मुझे तालाब नहीं भाते हैं
ठहर जाते हैं
और तुम इसीलिये उदास करती हो मुझे..
तुममें अपनी परछाई देखता हुआ
खीज कर फेंकता हूँ पत्थर
भँवरें मुझतक आती हैं
फिर ठहर जाती हैं..
शाम कूट कूट कर लाल मिर्च
झोंक देता है मेरी आँखों में
मैं पिघल पिघल कर बहा जाता हूँ
ठहर जाता हूँ... ठहर जाता हूँ
लेकिन जानम
मुझे तालाब नहीं भाते हैं..
*** राजीव रंजन प्रसाद
९.०३.१९९८
10 comments:
बहुत सुंदर रचना.. बधाई स्वीकार करे.
राजीव जी
मुझे आपकी यह कविता बेहद सुन्दर लगी। विशेष रूप से-
ममें अपनी परछाई देखता हुआ
खीज कर फेंकता हूँ पत्थर
भँवरें मुझतक आती हैं
फिर ठहर जाती हैं..
आनन्द आगया। बधाई स्वीकारें।
राजीव जी
बेहद सुंदर चित्र के साथ कोमल भावों से भरी इस कविता के लिए बधाई.
नीरज
इतनी सुंदर कल्पना के लिए बधाई ....शीर्षक मुझे खींच लाया ....
बड़ी ही खूबसूरत और कोमल प्रस्तुति. बधाई.
bahut hi alag si khubsurat rachana,bahut badhai
चित्र, भावाभिव्यक्ति और काव्य-कला का अद्भुत संगम जिसमें कोमल-तत्व ने कविता का सौंदर्य दुगना कर दिया। साधुवाद!
बढिया!
तुममें अपनी परछाई देखता हुआ
खीज कर फेंकता हूँ पत्थर
भँवरें मुझतक आती हैं
फिर ठहर जाती हैं..
बहुत खूब राजीव जी .सुंदर भाव है इस के
सुंदर कविता और उतनी ही सुंदर तस्वीर , बहुत खूब राजीव जी
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