Friday, December 28, 2012

बस्तर, बारसूर और गंग-राजवंश – बिखरी कडियाँ।


किसी समय ओड़िशा के जगन्नाथपुरी क्षेत्र के राजा गंगवंशीय थे। राजा की छ: संतानें उनकी व्याहता रानियों से थी तथा एक पुत्र दासी से उत्पन्न था। अनेक घटनायें अतीत के पन्नों में दर्ज है जहाँ राजा प्रेम अथवा वासना में इस तरह डूबा रहा करता कि अंतत: गणिकाओं, दासियों तथा नगरवधुओं नें उनसे अपनी मनमानियाँ करवायी हैं तथा सत्ता पर अपने परिजनों अथवा पुत्र को अधिकार दिलाने में सफल हो गयी हैं। इस गंगवंशीय राजा नें भी यही किया तथा दासी पुत्र सत्ता का अधिकारी बना दिया गया। छ: राजकुमार राज्य के बाहर खदेड दिये गये। इनमें से एक राजकुमार नें अपने साथियों के साथ किसी तत्कालीन शक्तिहीन हो रहे नल-राजाओं के गढ महाकांतार के एक कोने में सेन्ध लगा दी तथा वहाँ बाल-सूर्य नगर (वर्तमान बारसूर) की स्थापना की।

यह कथा तिथियों के अभाव में इतिहास का हिस्सा कहे जाने की अपेक्षा जनश्रुतियों की श्रेणी में ही वर्गीकृत रहेगी। पं. केदारनाथ ठाकुर (1908) नें अपनी किताब “बस्तर भूषण (1908)” में इस घटना का इतिहासिक तथ्य की तरह वर्णन किया है। इसे बस्तर के इतिहास की शून्यता में कई स्थानों/तिथियों में जोडने की गुंजाईश दिखती है। पहली संभावना बनती है नल राजा स्कंदवर्मन (475-500 ई.)की मृत्यु के बाद; चूंकि इसके पश्चात लम्बे समय तक नल शासन का उल्लेख प्राचीन बस्तर के अब तक उपलब्ध एतिहासिक प्रमाणों से प्राप्त नहीं होता। प्राय: शक्तिशाली राजाओं की संततियाँ विरासत को संभाल पाने में नाकाबिल साबित होती रही हैं। अत: हो सकता है कि  इसी समय वाकाटकों नें पुन: नलों को परास्त किया हो। यह संभावना है कि वाकाटक नरेश हरिषेण नें स्कंदवर्मन के पश्चात के शासको को परास्त कर राज्य विस्तार किया होगा। इसी समय में पूर्वी गंग नाम के एक राजवंश के शक्तिशाली हो कर उदित होने की जानकारी भी प्राप्त होती है। यह विश्वास किया जा सकता है कि वाकाटक नरेश हरिषेण की आधीनता में ही पूर्वी गंग त्रिकलिंग के शासक बने तथा वे वाकाटकों व आन्ध्र के शासकों के बीच प्रतिरोधक का कार्य करते रहे।

