एकांत
ध्यानमग्न बगुला
एकदम से ताल के ठहरे पानी पर झपटा
पानी भवरें बनानें लगा
उसकी परछाई लहरानें लगी
वह शांत हुआ
पंजे में कुछ न था
मछली या कि अपनी ही परछाई
ध्यानमग्न बगुला
एकदम से ताल के ठहरे पानी पर झपटा
पानी भवरें बनानें लगा
उसकी परछाई लहरानें लगी
वह शांत हुआ
पंजे में कुछ न था
मछली या कि अपनी ही परछाई
फिर वही एकांत
वही ध्यानमग्न बगुला
वही ठहरा हुआ पानी
वही परछाई..
मछली तो फसेगी आखिरकार
क्योंकि उसे नहीं पता
चरित्र और चेहरे एक नहीं होते
और मैं हर बार देखता हूं
झपटते हुए बगुले को
अपनी ही परछाई पर..
*** राजीव रंजन प्रसाद
७.०१.१९९५
७.०१.१९९५
4 comments:
मछली तो फसेगी आखिरकार
क्योंकि उसे नहीं पता
चरित्र और चेहरे एक नहीं होते
और मैं हर बार देखता हूं
झपटते हुए बगुले को
अपनी ही परछाई पर..
bahut hi sahi kaha,bagule ki aadat aisi hi hoti hai,bahut hi gehre bhav badhai.
मछली तो फसेगी आखिरकार
क्योंकि उसे नहीं पता
चरित्र और चेहरे एक नहीं होते
और मैं हर बार देखता हूं
झपटते हुए बगुले को
अपनी ही परछाई पर..
राजीव जी,
बहुत ही सुन्दर प्रतीक लिया है। सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए बधाई ।
अपनी तरह की एक अनूठी कविता...बहुत बढ़िया.
सुन्दर परिकल्पना राजीव जी
अगर चेहरों से चरित्र पहचाने जा सकते तो किसी के लिये कोई मुशकिल न होती...हर षडयन्त्र फ़ेल हो जाता... परन्तु... यहां तो उल्ट है... भोले भाले चेहरे होते हैं दगाबाज भी...
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