Saturday, May 17, 2008

मैं कभी ज़िंदा नहीं था..(कहानी)


रोज देखता था उस लडकी को। सुबह हुई नहीं कि हाँस्टल की पिछली दीवार से लगे कूडे के ढेर में जानें क्या खोजती, ढूंढ़ती, बीनती मिलती। उसके घुटनों से लम्बा उसका बोरा पीठ पर लदा होता। अभी उम्र ही क्या होगी? ज्यादा से ज्यादा आठ वर्ष, किंतु जिन्दगी पीठ पर लदे पहाड़ से कम नहीं। उसका चेहरा उसके कपडो की तरह मटमैला नही था। हल्का गेहुँआपन लिये गोल, आँखें अंदर को धँसी-छोटी-छोटी। मैने अनुभव किया कि वह लडकी जानती ही नहीं हँसी किसे कहते हैं। टीन के ड़ब्बे, प्लास्टिक, पोलीथीन, कागज, अखबार यहाँ तक कि सिगरेट की डिबियों को वह उठा, झाड कर अपनें बोरे में भर लेती।....। हाँस्टल का ये कोना कभी साफ रहा हो मैने नही देखा। चपरासी हर कमरे का कचरा झाड कर यहीं पटक जाता है। उस लडकी के लिये कुबेर का खजाना था ये कोना।....।बचपन यानी कि तितली हो जाना, खिलखिलाना, कूदना, सपने बुनना और जगमग आँखों से आकाश के सारे तारे लूट लेना...पर एसा बचपन! सच, पहली बार देखा। नहीं, उसमें बचपन था ही कहाँ? वह लडकी आठ वर्ष की अधेड थी। कुछ दिनों से उसके साथ एक बच्ची आनें लगी थी, हाथ थामें। उसकी छोटी बहन होगी, शायद। पाँच साल की भी न थी। यहाँ पहुँचते ही वह एक कोने में खडी हो जाती और अपनी दीदी को कबाड बीनते देखा करती । नि:शब्द। बचपना उसके बचपन में भी नहीं दीखा।सुबह जल्दी उठ जाने के बावजूद स्ट्डी टेबल पर कभी नहीं बैठा। छ्त पर हवा सुहानी लगती थी और मै टूथब्रश मुँह में दबाये घंटे भर दाँतो में इधर उधर करता रहता। सुबह सुबह और सोचता भी क्या? फिर दिमाग खाली भी नहीं रहता शायद इसीलिये कई बार मैने उस लड्की को अपनी सोच में कुलबुलाते पाया था। मुझे बेचैन कर देती थीं उसकी बेहद खामोश आँखें।....और अब यह छोटी...मैं उनकी आँखों में बचपन तलाशता और पाता आँखों के कोरों पर कीचड और भीतर मुर्दनी। बचपन को यह कैसा लकवा? अब कल ही तो वह मशहूर गज़ल सुन रहा था – “ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन, वो कागज की कश्ती,वो बारिश का पानी”, मेरे तो सारे रोये जैसे रो उठे थे। दिल कोई कस कर दबा रहा हो जैसी स्थिति हो गई थी। सोचता हूँ क्या कभी ये लड़कियाँ समझ सकेंगी इस गजल का अर्थ?....। बोरा खचाखच भर चुका था। लडकी नें दोंनो हाथों से उठा कर वजन सा लिया, फिर एक झटका दोनो हाथों से बोरे को दिया और उसे कंधे से धकेल कर पीठ पर लाद लिया। छोटी नें बहन की फ्राक का एक सिरा थामा और दोनों चल पडीं।
सूरज से चिंगारिया निकलनी शुरू हो चुकी थीं और बीच कुछ नीला सा गोल गोल घूमने लगा था। मैनें दादू की चाय की दूकान पर नजर डाली, दादू व्यस्त था। सुबह पाँच बजे ही वह दूकान खोल लेता है और फिर रात्रि नौ बजे तक....पूरा कोल्हू का बैल है वह। मैं भी कुल्ला कर, पानी मुँह और आँखों में डाल, नीचे उतर आया। बाथरूम में अभी पानी नहीं आ रहा था सोचा तब तक एक कप चाय ही सही।
