Friday, December 14, 2012

बस्तर की नल सत्ता (300-925 ई. तक) का सामाजिक आर्थिक पक्ष।

सांध्य दैनिक ट्रू-सोल्जर में दिनांक 14.12.12 को प्रकाशित
प्राचीन बस्तर के नल साम्राज्य की सामाजिक-आर्थिक दशा और दिशा का विवेचन आवश्यक है। यह युग जब मौर्य साम्राज्य का पतन हो गया था; गुप्त साम्राज्य नें महाकांतार को शासन स्वायत्ता दे दी और वे भी उत्तर भारत की राजनीति में ही केन्द्रीभूत रह गये। महाकांतार की राजनीति को वाकाटक सत्ता की एक मात्र चुनौती निरंतर मिलती रही थी इसके बाद भी नल साम्राज्य (300-925 ई. तक) नें शांतिप्रिय एवं स्थिर सत्ता प्रदान की। राजनीतिक स्थिरता के साथ ही साथ यह समय एक महान धार्मिक आन्दोलन के पटाक्षेप का भी रहा; अब बुद्ध और जैन धर्म के ज्ञान और दर्शन का आलोक सिमटने लगा था। वैदिक धर्म का पुनरुत्थान होने लगा। 

नल साम्राज्य के समय का महाकांतार केन्द्रीय सत्ता के अंतर्गत अनेकों अर्ध स्वतंत्र राज्यों में बटा हुआ था जिन्हें मण्डल कहा जाता था। उस काल के ज्ञात मण्डल हैं - चक्रकोट्ट मंडल (यह वेंगी तथा दक्षिण कोसल के मध्य अवस्थित था जिसपर इस क्षेत्र को बस्तर तथा कोरापुट क्षेत्र की सम्मिलित क्षेत्र में उपस्थित माना जा सकता है जिसकी राजधानी बारसूर थी); भ्रमरकोटय मण्डल (यह चक्रकोट्ट मण्डल का पूर्वी क्षेत्र रहा है। इसे आधुनिक उपरकोट कहा जा सकता है तथा राजधानी तरभ्रमरक थी। यहाँ नल आधीनता में तुष्टीकर राजवंश का शासन चल रहा था);  खिडिडरश्रृंग मण्डल (धारकोट, बडबढ, शेरगढ तथा सोरढ जमीन्दारियों का संयुक्त क्षेत्र); कमल मण्डल (कालाहाण्डी तथा राजिम का क्षेत्र);  वड्डाडि मण्डल (यह मदगोल क्षेत्र का वाचक है तथा नरसीपटम के पूर्व में अवस्थित है); शूय क्षेत्र (बस्तर से लगा कालाहाण्डी का क्षेत्र); नलवाडी (यह अनेक मण्डलों का समूह रहा होगा तथा नल सत्ता का केन्द्रीय क्षेत्र होना चाहिये); कमण्डलु पट्ट (यह एक जनपद का वाचक था जिसके अंतर्गत भीमनगर ग्राम भी आता था)। राज्य की इकाईयो के रूप में मण्डल, भोग, विषय, पुर, ग्राम आदि विभाजन प्रचलित थे। प्रत्येक मण्डल में अनेक छोटे प्रांत आते थे जिसके अधिकारी सामंत कहे जाते थे। छोटे प्रांतो के बाद की इकाई राष्ट्र थी जिसके अधिकारी राष्ट्रकूट कहे जाते थे। राष्ट्र भुक्तियों में बँटा हुआ था जिसके बाद की इकाई पुर (नगर) तथा ग्राम थे। नल शासन ’सम्राट केन्द्रित’ था तथा शासक स्वयं को ‘राजा’, ‘महाराज’ अथवा ‘महाराजाधिराज परमेशवर’ आदि विभूषित करते थे। राजा का ज्येष्ठ पुत्र ही राज्याधिकार प्राप्त करता था जिसे भट्टारक कहा जाता था। राजमहिषि को भट्टारिका सम्बोधन प्राप्त था। राजप्रासाद के कर्मचारियों के पद  - रहस्याधिकृत (गुप्तचर विभाग का प्रमुख), महाबलाधाकृत (सेनापति), संधिविग्रहिक (विदेश मंत्री), प्रतीहार, विनयासुर, प्रतिनर्तक, भट (सिपाही) आदि थे। शासन प्रबन्ध अमात्यों (मंत्रियों) द्वारा चलाया जाता था। नल साम्राज्य के अंतिम ज्ञात शासकों में भीमसेन (लगभग 900 – 925 ई.) प्रमुख हैं तथा उनके समय तक सामंत व्यवस्था का पूरी तरह आधुनिकीकरण हो गया था। अब सामंत शक्तिशाली थे एवं अपने क्षेत्र के आंतरिक मामलों में स्वतंत्र होते थे; यद्यपि सामंतो को राजाज्ञा का पालन करना आवश्यक था। सामंतो के कार्यों पर राजा की ओर से संधिविग्रहिक निगरानी रखते थे।

