Friday, December 07, 2012

क्या बस्तर के ‘नल वंशीय शासक’ मूलत: आदिवासी थे?

सांध्य दैनिक ट्रू-सोल्जर में दिनांक 6.12.12 को प्रकाशित 

महाभारत के ‘नलोपाख्यान’ में नल-दमयंती की अतयंत रोचक प्रेम-कहानी वर्णित है। यही कथा महाकांतार क्षेत्र से नलों का सम्बन्ध जोडने की एकमात्र कडी प्रतीत होती है। विदर्भ देश के राजा भीम की पुत्री दमयंती और निषध के राजा वीरसेन के पुत्र नल दोनों ही अति सुंदर थे तथा एक दूसरे की प्रशंसा सुनकर बिना देखे ही परस्पर प्रेम करने लगे। विवाहेच्छुक इन्द्र, वरुण, अग्नि तथा यम दमयंती के स्वंवर में पहुचे तथा प्रेमकहानी ज्ञात होने के कारण वे सभी नल का रूप धारण कर ही आये थे। प्रेम को सही प्रेमी की पहचान स्वत: हो जाती है तथा इसके बाद नल-दमयंती का मिलन हो जाता है। इसी बीच नल अपने भाई पुष्कर से जुए में अपना सब कुछ हार जाता है। दोनों प्रेमी-दम्पति बिछुड़ जाते है; दमयंती चेदि देश के राजा सुबाहु की पत्नि की सैरन्ध्री बन कर कुछ समय व्यतीत करती है, किंतु फिर अनेक कष्टों से गुजर कर अपने पैत्रिक परिवार में पहुंच जाती है। इस बीच नल का संघर्ष जारी है तथा उसे कर्कोटक नामक के सांप नें डस लिया था जिससे कि उसका रंग काला पड़ गया था। दोनो प्रेमी विरहातुर हैं, मिलना चाहते हैं; लेकिन एक दूसरे को बेहतर जीवन देने की चाहत है इस लिये नल यह जान कर भी दमयंति से नहीं मिलते कि वह कहाँ है। दमयंति के पिता इस प्रेम के मर्म को जानते हैं अत: नल को ढूंढने की युक्ति लगाई जाती है; वे दमयंती के स्वयंवर की घोषणा करते हैं। कश्मकश तथा संघर्ष का अंत होता है जब नल-दमयंती का पुन: मिलन होता है। कथा सुखांत है तथा इसके अंत में अपने सौतेले भाई पुष्कर से पुनः जुआ खेलकर नल अपना खोया हुआ राज्य-सम्पदा पुन: प्राप्त कर लेते हैं। विस्तार से पढने योग्य यह कथा अत्यधिक रोचक है जिसमें स्थान स्थान पर प्रेम के लिये किये जाने वाले संघर्ष तथा बलिदान तथा विश्वास की पराकाष्ठा प्रतीत होती है। 

कहा जाता है कि इसी नल राजा के वंशजों नें नल साम्राज्य की नींव रखी थी। शतपथ ब्राम्हण में ‘नल नैषध’ का उल्लेख है। यह एक एसा राजा प्रतीत होता है जिसकी तुलना मृत्यु के देवता यम से की गयी है। पाणिनी नें अष्टाध्यायी में निषध राज्य का उल्लेख किया है जिसे विदर्भ से लगा हुआ बताया गया है। इसके अलावा संस्कृत का प्रसिद्ध महाकाव्य श्रीहर्षकृत ‘नैषधीयचरित’ तथा त्रिविक्रम भट्ट की कृति ‘नलचम्पू’ आदि के साथ साथ नल राजाओं का विवरण वाण की ‘कादम्बरी’ एवं सोमदेव के ‘कथासरित्सागर’ में भी प्राप्त होता है। रामायण में उल्लेख है – नैषणं दमयंतीव भैमी पतिमनुव्रता। तथाहमिक्ष्वाकुवरं रामं पतिमनुव्रता (सुन्दरकाण्ड सर्ग 24; 9.13)॥ इस श्लोक में उल्लेख है कि सीता अपने पतिव्रत की तुलना दमयंती से करती हैं। इन पौराणिक आख्यानों व उद्धरणों का सम्बन्ध भारत के किस क्षेत्र से रहा है यह जानना आवश्यक हो जाता है। पाणिनी के विदर्भ से लगा क्षेत्र नल-राज्य की सीमा अथवा दिशा प्रदान नहीं करता। विष्णु पुराण के अनुसार विन्ध्य तथा पयोष्णि के पास निषध का होना माना जाता है लेकिन यह जानकारी भी उचित उत्तर प्रदान नहीं करती। महाभारत में निषध की राजधानी ‘गिरिप्रस्थ’ बतायी गयी है इस आधार पर उपरोक्त सभी सम्मितियों को जोड कर इतिहासकार डॉ हीरालाल शुक्ल नैषध को ‘महाकांतार’ अथवा ‘महावन’ के साथ जोड कर देखते हैं जो कि प्राचीन बस्तर का क्षेत्र है। इस क्षेत्र में अनेक नाम नल से जुडे हुए हैं जैसे - नलमपल्ली, नलगोंडा, नलवाड़, नलपावण्ड, नड़पल्ली, नीलवाया, नेलाकांकेर, नेलचेर, नेलसागर आदि। शास्त्रों में उल्लेख है कि कर्कोटक नाम के सर्प नें नल को डसा था; बस्तर में ककोटिक और इससे मिलते कई गाँव हैं। इतना ही नहीं बस्तर की प्राण सरिता इन्द्रावती का नाम-साम्य नल-दम्यंति के पुत्र-पुत्री इन्द्रसेना व इन्द्रसेन से मिलता है। 