प्राचीन बस्तर पर शासन करने वाले गंग राजाओं नें स्वयं को त्रिकलिंगाधिपति कहा है अत: यह समझना आवश्यक हो जाता है कि यह प्राचीन भूगोल में किस क्षेत्र का परिचायक है। त्रिकलिंग का उल्लेख पहले-पहल ग्रीक-यूनानी लेखकों की इतिहास लेखन के उद्देश्य से रची गयी कृतियों में मिलता है। ग्रीक लेखक प्लीनी नें कलिंग को गंगरिदेसकलिंगे, मक्को कलिंगे एवं कलिंग नामक तीन उपविभागों में बाँटा है। पूर्वीगंगों के ताम्रपत्रों में उन्हें त्रिलिंगाधिपति घोषित किये जाने का अनेको बार उल्लेख मिलता है। त्रिकलिंग एवं कलिंग पर गंग राजाओं के आधिपत्य का विवरण वज्रहस्त पंचम, राजराज प्रथम एवं चोडगंग के ताम्रपत्रों में मिलता है। चोड़गंग के ताम्रपत्र एक कथा की ओर इशारा करते हैं कि गंग राजाओं की वंशावली राजा कामार्ण्णव से प्रारंभ होती है जिन्होंने अपने चार भाईयों की सहायता से एक नये राज्य की स्थापना की जिसे त्रिकलिंग कहा गया। दानपत्रों के उल्लेख त्रिकलिंग को कलिंग के पश्चिम में अवस्थित सिद्ध करते हैं। त्रिकलिंग क्षेत्र की व्याख्या अनेक इतिहासकार/विद्वानों नें अपने अपने तरह से की है। कुछ इतिहासकार इसे तीन राज्यों का सम्मिलित क्षेत्र मानते हैं जैसा कि कनिंघम का मंतव्य है जिनके अनुसार धनकट, अमरावती व आन्ध्र मिला कर त्रिकलिंग बनते हैं। फ्लीट त्रिकलिंग को गंगा के मिहाने तक प्रसारित मानते हैं जबकि कीलहार्न प्राचीन तेलंगाना को  ही त्रिकलिंग मानते हैं। डीसी गाँगुली त्रिकलिंग के अंतर्गत उत्तरी कलिंग (गंजाम); दक्षिणी कलिंग (गोदावरी क्षेत्र) तथा मध्य कलिंग (विशाखापट्टनम) मानते हैं। शक संवत 1280 के श्रीरंगम ताम्रपत्र के अनुसार त्रिकलिंग के पश्चिम में महाराष्ट्र, पूर्व में कलिंग, दक्षिण में पाण्डय देश एवं उत्तर में कान्यकुब्ज हैं – “पश्चात पुरस्तादपि यस्य देशौ ख्यातौ महाराष्ट्रकलिंगसंज्ञो:। आर्वादुदक पाण्ड्यकान्यकुब्जौ देशो स्मतत्रापि तिलिंगनामा”। उपरोक्त विवरणो से त्रिकलिंग के पृथक व एक स्वतंत्र राज्य होने का उल्लेख बनता है जिसे गंग राजाओं नें बसाया होगा तथा यह प्राचीन बस्तर की कुछ भूमि समेत कोरापुट व कालाहाण्डी क्षेत्रों के लिये संयुक्त रूप से प्रयोग में लाया जाने वाला नाम रहा होगा। इस सत्य की सबसे अधिक ठोस रूप में पुष्टि ओडिशा म्यूजियम, भुवनेश्वर में संरक्षित रखे ब्रम्हाण्डपुराण के ताडपत्र से होती है जिसमे एक श्लोक त्रिकलिंग क्षेत्र की स्पष्ट जानकारी प्रदान करता है। इस श्लोक का अंतिम शब्द ताडपत्र में अस्पष्ट है तथापि इसके अनुसार झंझावती से वेदवती नदी के मध्य का क्षेत्र त्रिकलिंग है जबकि इससे लग कर अर्थात झंझावती से ऋषिकुल्या तक का क्षेत्र कलिंग है – अषिकुल्यां समासाद्य यावत झंझावती नदी, कलिंग देशख्यातो देशाना गर्हितस्तदा। झंझावतीं सभासद्य यावद वेदवती नदी, त्रिकलिंगड़गीति ख्यातो...”। झंझावती, नागवल्ली नदी की सहायक सरिता है जबकि वेदवती इन्द्रावती का उपनाम। अत: विवादों को दृष्टिगत रखते हुए भी इस समहति पर पहुँचना होगा कि प्राचीन बस्तर क्षेत्र पर पूर्वीगंग वंश का शासन 498 – 702 ई. के मध्य रहा होगा।

गंगवंश का प्रथम ज्ञात राजा इन्द्रवर्मन है जिसने अपने जिरजिंगी दानपत्र (537 ई.) में स्वयं को त्रिलिंगाधिपति कहा है। इसका राज्य क्षेत्र समुद्रतट तक विस्तृत बताया जाता है। दूसरा गंग राजा सामंतवर्मन था जिनका पोन्नुतुरू दानपत्र भी उन्हें त्रिलिंगाधिपति घोषित करता है। सामंतवर्मन की राजधानी सौम्यवन थी जिसे वर्तमान श्रीकाकुलम जिले में वंशधारानदी के तट पर अवस्थित माना जाता है। सामंतवर्धन के पश्चात राजा हस्तिवर्मन का उल्लेख नरसिंहपल्ली ताम्रपत्र तथा उरलाम दानपत्र से प्राप्त होता है। हस्तिवर्मन द्वारा त्रिलिंगाधिपति के स्थान पर सकलकलिंगाधिपात उपाधि धारण करने का उल्लेख मिलता है तथा उनके द्वारा कलिंगनगर को राजधानी बनाया गया था। हस्तिवर्मन का उत्तराधिकारी इन्द्रवर्मन द्वितीय था जिसके समय में त्रिकलिंग के दक्षिणी क्षेत्रों पर चालुक्य राजा पुलकेशिन द्वितिय नें अधिकार कर लिया था। इसके पश्चात गंगवंशीय राजा इन्द्रवर्मन तृतीय का उल्लेख मिलता है जिसने 632 ई. में तेकाली पत्र जारी किया था। एक अन्य अभिलेख में देवेन्द्रवर्मन का चिकाकोल पत्र (681 ई.) प्राप्त हुआ है। गंगवंशीय अंतिम प्राप्त अभिलेख है देवेन्द्रवर्मन के पुत्र अनन्तवर्मन का धर्मलिंगेश्वर दानपत्र (702 ई.) जिसके पश्चात इस राजवंश का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है