प्राचीन बस्तर में नल-राजशाही अनियंत्रित अथवा निरंकुश नहीं थी। शासक धर्मभीरु थे तथा जनता के सुख-दु:ख में सहभागी भी थे। ज्ञात लगभग सभी नल अभिलेखों में धर्म को सत्ता संचालन का आधार माना गया है जिसके अभाव में नरक की कामना की गयी है – “षष्टि वर्षसहस्त्राणि स्वर्गे नन्दति भूमिद:। आक्षेप्ता चानुमंता च तान्येव नरके वसेत”। अभिलेखों में यह उल्लेख मिलता है कि गाय, ब्राम्हण तथा प्रजा का कल्याण ही राजा का कल्याण है – “स्वस्ति गो ब्रम्हाणप्रजाभ्य: सिद्धिरस्तु”। राजा अत्यंत धर्मभीरु होते थे जिसकी परिणति में ब्राम्हणों को भूमिदान-लाभ प्राप्त होता रहा है। उल्लेख मिलता है कि भवदत्तवर्मन (400-440 ई.) नें अपनी पत्नी अचली भट्टारिका के साथ दाम्पत्य सम्बन्ध से अनुग्रहीत हो कर पाराशरगोत्रीय ब्राम्हण मात्राढयार्य तथा उसके आठ पुत्रों को कदम्बगिरि ग्राम दान में दिया था। अर्थपति (460-475 ई.) नें कौत्सगोत्रीय ब्राम्हण रविरार्य तथा रविदत्तार्य को केसेलक गाँव दान में दिया था। स्कंदवर्मा (475-500 ई.) नें अपने माता-पिता तथा पितामह के धर्मलाभार्थ, पुष्करी में भगवान विष्णु का पवित्र पादमूल निर्मित करवाया था। विलासतुंग (700-740 ई.) नें अपने स्वर्गीय पुत्र की पुण्याभिवृद्धि के लिये विष्णु मंदिर का निर्माण करवाया तथा काश्यपगोत्रीय ब्राम्हण भट्टपाजूनि को कूर्मतला नामक गाँव दान दिया था। भवदत्त वर्मा के ऋद्धिपुर ताम्रपत्र से यह ज्ञात होता है कि उस युग में न्याय का अलग विभाग रहा होगा जिसका कार्य सभी विवादों व झगडों को निबटाना रहा होगा – “सर्ववाद परिहीन:”; अंतिम न्यायाधीश राजा हुआ करता था।   