बस्तर में नलवंश के राजाओं का ज्ञान हमें साहित्यिक, अभिलेखीय तथा मौद्रिक साधनों से ज्ञात होता है। नलों के अभिलेख तीन ताम्रपत्रों, दो शिलालेखों, समुद्र गुप्त का प्रयाग स्तम्भ लेख, प्रभावती गुप्त का दानपत्र, चालुक्य राजा पुलेकिशन द्वितिय का ऐहोल अभिलेख, पल्लव मल्ल नन्दिवर्धन का उदयेन्दिरम ताम्रपत्र तथा नल राजाओं के सिक्के; इस काल का इतिहास जानने के प्रमुख साधन हैं। नलवंश की कमजोरियों का यदा-कदा लाभ सीमावर्ती शासकों ने भी उठाया तथा वेंगी के राजा का भी बस्तर पर आक्रमण हुआ था। उसका कवि बिल्हण अपने काव्यग्रंथ “बिक्रमांक देव चरितम” में बस्तर का उल्लेख कई बार करता है। इन सब के दृष्टिगत भी नल वंश के शासक और उनके बस्तर आगमन व शासन का समय विवादित रहा है (प्राचीन छत्तीसगढ, प्यारेलाल गुप्त, पृ-227)। दण्डकारण्य अंचल तथा छत्तीसगढ के दुर्ग में नलवंशीय शासकों के सिक्के व शिलालेख मिले हैं। अत: इतना निष्कर्ष तो सहज निकाला जा सकता है कि नलों को प्रसिद्धि इसी अंचल से प्राप्त हुई (मध्यप्रदेश के पुरातत्व का संदर्भ ग्रंथ, पृष्ठ 389)। पाँचवी से ले कर आठवी शताब्दी तक नलवंशीय शासक बस्तर तथा दक्षिण कोसल के भूभाग पर राज करते रहे (मध्यप्रदेश के पुरातत्व का संदर्भ ग्रंथ, पृष्ठ 47)। इन संदर्भों के साथ यह प्रश्न उठना भी स्वाभाविक है कि क्या बस्तर के वे नल शासक जिन्होंने लगभग 300-925 ई. तक इन अरण्य क्षेत्रों में शासन किया वे ही ‘नलों’ के वास्तविक उत्तराधिकारी थे? स्वयं नल शासक तो यही मानते थे एवं अपने प्रत्येक अभिलेख मे स्वयं को नलान्वय लिखवाते रहे हैं; प्राप्त शिलालेखों, स्वर्णमुद्राओं तथा ताम्रपत्रों से कुछ एसे ही तथ्य प्रकाश में आये हैं (कलचुरी नरेश और उनका काल पृ 3)। वायुपुराण तथा ब्रम्हाण्ड पुराण से ज्ञात होता है कि नल के वंशज कोसल पर शासन करते थे। ईसा की चैथी शताब्दि से ले कर ग्यारहवी शताब्दी तके के जो आलेख प्राप्त हुए हैं उनमें ‘नलवंश प्रस्तुत’, ’नलवंश कुलांवय’ आदि उल्लेखों के आधार पर इन शासकों को नलवंशी मानने में कोई संदेह नहीं है (बस्तर का राजनैतिक व सांस्कृतिक इतिहास, पृ 15)। 