दुर्गमतम क्षेत्र होने के कारण प्राचीन बस्तर के इतिहास को एक क्रम में देखने से कई समस्यायें आ जाती है। हम काल निर्धारण करते हुए पूरी तरह आश्वस्त नहीं रह सकते तथापि यह मान सकते हैं कि स्कन्दवर्मन के पश्चात  नल वंश का महाकांतार में पतन होने लगा; अत बिना किसी बड़े प्रतिरोध के गंग राजवंश जो कि दण्ड़क वन क्षेत्र में “बाल सूर्य” (वर्तमान बारसूर) नगर और उसके निकटवर्ती क्षेत्रों में सीमित था अब महाकांतार क्षेत्र का वास्तविक शासक बन गया। इस राजवंश की शासन-प्रणाली तथा राजा-जन संबंधों पर बात करने के लिये समुचित प्रमाण, ताम्रपत्र अथवा शिलालेख उपलब्ध नहीं हैं तथापि गंग राजाओं का स्थान बस्तर की स्थापत्य कला की दृष्टि से अमर हो गया है। बालसूर्य नगर की स्थापना के पश्चात गंग राजाओं नें अनेकों विद्वानों तथा कारीगरों को आमंत्रित किया जिन्होंने राजधानी में एक सौ सैंतालीस मंदिर तथा अनेकों मंदिर, तालाबों का निर्माण किया। गंगमालूर गाँव से जुडा “गंग” शब्द तथा यहाँ बिखरी तद्युगीन पुरातत्व के महत्व की संपदाये गंग-राजवंश के समय की भवन निर्माण कला एवं मूर्तिकला की बानगी प्रस्तुत करती हैं। बारसूर मेंअवस्थित प्रसिद्ध मामा भांजा मंदिर गंग राजाओं द्वारा ही निर्मित है। कहते हैं कि राजा का भांजा उत्कल देश से कारीगरों को बुलवा कर इस मंदिर को बनवा रहा था। मंदिर की सुन्दरता ने राजा के मन में जलन की भावना भर दी। इस मंदिर के स्वामित्व को ले कर मामा-भांजा में युद्ध हुआ। मामा को जान से हाँथ धोना पड़ा। भाँजे ने पत्थर से मामा का सिर बनवा कर मंदिर में रखवा दिया फिर भीतर अपनी मूर्ति भी लगवा दी थी। आज भी यह मंदिर अपेक्षाकृत अच्छी हालत में संरक्षित है। आज का बारसूर ग्राम अपने खंड़हरों को सजोए अतीत की ओर झांकता प्रतीत होता है।

बारसूर नगर के एतिहासिक अतीत को देखते हुए उसके संरक्षण के लिये किये जाने वाले कार्यों की सराहना करनी होगी। अभी जो प्रयास हुए हैं उनके तहत कुच प्राचीनमंदिर व भव्य प्रतिमायें अगली पीढी के लिये बचा ली गयी हैं तथापि बहुत कुछ किया जाना अभी शेष है। यह नगर इतिहासकारों व पुरातत्वविदों की समग्रदृष्टि तथा विषद शोध की माँग करता है तभी हम गंग वंशीय अतीत पर प्रामाणिकता से कुछ कहने की स्थिति में होंगे। बारसूर वैसे भी प्राचीन मंदिरों व भग्नावशेषों से पटी पडी नगरी है जो स्वयं को पढे और पुन: गढे जाने की राह तक रही है।

1 comment:

sharad Chandra Gaur said...

राजीव जी आपने बहुत ही सारगर्भित आलेख है लिखा है , आप का बस्तर के इतिहास पर गहन अध्ययन एवं शोध है, गंगवंष का शासन बस्तर या महाकांतार पर कम ही समय रहा किंतु वास्तुकला की दिृष्टि से यह बस्तर का स्वर्णयुग कहा जा सकता है, इसका प्रमाण आज भी बारसूर के प्राचीन मंदिरों एवं खण्डरों के रूप में हमें देखने को मिलता है......अच्छे आलेख के लिए बधाई....