नल युगीन प्राचीन बस्तर की जीवन शैली में वेद-वर्णित चारो वर्णों (ब्राम्हण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र) का उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त कुछ व्यवसाय भी जो उस समय प्रचलित थे जैसे शिल्पकार, स्वर्णकार, लौहकार आदि भी बाद में जाति सूचक हो गये। वैश्यों की संख्या समाज में सर्वाधिक थी तथा व्यावसायी, उद्योगपति, पशुपालक आदि होने के कारण यह धनी वर्ग था तथा राज्य को प्रमुखता से कर इसी वर्ग से प्राप्त होता था। प्राचीन बस्तर में जाति व्यवस्था का बहुत कठोरता से पालन होता होगा एसा प्रतीत नहीं होता। राजा भवदत्त वर्मा (क्षत्रिय) की पत्नि अचली (वैश्य) थी। भवदत्त वर्मा के ऋद्धिपुर ताम्रपत्र का टंकणकर्ता/खनक एक ब्राम्हण - पद्दोपाध्याय का पुत्र बोपदेव है – ‘पद्दोपाध्यायपुत्रस्य पुत्रेण बोप्पदेवेन क्षतिमिदं’। उस युग में उपाध्याय वेदपाठी ब्राम्हण होते थे तथा बोपदेव द्वारा खनक (खनक जाति शूद्र मानी गयी है) का कार्य करना समाज में एक प्रकार के खुलेपन की दिशा बताता है। निश्चित ही समाज में दास प्रथा भी विद्यमान रही होगी। एक प्राचीन नल अभिलेख में ‘जांतुरदास’ का उल्लेख किया गया है – “भक्त्या जांतुरदासेन”। किंतु इस विवरण के साथ यह भी ज्ञात होता है कि जांतुरदास एक कवि थे एवं राजा स्कन्दवर्मा के पोडागढ अभिलेख के वे रचयिता थे; यह कार्य ब्राम्हणों का माना जाता था।  तद्युगीन एक दास द्वारा अभिलेख लेखन एवं छंद रचना किया जाना यह दर्शाता है कि सामाजिक जटिलतायें - रूढीवादिता और ढकोसलावाद में इस समय तक तब्दील नहीं हुई थीं। जान्तुरदास नें पोड़ागढ अभिलेख में तेरह पद्यों की रचना आर्या तथा अनुष्टुप छंदो के अंतर्गत की है। जांतुरदास का यह छंद देखिये जिसमें अंत्यानुप्रास अलंकार अद्भुत रूप में प्रयुक्त हुआ है – “अप्रवेश्यं भटैश्चेदं सदां करविसर्जितं। श्रीचक्रद्रोणपुत्रायं यथोचितं”। समाज में आश्रम व्यवस्था का भी आंशिक रूप से ही पालन होने के प्रमाण मिलते हैं। स्कंदवर्मा के अभिलेखों में अग्रहार का उल्लेख है; अग्रहारों में ब्रम्हचारी शिक्षा ग्रहण किया करते थे। इस युग के प्राय: सभी ज्ञात ब्राम्हण गृहस्थ थे। वानप्रस्थ तथा सन्यास को एक ही आश्रम – ‘यति’ माना जाने लगा था। कालिदास नें भी अपनी कृति रघुवंश में तीन ही आश्रम का उल्लेख किया है। उल्लेख मिलता है कि राजा स्कंदवर्मन नें यतियों को दक्षिणा दी – “सत्वोपभोज्यं विप्राणां यतीनात्जच विशेषत:”। नल अभिलेखों में चार ऋणों से मुक्त होने की अवधारणा के प्रचलन का भी संकेत मिलता है। देवऋण से मुक्त होने के लिये यज्ञ, ऋषिऋण से मुक्त होने के लिये अध्ययन, पितृऋण से मुक्त होने के लिये संतानोत्पत्ति तथा मनुष्यऋण से मुक्त होने के लिये गो-ब्राम्हण पूजा समाज में व्याप्त थी। 