तथापि बडा प्रश्न यह है कि राजा नल स्वयं तो इक्ष्वाकुवंशीय थे तो यह नल राजवंश पृथक अस्तित्व में कैसे आया एवं इन्हें भी इक्ष्वाकु क्यों नहीं कहा गया? एक समस्या यह भी सामने आती है कि अतीत में अनेक छोटे-बडे राजवंशों नें अपने कुल को महिमामण्डित करने के लिये कभी अपना सम्बन्ध पाण्डवों से जोडा है तो कभी प्राचीन शास्त्रों के किसी चर्चित चरित्र से। क्या एसा ही कोई प्रयास तो बस्तर शासित नलों नें नहीं किया तथा अपनी आरंभिक अवस्था में वे आंचलिक व आदिवासी ही रहे हों? यह संभावना डॉ. हीरालाल शुक्ल भी व्यक्त करते हैं कि नल प्रकृतिपूजक वनवासी रहे होंगे? डॉ. शुक्ल का कथन है कि नल तृणविशेष (शादूलं हरितं प्रोक्तं नड्वलं नलसंयुक्तम – हलायुध कोष में वर्णित) अथवा वृक्षविशेष (नल: पोटगल: शून्यमध्यश्च छमनस्थता। नलस्तु मधुरस्तिक्त: कषाय: कफरक्तजित् – भावप्रकाश में वर्णित) का नाम है एवं बस्तर के नल कहे जाने वाले राजाओं में यह व्याघ्रराज एवं वाराहराज तक प्रतीक चिन्ह रहा होगा एवं इसके बाद के राजाओं तक आते आते पौराणिक यशगाथा से प्रभावित राजा नल ही प्रतीक व वंशक्रम के आदिपुरुष मान लिये गये होंगे। यह संभावना लगती है कि बस्तर के नल आरंभ में वाकाटक राजाओं के आधीन माण्डलिक राजा रहे होंगे किंतु शक्ति संचय के पश्चात वे एक विस्तृत राज्य के अधिकारी बने। प्रतीत होता है कि इसी समय वे अपना आदिवासी आवरण हटा कर आर्य संस्कृति की उस रौ में बह निकले होंगे जिसका कि गुप्त काल और इसके पश्चात तेजी से बढता प्रभाव बस्तर अंचल पर भी पडा था। इतिहास के इतने पुराने कालखण्ड की चर्चा करते हुए एसी कई संभावनाओं को टटोलना आवश्यक हो जाता है। 

