Monday, October 14, 2013

फतेहपुर सीकरी के लपके और चुल्लू भर पानी


“लपका” शब्द रोचक लगा था मुझे। फतेहपुर सीकरी पहुँचने के बाद जब कई हमारी ओर लपके तब समझा कि इस शब्द की उत्पत्ति कहाँ से हुई और इसके निहितार्थ क्या हैं। वैसे लपके सभी एतिहासिक स्थलों पर पाये जाते है; मूल रूप से ये गैर-प्रशिक्षित गाईड होते हैं जिनका कार्य होता है बस स्टेंड, टैक्सी स्टैंड, रेल्वे स्टेशन आदि आदि से अपने शिकार को फांसना। पर्यटक के लिये शिकार शब्द का प्रयोग करना एसा लगता जरूर है कि हलाली को कत्ल लिखा गया है, लेकिन ज़नाब किसी लपके की चपेट मे आ कर तो देखिये अगर अपने इतिहास ज्ञान और भूगोल की समझ पर आपको संदेह न हो जाये तो कहियेगा। गजब का आत्मविश्वास होता है इनमे और ये आपकी अनेक समस्याओं का एकमेव इलाज बन कर प्रकट होते हैं। अब उनके स्वयं को प्रस्तुत करने के तरीके को भी सराहिये ज़रा – ‘साहब आपको लाईन में नहीं लगना पड़ेगा’, ‘टिकट खरीदने के पैसे हमारी सर्विस में इंक्लूड हैं’, ‘आपको सबसे छोटे रास्ते से ले जाउंगा, कम सीढियाँ चढनी पड़ेंगी’, एकदम मॉन्यूमेंट के सामने ही पार्किंग करवा दूंगा’...यह सूची बहुत लम्बी भी हो सकती है यदि आपने त्वरित निर्णय नहीं ले किया। आपके चेहरे के भाव से वो जान जाते हैं कि आप फसने वाला मुर्गा हैं भी या नहीं। अगर आपने सलीके से झिडका तो इधर आपका पलक झपका और नदारद हुआ लपका, नहीं तो वह धीरे धीरे भूख और गरीबी की परिभाषाओं का डिमोंस्ट्रेशन आपके सामने आरंभ कर देगा। बोहनी का टाईम है, कल से कुछ खाया नहीं है, घर में माताजी भगवान के पास जाने ही वाली है और पिताजी टुन्न पडे हैं.....। आप देसी हैं तो संभव है इनके मनोविज्ञान को भांप सकते हैं; इनकी नुक्कड़ नाट्य प्रतिभा को सराह सकते हैं लेकिन सोचिये ज़रा उन विदेशियों के हालात जिन्हें देखते ही एक साथ उनकी ओर लपकते हैं लपके। यह बेचारा जर्मन हो या कि अमेरिकन, नाईजीरियन हो या कि ईरानी तय है जनाब की शामत आनी। इन्हें तो सलीम चिश्ती की दरगाह को कोई अलाउद्दीन खिलजी की समाधी भी बता दे तो येस येस में ही सिर हिलना है। 

