Wednesday, December 19, 2012

नल युगीन बस्तर के अविस्मरणीय नायक थे स्कंदवर्मन

सान्ध्य दैनिक ट्रू सोल्जर में 18.12.12 को प्रकाशित
इतिहास की पडताल करने पर नलयुगीन शासक स्कंदवर्मन (475-500ई.)विलक्षण नायक नज़र आते हैं। उन्हें विरासत में एक ध्वस्त राजधानी तथा मुट्ठी भर साथी ही मिले थे। इससे विचलित हुए बिना उन्होंने न केवल नल सत्ता को पतन से उबारा अपितु पुन: उसके गौरव की भी स्थापना की। वह नल साम्राजय जिसे सम्राट समुद्रगुप्त नें अपने आधीन कर लेने के बाद भी एक स्वतंत्र सत्ता बनाये रखा था वस्तुत: अर्थपति भट्टारक (460-475ई.)के समय के आते आते कमज़ोर हो गया था। अर्थपति एक विलासी शासक प्रतीत होते हैं, कदाचित व्यसनी। वे आम जनता का विश्वास और सहानुभूति खो चुके थे और बहुतायत समय सुरा-सुन्दरी में डूबे हुए ही व्यतीत करते थे। इतिहास गवाह है कि एसे शासक कभी भी सत्ता पर पकड़ नहीं बनाये रख सके हैं। मध्य क्षेत्र में अत्यधिक शक्तिशाली वाकाटक नरेशों को एसे ही समय की प्रतीक्षा लम्बे समय से थी। वाकाटक नरेश पृथ्वीषेण (460-480ई.)नें नलों की राजधानी नन्दिवर्धन पर तीन दिशा से हमला कर दिया। यह इतना शक्तिशाली हमला था कि अंतत: अर्थपति भट्टारक को अपनी राजधानी छोड कर भागना पड़ा। अपनी बार बार पराजय तथा असफलताओं से त्रस्त वाकाटक राजा इतने उद्वेलित थे कि पृथ्वीषेण नें नल साम्राज्य को जड़ से उखाड देने के संकल्प के साथ ही आक्रमण किया था। अर्थपति नल साम्राज्य की प्राचीन राजधानी पुष्करी की ओर भागे लेकिन वहाँ तक भी उनका पीछा किया गया। स्वयं पृथ्वीषेण अपनी सेना के साथ पुष्करी पहुँचे और इस नगरी को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया गया। एक-एक प्रासाद और मकान तोड़ दिया गया। इसके बाद पृथ्वीषेण ने अर्थपति भट्टारक को उसके हाल पर छोड़ दिया और वह नव-विजित राजधानी नन्दिवर्धन लौट आया।   

अर्थपति गहन विषाद में रहने लगे। वे ध्वस्त राजधानी और कदमों से नापी जा सकने जितनी भूमि पर बची सत्ता के साथ रह गये थे। मदिरा ने साथ नहीं छोड़ा इसलिये शीघ्र ही शरीर ने साथ छोड़ दिया। अर्थपति के निधन के बाद उनके छोटे भाई स्कंदवर्मन का अत्यधिक साधारण समारोह में राजतिलक किया गया। यह राजतिलक केवल परम्परा के निर्वाह के लिये ही था क्योंकि उनके पास न तो भूमि थी न ही कोई अधिकार। कहते हैं संयमी और दूरदर्शी व्यक्ति कभी हौसला नहीं खोते तथा केवल लक्ष्यदृष्टा होते हैं। स्कंदवर्मन ने अपने विश्वासपात्र साथियों के साथ खुले वातावरण में बैठक की तथा अपने दिवास्वप्न से मित्रो को अवगत कराया। वे महाकांतार से वाकाटकों को खदेड़ कर नल-राज पताका पुन: प्रशस्त करना चाहते थे। सभी साथी हँस पडे; यह असंभव था। वह तथाकथित राजा जो इस समय पत्थर पर बैठ कर चन्द साथियों को सम्बोधित कर रहा हो महान वाकाटक सत्ता को खदेड़ना चाहता था – नितांत असंभव ही तो था।  