नलयुगीन बस्तर का समाज मूल रूप से संस्कृतभाषी था। भाषा में प्राकृत तथा स्थानीयता के प्रभाव के उदाहरण भी कहीं कहीं दृष्टिगोचर होते हैं। ताम्रपत्रों-शिलालेखों से उद्धरित कुछ नाम जैसे मालि, बोप्पदेव, सामंताक, आगिस्मामि, भट्टपाजिनि आदि प्राकृत के निकट हैं। यह संभावना बनती है कि आदिवासी तथा कृषक समाज संस्कृत समझता अवश्य रहा होगा किंतु जनसाधारण की बोलचाल की अपनी ही भाषा-बोली विद्यमान रही होगी। इस युग में नारी की स्थिति संतोषजनक मानी जा सकती है। उसे यज्ञादि में समान रूप से भाग लेने का अधिकार था साथ ही राजस्त्रियों द्वारा दान आदि किये जाने के उल्लेख ताम्रपत्रों व शिलालेखों से प्राप्त होते हैं। अभिजात्य वर्ग द्वारा पहने जाने वाले वस्त्र कलात्मक होते थे जिसकी पुष्टि उस युग की प्राप्त मूर्तियों से होती है। राजिम स्थित राजा विलासतुंग द्वारा निर्मित मूर्तियों में मुमुट, वैजयंतिमाला, केयुर, कुण्डल, भुजबन्ध, कंगण, हार, कर्णशोभन, तीन लडियों वाली मोतियों की माला आदि गहने प्रमुखता से देखे गये है। तद्युगीन देव-मूर्तियाँ कई प्रकार के केश विन्यासों एवं बालों में पुष्पसज्जा की ओर इशारा करती हैं जिससे सहज अंदाजा लगता है कि समाज में श्रंगार महत्वपूर्ण स्थान रखता था। भोजन के प्रकारों का विवरण नहीं मिल सका है किंतु क्षीर तथा सोम का पेय में प्रचलन था। बस्तर क्षेत्र में महुवे के पेड बहुतायत संख्या में है अत: स्वाभाविक था कि मधुकलतिया (महुवे की शराब) चलन में थी। अभिलेखों के अनुसार मनोरंजन के लिये शिकार करने तथा जलक्रीडा किये जाने का उल्लेख मिलता है। राजिम से प्राप्त मूर्तियों में मृदंग दृष्टव्य है तथा देवी देवताओं की नृत्य मुद्रा दृश्टिगोचर हो रही है; यह निर्विवाद है कि नृत्य संगीत आमोद-प्रमोद का महत्वपूर्ण हिस्सा रहे होंगे। 

वैदिक युग से ही दो तरह के सिक्के राजवंशो द्वारा चलन में लाये गये थे पहला ‘निष्क’ जो कि चित्रपूर्ण तथा अंक पूर्ण मुद्रा थी जब की दूसरी ‘हिरण्य’ कहलाती थी; यह  स्वर्ण पिण्ड मात्र होता था किंतु उसपर कोई चित्र या अंक नहीं उकेरा जाता था। नलवंशीय बस्तर में ये दोनो ही प्रकार चलन में थे। घना जंगल और अत्यधिक पिछडा क्षेत्र कहे जाने वाले आज के बस्तर में एक समय में स्वर्ण तथा रौप्य (चाँदी) मुद्राओं से अर्थव्यवस्था संचालित थी यह बात आश्चर्य से भर देती है। बात 1939 ई. की है जब स्थानीय प्रशासन को किसी व्यक्ति के पास राजनान्दगाँव के एडेंगा गाँव से प्राचीन सोने के सिक्के पाये जाने की भनक लगी; जब तक उन्हें प्राप्त किया जाता, एक सोनार नें कई सिक्के गला दिये थे। यह नल युगीन बस्तर की विरासत थी। यह सौभाग्य था कि बत्तीस सोने के सिक्के अच्छी हालत में प्राप्त कर लिये गये; इनमें उनत्तीस सिक्कों पर वाराहराज (400-440 ई.); एक सिक्के पर भवदत्तराज (400-440 ई.) तथा दो सिक्कों पर अर्थपतिराज (460-475 ई.) अंकित है। राज्य की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार “कर-प्रणाली” थी। एडेंगा से प्राप्त राजों के नाम अंकित मुद्राओं के अतिरिक्त राजा भवदत्त के ऋद्धिपुर ताम्रपत्र के अनुसार सभी कृषकों को हिरण्य अथवा अन्य प्रकारों (रौप्य, अन्न आदि) से कर चुकाने के निर्देश दिये गये हैं – “विषयोचिता: हिरण्यादय: सर्व्वप्रत्याया: दातव्या:”। राज्य द्वारा दान में दी गयी भूमि पर भी निश्चित कर लिया जाता था। राज्य एसी समस्त भूमि का स्वामि था जिसका कोई उत्तराधिकारी न हो शेष निजी सम्पत्ति होते थे तथा उन पर भूमिकर देय था। निजी सम्पत्ति माने जाने के कारण भूमि का क्रय-विक्रय भी होता था। भूमि के मानक माप निवर्तन (लगभग ढाई एकड) , हल (लगभग 5 एकड) तथा वाटक (यह 5 कुल्यवाप के बराबर होता था; एक कुल्यवाप निर्धारित आकार की टोकरी भरे बीज बोये जाने जितनी क्षमता भर भूमि होती थी) थे। तौल भी पूर्णत: विकसित प्रक्रिया थी। सोना चाँदी तौलने के लिये कर्ष (80 रत्ती) या पल (320 रत्ती) प्रयोग में आते थे। भारी वस्तुओं के लिये माप थे कुडव (चार पल के बारबर); प्रस्थ (चार कुडव के बराबर); आढक (चार प्रस्थ के बाराबर); द्रोण (चार आढक के बराबर) आदि।  