मित्र शक्तिप्रकाश जी के साथ उनकी बाईक में फतेहपुर सीकरी पहुँचा। पार्किंग स्थल से ही हमपर एक सत्रह अठारह वर्ष के लपके ने डोरे डालने आरंभ कर दिये थे। सौ रुपये में वह फ्रेंड-फिलोसोफर और गाईड बनने की पेशकश किये जा रहा था। स्थानीय होने के कारण शक्ति जी के चेहरे पर संत वाले भाव थे और अनसुना करते हुए आगे बढते जा रहे थे किंतु मेरे भीतर के कवि मन ने ठगे जाने की सभी आशंकाओं के बाद भी इस लपके के प्रस्ताव को लपक लिया। पार्किंग से स्मारक स्थल तक जाने के लिये बस की व्यवस्था की गयी है। एक दिन पहले हुई बरसात के बाद भी मौसम में सुहानापन नहीं था और प्यास बेहाल कर रही थी। हम बुलंद दरवाजे से दूसरी और थे और इस स्थल से बमुश्किल पंद्रह सीढियाँ चढ कर ही स्मारक में प्रवेश किया जा सकता था। मैने लपका महोदय को अपना कैमरा दिया और उसने पहली तस्वीर जो निकाली उसके लिये नीचे बैठ कर एसी एसी मुद्रायें बनायी कि लगा किसी प्रोफेशनल फोटोग्राफर को इनसे ही प्रशिक्षण लेना चाहिये; और जो तस्वीर खींची गयी उसे देख कर बस मैने सिर ही पीट लिया। खुद ही खुजा कर दर्द मोल लिया था तो भुगतना ही था। इस स्थल के आगे हमारे पास ‘खुद देखिये और आप ही बूझिये’ वाला विकल्प रह गया था। सही मायनो में न इस नवयुवक को स्मारक स्थल के विषय में कुछ पता था और न ही बताने में कोई अभिरुचि ही। उसका ध्यान केवल उन सौ रुपयों की तरफ था जो आधे घंटे की माथापच्ची के पश्चात उसकी जेब में जाने वाले थे। एक प्रशिक्षित गाईड स्मारक के संबंध में जानकारी रखता है, स्थल के इतिहास को पढना और समझाना उसका दायित्व होता है, उसके पास उन प्रश्नों के उत्तर होते हैं जो साथ चलने वाले पर्यटकों मे मन में उठते हैं चाहे वे सवाल कितने ही बचकाना हों अथवा कितने ही शास्त्रीय। इधर लपका का दिया पूरा विवरण उसकी कल्पना शीलता पर आधारित होता है। वह किसी गोल आकृति की कलाकृति को बादशाह की रसोई का हिस्सा बता सकता है तो दीवान-ए-आम को आम का बगीचा भी सिद्ध कर सकता है। बहरहाल बुलंद दरवाजे पर लपके ने मेरी तस्वीर खींचने के लिये कैमरे के कुछ तकनीकी बटनों पर अपना ज्ञान और हाथ आजमाया। इसके बाद कैमरे ने जवाब दे दिया। किसी भी दृश्य पर फोकस करना संभव नहीं हो रहा था। अंतत: मैंने छांव में बैठ कर कैमरे की बैटरी आदि निकाल कर फिर से उसे फिर से लगाया और इस तरह जुगाड तकनीक ने साथ दिया; तभी आगे की फोटोग्राफी संभव हो सकी। मैं आसपास से पर्यटकों को ले कर गुजरते लपकों की बातों पर ध्यान दे रहा था। सभी के पास एक जैसी जानकारी और रटे हुए वाक्यांश। अकबर को कोई संतान नहीं हो रही थी; शेख सलीम चिश्ती की दुआओं से एक हिन्दू रानी जोधा बाई के द्वारा उसे पुत्र की प्राप्ति हुई। लपकाओं की कहानियों में आपको रस आ सकता है क्योंकि तथ्य के स्थान पर वे उन्ही कथ्यों तक खुद को रखना पसंद करते हैं जिनमे आम तौर पर लोगों की अभिरुचि होती है। आपको स्मारकों के भीतर की एसी एसी सास-बहू की कहानियाँ जानने को मिल जायेंगी जो कि एकता कपूर अपने सीरियलों में भी नहीं ला सकी। 

इस स्मारक के बारे में जिन बुनियादी जानकारियों के साथ मैं वहाँ गया था कमसेकम उतना भी मैं लपके से सुन लेता तो उनकी उपादेयता को दस प्रतिशत भी सार्थक पाता। आगरा से लगभग अडतीस किलोमीटर दूर अवस्थित यह स्मारक स्थल वस्तुत: दो हिस्सों में बटा हुआ है। पहले हिस्से में बुलंद दरवाज़ा और उससे लग कर परिधि है, जिसके भीतर विस्तृत अहाता और उसके बीचोबीच शेख सलीम चिश्ती की सफेद संगमरमर से निर्मित दरगाह अवस्थित है। मुझे जानकारी थी कि फतेहपुर सीकरी की दरगाह अजमेर के ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती के पौत्र सलीम चिश्ती के सम्मान में निर्मित की गयी है जिनकी दुआओं के असर से बादशाह अकबर (1542-1605 ई.) को अपना वारिस प्राप्त हुआ था। यह दरगाह और समाधि स्थल उन गुने चुने संगमरमर के भवनो तथा निर्मितियों मे आता है जिसे आप बार बार निहारना चाहेंगे और भारत में इनके होने पर गर्व करेंगे। समाधि स्थल पर निर्मित मुख्यद्वार पर चार संगमरमर से तराशे हुए खम्बे निर्मित हैं जिसपर उकेरा गया सर्पाकार गुजराती शैली में निर्मित शिल्प विशेष दर्शनीय है। समाधि स्थल के चारो ओर संगमरमर का बारीक काम विशेषरूप से इसकी जालियाँ मनमोह लेती हैं। संगमरमर पर इतना महीन काम ताजमहल में भी देखने को नहीं मिलता अपितु यदि यहाँ किये गये कार्य की किसी दूसरे निर्माण से तुलना हो सकती है तो वे माउंट आबू में अवस्थित दिलवाड़ा के जैन मंदिर ही हैं। यहाँ दरगाह पर चादर चढाने का रिवाज़ है साथ ही मन्नत का धागा भी बाँधा जाता है। बुलंद दरवाजे से बाहर निकलते हुए मेरी निगाह उपर उसके गुम्बद का निरीक्षण करने लगी उफ..पूरे गुम्बद पर मधुमक्खियों के अनेक छत्ते लगे हुए हैं। यहाँ दीवारों पर के भित्तिचित्रों और नक्काशियों का भी संरक्षण बहुत दयनीय स्थिति में हो रहा है। बुलंद दरवाजे का निर्माण अकबर द्वारा गुजरात विजय के पश्चात करवाया गया और इसके साथ ही सीकरी नाम के साथ फतेहपुर भी जोडा गया था। परिसर के दूसरे हिस्से में अनेक प्रशासकीय तथा रिहायशी भवन बने हुए हैं जिनमे दीवान-ए-खास (विशेष प्रशासकीय मंत्रणा का कक्ष), दीवान-ए-आम (जनता के सम्मुख बादशाह के उपस्थित होने का स्थान), मरियम का निवास, जोधा बाई का निवास, बीरबल का आवास, पंचमहल आदि शामिल हैं। सम्पूर्ण परिसर में स्थित अनेक भवनों में से जामी मस्जिद को फतेहपुर सीकरी के प्रारम्भिक निर्माणों में गिना जाता है जिसके पश्चात महल परिसर की निर्मिति 1569 – 1574 ई. के मध्य की गयी। फतेहपुर सीकरी को बादशाह जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर ने 1571-1585 ई. तक अपने सल्तनत की राजधानी नियत किया था।