महाकांतार (प्राचीन बस्तर) क्षेत्र पर नलवंश के राजा व्याघ्रराज (350-400 ई.) की सत्ता का उल्लेख समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशास्ति से मिलता है। व्याघ्रराज का समय दण्ड़क क्षेत्र पर गुप्त राजवंश के साम्राज्यवादी सम्राट समुद्रगुप्त के आक्रमण के लिये जाना जाता है। यह आश्चर्य का विषय है कि समुद्रगुप्त ने महाकांतार को साम्राज्य का हिस्सा बनाये जाने के स्थान पर नल-राजा व्याघ्रराज को अपनी छत्र-छाया में शासन करने की स्वतंत्रता दी। व्याघ्रराज के बाद वाराहराज (400-440 ई.) महाकांतार क्षेत्र के राजा हुए। वाराहराज ने अपने वन-राज्य में स्वर्णमुद्रायें प्रचलित की जिनमें ‘श्रीवाराहराजस्य’ लिखा गया तथा नंदी अंकित था। एसे 29 सोने के सिक्के एडेंगा से प्राप्त हुए हैं। वाराहराज का शासनकाल वाकाटकों से जूझता हुआ ही गुजरा। राजा नरेन्द्र सेन ने उन्हें अपनी तलवार को म्यान में रखने के कम ही मौके दिये। वाकाटकों ने इसी दौरान नलों पर एक बड़ी विजय हासिल करते हुए महाकांतार का कुछ क्षेत्र अपने अधिकार में ले लिया था। भवदत्त वर्मन (400-440 ई.) ने अपने पिता वाराहराज से मिली सत्ता को प्रसार और सम्पन्नता दी। राज्य की अर्थव्यवस्था ‘श्रीभवदत्तराजस्य’ अंकित स्वर्णमुद्राओं से संचालित होती थी। उनके द्वारा वर्ष 445 ई. के लगभग वाकाटक नरेश नरेन्द्रसेन पराजित हुए, उनकी राजधानी नंदीवर्धन पर भी अधिकार कर लिया गया था। अब महाकांतार से कोशल तक तथा कोरापुट से बरार तक के क्षेत्र पर नंद-त्रिपताका लहराने लगी। भवदत्त वर्मन के देहावसान के बाद अर्थपति भट्टारक (460-475 ई.) राजसिंहासन पर बैठे। अर्थपति एक दानी शासक थे। उनके केसरिबेडा ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि उन्होंने कौत्स गोत्रीय ब्राम्हण दुर्गार्य, रविरार्य तथा रविदत्तार्य को केसेलक गाँव दान में दिया था। अडेंगा में ‘श्री अर्थपति राजस्य’ अंकित दो स्वर्ण मुद्रायें भी प्राप्त हुई हैं। इस समय तक नलों की स्थिति क्षीण होने लगी थी जिसका लाभ उठाते हुए वाकाटक नरेश नरेन्द्रसेन नें पुन: महाकांतार क्षेत्र के बडे हिस्सों पर पाँव जमा लिये। नरेन्द्र सेन के पश्चात उसके पुत्र पृथ्वीषेण द्वितीय (460-480 ई.) नें भी नलों के साथ संघर्ष जारी रखा। अर्थपति भटटारक को नन्दिवर्धन छोडना पडा तथा वह नलों की पुरानी राजधानी पुष्करी लौट आया। पुष्करी के भी अर्थपति के शासनकाल में ही वाकाटकों द्वारा तहस नहस किये जाने के उल्लेख प्राप्त होते हैं। अर्थपति की मृत्यु के पश्चात नलों को कडे संघर्ष से गुजरना पडा जिसकी कमान संभाली उनके भाई स्कंदवर्मन (475-500 ई.) नें जिसे विरासत में एक लुटी हुई सियासत प्राप्त हुई थी। उन्होंने शक्ति संचय किया तथा तत्कालीन वाकाटक शासक पृथ्वीषेण द्वितीय को परास्त कर नल शासन में पुन: प्राण प्रतिष्ठा की। पोड़ागढ का प्रस्तराभिलेख भी स्पष्ट करता है कि स्कंदवर्मन ने नष्ट पुष्करी नगर को पुन: बसारा – “नृपतेर्भवदत्तस्य सत्पुत्रेगान्यान्य संथिताम भ्रष्टामाकृष्य राजर्द्धि शून्यमावास्य पुष्करीयम”। अल्पकाल में ही जो शक्ति व सामर्थ स्कन्दवर्मन नें एकत्रित कर लिया था उसने वाकाटकों के अस्तित्व को ही लगभग मिटा कर रख दिया। उसके समकालीन वाकाटक नरेश देवसेन की विलासिता नें भी स्कन्दवर्मन के साम्राज्य विस्तार में महति भूमिका अदा की थी। यद्यपि स्कंदवर्मा की मृत्यु के पश्चात महाकांतार में नल शासन की अवस्थिति तथा दशा दिशा पर बहुत जानकारियाँ उपलब्ध नहीं हैं। उनके पश्चात के शासकों के नाम व शासनावधि की समुचित जानकारी निकाल पाने में अभी इतिहासकार सफल नहीं हुए हैं। यह प्रतीत होता है कि वाकाटकों नें पुन: नलों को परास्त किया हो। संभावना है कि वाकाटक नरेश हरिषेण नें स्कंदवर्मन के पश्चात के शासको को परास्त कर राज्य विस्तार किया होगा। इसी समय में पूर्वी गंग नाम के एक राजवंश के शक्तिशाली हो कर उदित होने की जानकारी भी प्राप्त होती है। यह विश्वास किया जा सकता है कि वाकाटक नरेश हरिषेण की आधीनता में ही पूर्वी गंग त्रिकलिंग के शासक बने तथा वे वाकाटकों व आन्ध्र के शासकों के बीच प्रतिरोधक का कार्य करते रहे। एक चालुक्य नरेश कीर्तिवर्मन (567-597 ई)  के इस मध्य नलों पर आक्रमण किये जाने के कुछ प्रमाण मिलते हैं जो बताते हैं कि सिमट जाने के बाद भी बस्तर और कोरापुट के कुछ क्षेत्रों पर नलों की पकड बनी ही रही थी। चालुक्य राजा विक्रमादित्य प्रथम (655-788 ई.) के अभिलेख से भी नल शासित क्षेत्रों पर उनके प्रभाव की जानकारी मिलती है। इस उतारचढाव वाले दौर से भी एक तथ्य स्पष्टता से बाहर आता है कि भले ही चालुक्यों का महाकांतार क्षेत्र पर 788 ई. तक बहुत या कम प्रभाव प्रतीत होता है किंतु चालुक्य राजा पुलकेशिन द्वितीय की मृत्यु के पश्चात नल पुन: शक्तिशाली हो उठे और पृथ्वी राज (634-675 ई.) नें महाकांतार में अपने शत्रुओं चालुक्यों तथा पल्ल्वों को परास्त कर नल साम्राज्य को पुन: संगठित किया। अब राजधानी को श्रीपुर (आधुनिक सिरपुर) ले जाया गया। इसके पश्चात विरूपराज (675-700 ई.) का समय अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण प्रतीत होता है। विरूपराज नें राजाधिराज की उपाधि ग्रहण की थी। उनके पश्चात विलासतुंग (700-740 ई.) नें राज्यभार ग्रहण किया। उनके द्वारा उत्कीर्ण राजिम अभिलेख से यह ज्ञात होता है कि उन्होंने अपने स्वर्गीय पुत्र की स्मृति तथा उसके पुण्यलाभ के लिये एक विष्णु मंदिर का निर्माण करवाया था। विलासतुंग नें अपने समय में महनदी तथा तेल नदी के तटवर्ती क्षेत्रों पर अधिकार कर राज्य विस्तार किया। उनके पुत्र पृथ्वीव्याघ्र (740-765 ई.) नें राज्य विस्तार करते हुए नेल्लोर क्षेत्र के तटीय क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था। यह उल्लेख मिलता है कि उन्होंनें अपने समय में अश्वमेध यज्ञ भी किया। पृथ्वीव्याघ्र के पश्चात के शासक कौन थे इस पर अभी इतिहास का मौन नहीं टूट सका है। इसके लगभग डेढ सौ साल के पश्चात पुन: एक नलवंशी शासक भीमसेन (लगभग 900 – 925 ई.) का पता चलता है जिसने गंजाम-कोरापुट क्षेत्र में एक ताम्रपत्र प्रचरित किया था। इस उल्लेख से डेढ सौ साल की खामोशी को पढने की यही संभावना हाँथ लगती है कि सोमवंशियों ने नलों को इस अवधि में गंजाम की ओर धकेल दिया होगा। तथापि भीमसेन द्वारा धारण की गयी उपाधियाँ जैसे परममाहेश्वर, महाराजाधिराज आदि इस दौर का उसे शक्तिशाली शासक निरूपित करती हैं। नलवंश का इतिहास भीमसेन के पश्चात अप्राप्त है; यह संभावना है कि धीरे धीरे नल वंश का महाकांतार में पतन होने लगा। 