क्या उन्होंने दिवास्वप्न देखा था? स्कंदवर्मन एक कुशल योजनाकार थे; अद्भुत संगठन क्षमता थी उनमें।  वे स्वयं घर घर पहुँचने लगे। उनका चित्ताकर्षक व्यक्तित्व और प्रखर वक्ता होना शनै:-शनै: कार्य करने लगा। राजधानी से दूर महाकांतार की सीमाओं में रह रही प्रजा को सैन्य-प्रशिक्षण दिया जाने लगा। बीस सैनिकों की संख्या दो सौ में बदली। दो सौ सैनिकों की संख्या दो हजार तक पहुँची और दिन प्रति दिन नागरिक जुटते रहे। वाकाटक राजाओं को कमजोर करने का कार्य उनकी जन-विरोधी नीतियों नें भी स्वत: कर दिया था। वाकाटकों से असंतुष्ट धनाड्यों ने चुप-चाप स्कंदवर्मन तक आर्थिक मदद भी पहुँचायी। पहले छापामार शैली में छुट-पुट आक्रमण किये गये। छोटी छोटी जीत, शस्त्रों और सामंतों के पास संग्रहित करों की लूट से प्रारंभ हुआ अभियान अब स्वरूप लेने लगा। वाकाटकों के आधीन अनेकों सामंतो ने अवसर को भांपते हुए अपनी प्रतिबद्धता बदल ली। महाकांतार के आधे से अधिक भाग से पृथ्वीषेण खदेड़ दिये गये, नल-त्रिपताका का गौरव लौटने लगा। इधर राजा पृथ्वीषेण की मृत्यु के पश्चात वाकाटक और भी कमजोर हुए थे; ज्येष्ठ पुत्र देवसेन नें महाकांतार की सत्ता संभाल ली थी। 

अपनी ओर बढते हुए खतरे को भाँप कर नन्दिवर्धन किले को सुरक्षित करने में स्वयं राजा देवसेन ने रुचि ली; किंतु चिड़िया के खेत चुगने के बाद। स्कंदवर्मन के हाँथियों ने नन्दिवर्धन किले के मुख्यद्वार को धकेलना आरंभ किया ही था कि राजधानी को साँप सूंघ गया। देवसेन के लिये यह समझ पाना ही कठिन हो रहा लगा था कि कैसे इतने अल्पकाल में नल पुन: शक्तिशाली हो गये हैं। मुख्य द्वार तोड़ दिया गया। पैदल सैनिक शोर करते हुए किले के भीतर घुस आये। पीछे पीछे घुड़सवार सैनिकों ने मोर्चा संभाला हुआ था। तभी महल के उपर ‘श्वेत-ध्वज’ लगा दिया गया। सुसज्जित हाँथी पर लगे स्वर्ण हौदे पर आसीन हो कर स्कंदवर्मन ने नन्दिवर्धन किले के भीतर प्रवेश किया। देवसेन को उसी शैली में  निर्वासित कर दिया गया जैसा हश्र कभी अर्थपति भट्टारक का हुआ था। अपने पुत्र हरिषेण और कुछ विश्वासपात्र साथियों के साथ वे कोशल की ओर भाग गये।    

यह घटना प्राचीन अवश्य है किंतु इसकी प्रासंगिकता में लेशमात्र भी कमी नहीं आयी है। जनता उसी के साथ खडी होती है जो स्वयं जमीन से आ कर जुडे। यही किसी आन्दोलन का प्राचीनतम स्वरूप है तथा एसे ही आज भी संघर्ष होते हैं। इस उदाहरण का यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिये कि उसी महाकांतार क्षेत्र में आज जारी माओवादी आतंकवाद को जन-संघर्ष कह दिया जाये। हमे यह समझना चाहिये कि क्रांतिकारी कनपट्टी पर बन्दूक धर दिये जाने से पैदा नहीं होते। क्रांति का अंतिम लक्ष्य भले ही वैश्विक हो तथापि वह अपने नितांत क्षेत्रीय व लौकिक कारणों की उपलब्धता के बाद ही किसी क्षेत्र में पनप सकती है। स्कंदवर्मन एक जननायक इस लिये थे क्योंकि वे जुडना जानते थे जिसके लिये आम जन की निजता, उनके सरोकारों, उनकी मान्यताओं, उनकी परम्पराओं की हत्या करने की आवश्यकता नहीं है जैसा कि वर्तमान में माओवादी कर रहे हैं। एक जननायक को एक आम आदिवासी का वैसे ही बन जाने की आवश्यकता है जैसे कि वे स्वयं हैं। कंधे पर बंदूख की बट मार मार कर लाये जाने वाले बदलाव कभी शास्वत नहीं हो सकते अपितु इससे एक भटका हुआ समाज जन्म लेगा जो अपनी जडों से बलात काट दिये जाने के कारण नितांत अदूरदर्शी और घातक हो सकता है। बस्तर में स्कंदवर्मन को पहला जन नायक कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी तथा वाकाटकों को महाकांतार अर्थात प्राचीन बस्तर क्षेत्र से खदेडने को पहली सफल क्रांति भी कहा जा सकता है। यह भी उल्लेखनीय है कि नल राजाओं का शासनकाल जन-प्रियता तथा स्थिरता के लिये जाना जाता है चूंकि उनमें जमीन से जुडे होने की दक्षता विद्यमान थी। 

1 comment:

Anonymous said...

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