नल समृद्ध और शक्तिशाली थे। उनके समकालीन भारत के मध्य क्षेत्र में वाकाटक शक्तिशाली सत्ता थी जिनकी दृष्टि प्राचीन बस्तर क्षेत्र पर कई कारणों से हमेशा लगी रही। पहला कि कलिंग और वाकाटकों के बीच में बडी दीवार थे नल और दूसरा व्यापार की दृष्टि से उत्तर से दक्षिण की ओर जाने का मार्ग नल राज्य की सीमा से हो कर गुजरता था। इस परिस्थिति में भी प्राचीन बस्तर में नल सत्ता वह गौरवशाली अतीत है जिसे वाकाटकों द्वारा रौंदा नहीं जा सका। कुछ प्रश्न अवश्य उठते हैं कि आदिवासी समाज और सत्ता के बीच कैसे सम्बन्ध रहे होंगे? क्या नल साम्राज्य के विषय में हम अब तक जितना जानते हैं वह आदिवासियों की अवस्थिति तथा उनकी दशा दिशा का प्रस्तुतिकरण नहीं है? एसा नहीं मानने के कई कारण उपलब्ध हैं पहला कि वह आदिवासी समाज जो मौर्य सेना में अपनी हिस्सेदारी निभाता रहा हो नल सत्ता की निश्चित ही ढाल बनता रहा होगा। दूसरा कि मुख्यधारा की राजनीति से बस्तर के आदिवासी 1966 के बाद पृथक हुए हैं अन्यथा इस अंचल की प्रजा जागरूक भी रही है तथा साहसी भी। आदिवासी जनता ही राजा की पदाति सेना, कृषक तथा आखेट की सहयोगी रही होगी। उल्लेख मिलते हैं कि नल शासकों की कृषि से आय सीमित थी। इसका कारण आदिवासी समाज में दाही/स्थानांतरिक तथा सामूहिक खेती का प्रचलन तथा कृषि के सदियों पुराने तरीकों का विद्यमान होना था। बस्तर एक लचीला समाज भी रहा है इसलिये जीवित तथा जिन्दादिल है और लम्बे समय से अपनी पहचान बनाये रख सका है। नल साम्राज्य का बार बार व विभिन्न कोणों से विश्लेषण आवश्यक है चूंकि आज की स्थिति तक पहुँचने की पडताल हमें प्राचीन बस्तर के अतीत में उतर कर इसी विन्दु से करनी होगी। एसा क्यों हुआ कि जिस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था स्वर्ण मुद्रायें संचालित करती हों वह कौडियों का हो कर रह गया? एसा क्यों हुआ कि जहाँ जान्तुरदास जैसे कवि और विद्वान रहे थे वह अशिक्षा और अंधकार के दलदल की ओर जाता गया? एसा क्यों हुआ कि जहाँ बुद्ध का भी प्रभाव रहा और महावीर का भी; जहाँ ह्वेनसांग भी आये और नागार्जुन भी वह क्षेत्र पहचान खोने की स्थिति तक पहुँच गया? इतिहास के अगले पन्ने सम्भवत: इन प्रश्नों का उत्तर रखते हों। उपसंहार में यह कहा जा सकता है कि नल शासन काल बस्तर के सर्वश्रेष्ठ समयों मे रहा है। बस्तर के इतिहास में नल शासक हमेशा वह बुनियाद माने जायेंगे जहाँ से संगठित सत्ता तथा व्यवस्थित प्रशासन का प्रारंभ होता है।

1 comment:

Anonymous said...

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