नल शासन व्यवस्था के आधीन कई माण्डलिक राजा थे। अतिशयोक्ति नहीं है कि दीर्घकाल तक नल-राजवंश ने महाकांतार क्षेत्र को स्थिर शासन प्रदान किया। मंदाकिनि तथा गोदावरी नदियों ने यात्रिपथ को दक्षिण के वेंगी राज्य से सम्बद्ध कर दिया था, जिससे कि वाणिज्य का विकास हुआ। यह संस्क़ृत-भाषी दण्ड़क वनवासियों का युग था; नल युग में शिक्षा और साहित्य समृद्ध हुआ। प्रशासनिक व्यवस्था में ग्रामीण भागीदारी को समुचित महत्व दिया गया था। किंतु शनै:-शनै: राजा लड़-झगड़ कर मोहताज हो गये। राज्य में सोने की मुद्राओं का स्थान रौप्य अथवा चाँदी की मुद्राओं ने ले लिया। पहले शांति का, फिर समृद्धि का और अंतत: लगभग बारहवी शताब्दि तक नल वंश का महाकांतार से पूरी तरह ह्रास हो गया।  

2 comments:

Gyanesh kumar varshney said...

वाह वास्तव में एतिहासिक तथ्यों से भरपूर यह पोस्ट वड़ी ही सुन्दर लगी जानकारी भरपूर रही नल व दमयंती की कथा सुने भी वहुत ही दिन हो गये थे आपने उसे मेमोराइज करा दिया आपका लिंक लगा रहा हूँ अपने राष्ट्रधर्म एक राष्ट्रीय पत्र व ब्लाग एग्री गेटर पर http://rastradharm.blogspot.in बाकी आपको व आपके पाठको को भी मेरा सादर जय श्री राम अपने भी दो आयुर्वेदिक ब्लाग हैं इन पर आपको शायद कुछ सेहत सम्बंधी जानकारी अवश्य मिलेगी आयें ।http://ayurvedlight.blogspot.in/ व http://ayurvedlight1.blogspot.in/दोनो अलग अलग हैं कृपया एक न समझे।इनके अलाबा एक ब्लाग है विद्यार्थियों व कैरियर सलाह चाहने बालों के लिए पता है http://gyankusum.blogspot.in व राष्ट्रीय विचारों का पोषक http://rastradharm.blogspot.in और है सभी अपने आप में अनूठे है आपको रोचक जानकारियां मिलेंगी सभी पर

Anonymous said...

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