Wednesday, May 21, 2008

तुम सिमट आतीं मेरे करीब....

काला जादू..

जब कि बादल नहीं होते
जी करता है खींच लूं चोटी तुम्हारी
और तुम झटक कर सिर
आँखों को तितलियाँ कर लो
अब कि जब मेरी हथेलियों में
तुम्हारा आंचल होता
तुम सिमट आती मेरे करीब
तुम्हारे केश मेरी उंगलियों पर
जाल बनाते जाते हैं
खुलते जाते हैं खुद ब खुद
घनघोर काली घटाओं का काला जादू
गुपचुप मुझमें खो जाता है
तुम में चुप सा बो जाता है..

*** राजीव रंजन प्रसाद
१७.११.९५

9 comments:

Kirtish Bhatt said...

बहुत खूब !

mamta said...

बहुत सुन्दर !!

Mohinder56 said...

राजीव जी

सुन्दर भाव भरी रचना... सचमुच प्रेम एक ऐसी गहरी भावना है जिसमें जाने क्या क्या न डूब जाये... आदमी कि तो विसात क्या.

Udan Tashtari said...

आँखों को तितलियाँ कर लो


-वाह! बहुत उम्दा, राजीव भाई. जमे रहिये.जमाते रहिये.

शोभा said...

राजीव जी
बहुत ही प्यारी सी कोमल सी कविता लिखी है।
ब कि बादल नहीं होते
जी करता है खींच लूं चोटी तुम्हारी
और तुम झटक कर सिर
आँखों को तितलियाँ कर लो
अब कि जब मेरी हथेलियों में
तुम्हारा आंचल होता
बहुत सुन्दर कल्पना। बधाई स्वीकारें

रंजू भाटिया said...

बहुत खूब राजीव जी .वैसे आपका यह अंदाज़ मुझे थोड़ा चोंका गया :) बहुत अच्छी लगी यह रचना आपकी

जयप्रकाश मानस said...

एक अच्छी प्रेम कविता । युवा और नटखट प्रेम कविता । छेड़छाड़ तकरार की कविता । पर ज़रा चोटी कम खींचिए भाई । कहीं वह नाराज़ न हो जाये । उसे मोड़ दीजिए नये काव्यात्मक शब्दानुशासन में । वैसे हम सब चोटी खींचते हैं ज़रूर ।

आशु said...

राजीव जी,

बहुत ही सुंदर और नाज़ुक खयालात ...क्या कहने...

तुम्हारे केश मेरी उंगलियों पर
जाल बनाते जाते हैं
खुलते जाते हैं खुद ब खुद
घनघोर काली घटाओं का काला जा

अच्छा लिखते है..लिखते रहे और शब्दों के फूल बिख्राते रहें

आशु

महेन said...

ऐसा है तो फ़िर कभी बादल न हों। आप चंद शब्दों में अपनी बात गजब की खूबी से कह जाते हो। जितना भी पढ़ा उसके आधार पर यह धारणा बनाई है। अभी काफ़ी कुछ छूट गया है। मगर आना तो लगा ही रहेगा।