मैं सलीम चिश्ती की समाधि पर चादर चढाना चाहता था। साथ आये ‘लपका’ ने हमे दरगाह के पिछले हिस्से की ओर आने का इशारा किया जहाँ सैंकडो समाधियाँ बनी हुई हैं। ये सभी समाधियाँ सलीम चिश्ती के खानदान से सम्बन्धित हैं। यहाँ पुरुषों की समाधियाँ बाहर खुले स्थलों पर तथा महिलाओं की भीतरी परिधियों में बनी हुई है। नक्काशीदार जालियों से छन छन कर आती रोशनी जब इन समाधियों पर पडती है तो एक रूहानी दृश्य उपस्थित करती है। यद्यपि यहाँ के अधिकांश स्थलों पर चादर-फूल और संगमरमर के सामान बेचने वालों का कब्जा है। मैं समझ नहीं पाता कि स्मारक स्थल पर किसी भी विक्रय के लिये समुचित स्थल क्यों नियत नहीं किये जाते? कहीं भी सामान रख कर बेचने लगना अथवा फेरी लगाना वस्तुत: सर्वत्र भीड भाड को ही आमंत्रित करता है तथा इससे अव्यवस्था अधिक होती है। विदेशी पर्यटकों का एसे विक्रेता जो हश्र करते हैं वह भी एक दर्शनीय मनोरंजन बन जाता है; आखिर यह सब रुके इसका दायित्व किसका है? यहीं मेरी निगाह एक ‘लपके’ पर पड़ी जिसकी उम्र बमुश्किल नौ-दस वर्ष रही होगी। जिस आत्मविश्वास के साथ वह अपने साथ खडी भीड को सम्बोधित कर रहा था यह नज़ारा देखने योग्य था। एक सुरंगनुमा संरचना प्रतीत हो रही थी जिसका द्वार साधारण किंतु काष्ठनिर्मित था और उसपर ताला लगा हुआ था। इस स्थल पर खड़ा हो कर वह बालक जिसे उसके साथ खडे पर्यटक छोटू कह कर सम्बोधित कर रहे थे बहुत ही नाटकीय शैली मे अभिनय पूर्वक सलीम और अनारकली की कहानी प्रस्तुत कर रहा था। वह पर्यटकों को बता रहा था कि कैसे अकबर ने अनारकली को दीवारों मे चुनवाने का आदेश देने के बाद भी इसी गुफा से उसे फरार करवा दिया। मुझे इस लड़के की प्रतिभा पर कोई संदेह नहीं है और मैं उसकी अभिनय शैली से प्रभावित भी हूँ लेकिन क्या यह स्थिति भी बाल श्रम की नहीं है? बच्चे की असाधारण मेधा उससे इतिहास को तोड मरोड कर रोचकता के साथ प्रस्तुत तो करवा रही है किंतु क्या यह भी सही नहीं कि इन्ही बातों को पर्यटक अपने साथ गाँठ बांध कर ले जायेंगे? विदेशी इस बच्चे की तस्वीर लगातार खींच रहे थे, क्या आपको लगता है कि वे अपने देश जा कर लोगों को यह बतायेंगे कि बच्चे में कितनी प्रतिभा है? भोजन की गारंटी और शिक्षा की गारंती वाले देश मे छोटे छोटे बच्चे अगर लपका बने दीख पडते हैं तो हमारे नीति-निर्धारकों को चुल्लू भर पानी की ही आवश्यकता है। 
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