरी में गुबा कहते हैं। भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा पर्व के दौरान जगदलपुर के सीरासार चौक में तुपकी खूब चलाई जाती है। वस्तुत: तुपकी बाँस से बनी एक तिकोनी नली होती है जिसकी प्रक्रिया किसी पिचकारी सदृश्य मानी जा सकती है। इसके मूल में मलकांगिनी के फल रख कर किसी भी आगंतुक अथवा मित्र पर उसे सधान कर मारा जाता है। मोहरी, नांगड और तुडबुडी बस्तर अंचल के लोक वाद्यों में प्रमुख माने जाते हैं तथा सभी के निर्माण में बांस किसी न किसी तरह सहयोगी होता है। धनकुल बस्तर की ही एक अद्भुत वाध्य रचना है जिसमें एक आम वनवासी की गृहस्थी में रोज काम आने वाली कई वस्तुओं का प्रयोग होता है जैसे हंडी सूप, धनुष और बाँस की कमची। वाद्य ही क्यों गेडी नृत्य, डंडारी नृत्य आदि में भी प्रमुखता से बाँस ही प्रयोग में लाया जाता है।

बांस बस्तर में विवाद के केन्द्र में भी रहा जब बांग्लादेश से आये विस्थापितों को अरण्य क्षेत्रों में बसाया जाने लगा था। उस दौरान बंगाल से लायी गयी बांस की कुछ किस्मों के बस्तर में रोपण की योजनायें बनी तथा उनका क्रियान्वयन हुआ। अनेक तरह के विरोध तब सामने आये एवं विशेषज्ञों ने सिद्ध किया कि कलात्मक वस्तुओं के निर्माण में भी बस्तर का नैसर्गिक बांस उच्च कोटि की गुणवत्ता रखता है। अपनी पुस्तक ‘बस्तर – इतिहास एवं संस्कृति’ में लाला लगदलपुरी लिखते हैं कि “आदिवासियों की दृष्टि में बस्तर अंचल में कुल नौ प्रकार के बांस होते हैं। घर बावँस, बरहा बावँस, पानी बावँस, डोंगर बावँस, पोड़सी बावँस, रान बावँस, माल बावँस, सुन्दर कोया और बोंगू। इनमे से केवल डोंगर बावँस, पोडसी बावँस, माल बावँस और रान बावँस ही टट्टे, टोकने, सूप और छतूडी आदि बनाने के काम में लाये जाते हैं और शेष से मोटे काम निबटाये जाते हैं। पानी बाँस पतला होता है जिससे बाँसुरी बनती है और शहनाई का मुख्य भाग तैयार किया जाता है। बोगू बाँस एक मोटा बांस होता है, इतना मोटा कि उससे बने पात्र दक्षिण बस्तर में ताडी उतारने और पानी पीने के काम आते हैं”।

इस तथ्य को स्वीकार करना होगा कि विस्थापित बंगालियों के साथ आयी बांस कला का बस्तर में अवस्थित परम्परागत शिल्प के साथ बखूबी संगम हुआ तथा उसमें आधुनिकता के तत्व सम्मिलित होने लगे। बस्तर के आदि-बांस शिल्पियों को नयी तकनीक और नये प्रयोगों से प्रशिक्षित किया गया तथा वे अब कुछ एसी वस्तुओं का भी निर्माण करने लगे जो उपभोक्तावादी संस्कृति अपने बाजार के लिये चाहती थी। मुख्य रूप से बांस से बने सोफा सेट, डायनिंग टेबल, टेबल लैम्प, गुलदस्ते, मोर, मछली, टोकनी, परदे आदि तैयार किये जाने लगे। छत्तीसगढ हस्त शिल्प विकास निगम, राष्ट्रीय शिल्प बोर्ड आदि सरकारी संस्थायें तथा अनेक गैर सरकारी संस्थायें सामने आयीं जिन्होंने आदिवासियों की परम्परागत बांस-कला तथा उनके द्वारा निर्मित नये दौर के उत्पादों को बाजार देना आरंभ किया। नारायणपुर, अंतागढ, पखांजुर तथा ओरछा आदि क्षेत्रों में बांस से विभिन्न वस्तुए तैयार करने के लिये प्रशिक्षण तथा प्रदर्शन केन्द्र स्थापित किये गये। मृगनयनी एम्पोरियम के माध्यम से यहाँ निर्मित उत्पादों के लिये अनेक विक्रय केन्द्र उपलब्ध कराये गये।   

मुझे बहुत निकटता से नारायणपुर के बाँस कला केन्द्र को देखने का अवसर मिला है। यह भी बताना चाहूंगा कि यहाँ का केन्द्र उन आदिवासी परिवारों के लिये पुनर्वास की तरह भी कार्य कर रहा है जो नक्सलवाद की विभीषिका के कारण अबूझमाड़ से पलायन कर यहाँ पहुँचे हैं तथा आजीविका के लिये उनके ही साधन उन्हे थमाये गये हैं। यहाँ मेरी मुलाकात बांस कला के अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त शिल्पी पंडी राम मंडावी से हुई जो अबूझमाड़ के प्रवेशद्वार गढबंगाल से हैं। उन्होंने अपनी अनेक बाँस की निर्मित कलाकृतियाँ मुझे दिखाई तथा भारत के बाहर उनके हाँथ का किन किन देशों में क्या क्या बना हुआ है इससे भी मुझे परिचित कराया। घुटने के उपर वाली लुंगी और कमीज में वे आधी दुनिया घूम चुके हैं तथा प्रशंसाये बटोरी हैं। पंडी राम मंडावी में प्रसिद्धी और पैसे ने कुछ नहीं बदला यहाँ तक कि उसके नंगे पैर में जूता नहीं आया; उनके सिर का साफा नहीं बदला; हाँथ का झोला नहीं बदला। मुझे प्रसन्नता होती है कि कलाकार नहीं बदलते क्योंकि उनके हाथों की महारत का मर्म उनकी अंतरात्मा में अंतर्निहित होता है।   

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1 comment:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

जानकारी परक और उपयोगी आलेख।