“गोपाल चाय पिला यार” मैने दादू के लडके से कहा। गोपाल यंत्रवत ले आया। इस बीच मैने दादू को ईशारा कर दिया था – “एक फुल, कडी, स्पेशल”। गोपाल के हाँथ से मैने पानी लिया और देखा वह फिर मशीन हो गया है। सामने की बैंच पर जूठन पडी थी, कही से कर्कश आवाज आयी - “कपडा मार’’ और गोपाल बेंच साफ करने लगा। दादू चिल्लाया- ‘’गोपाल पीछे लडका ‘मन’ को दो हाफ चाय दे के आ’’ गोपाल ने दादू के हाँथ से दो ग्लास ले लिये। मेरी चाय बनने में देर थी। दादू मुझसे बेहद परेशान रहता है। सुबह मै कड़ी चाय पीना पसंद करता हूँ, वह भी खालिस दूध की। दादू कई बार टिप्पणी कर चुका है ‘’इतना पत्ती में मै चार जन को चाय पिलाता’’ और कई बार दबा प्रतिरोध भी “इतना कडा चाय पीने से काला हो जायेगा’’।मै दादू की झल्लाहट पर मजाक जड देता हूँ ‘’कौन सा लडकी हूँ दादू कि काला हो जाने से फर्क पडेगा?’’। दादू को भी क्या फर्क पडता है, मेरी चाय का वैसे भी वह तीन रूपया चार्ज करता है। “गोपाल’’ दादू नें फिर आवाज दी, “राजू को चाय दे के आओ’’। गोपाल ने चाय मुझको थमा दी।आज सुबह से ही दिमाग जानें क्या क्या सोच रहा था और अब.....मैं सर झटक कर अपनी चेतना बटोरनें लगा कि अभी आखिर सोच क्या रहा था मैं...शायद गोपाल के बारे में..वही आठ वर्ष की उम्र, दादू का अपना बेटा....एक बाल मजदूर। “दादू!! तुम गोपाल को पढ़नें क्यों नहीं भेजते?’’ मैने पूछा। “जायेगा अभी टेम नही हुआ” दादू नें अपनी उफनती चाय को स्टोव से उतारते हुए कहा। हाँ! ग्यारह बजे से गोपाल दुकान में नहीं रहता, मुझे याद आया। तब तक चटर्जी काम करता है। दादू नें काम पर रखा है इसे। तपन नाम है पर चटर्जी ही सभी पुकारते हैं.....ये नही पढ़ता। पढेगा तो पैसे नहीं मिलेगे, पैसे नहीं मिलेंगे तो खायेगा क्या? इस तरह के उत्तर उसने मुझे कई बार दिये थे किंतु अपने घर के विषय में कभी नहीं बताया। चंचल है यह लडका। दादू के तो नाकों चने चबवाता रहता है। जब चटर्जी की जरूरत हो चटर्जी गायब। पता चला मैदान में पतंग उडा रहा है। दादू दुकान से चिल्लाता है, और भागता हुआ आता है चटर्जी-क्या काम है? सपाट सा उसका प्रश्न और दादू गालियों का भंडार उस पर खोल देता। मैनें चटर्जी को अपने बचपन के लिये लडते पाया है। उसे दादू की गालियों की परवाह नहीं वेतन कट जानें की परवाह नहीं। परवाह है तो पतंग की, जिसकी डोर में धार नहीं है। इसी कारण तो झबलू की पतंग को बार बार, उलझा कर भी काट नहीं पा रहा। उसे परवह है तो उन सारे कंचो की जिन्हें कल हार गया था। उसे परवह है तो गुल्ली और डंडे’ की क्योकी ‘गिल्ली में पर्याप्त उछाल नहीं है। उसने दादू की मिल्कियत को खुली चुनौती दे रखी है, पीटना है तो पीट लो...। मेरी चाय खत्म हो चुकी थी, गोपाल के हाँथों में ग्लास थमा मै अपने कक्ष की ओर लौटा। डर था कि पानी आ गया होगा, कहीं बाथरूम में भीड न हो गई हो।
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लडकी नें शराब की खाली बोतल उठाई और बोरे में डालने से पूर्व एसी निगाहों से देखा जैसे अभी पटक कर फोड डालेगी। किंतु...शराब भले ही जहर हो, ये बोतल तो उसकी रोटी है, लडकी नें बोतल को बोरे में डाल लिया। उसकी इस गतिविधी नें मेरी कल्पना पैनी कर दी थी...शायद बाप शराबी हो, बच्चियों को मारता पीटता हो, कमाई पी कर उडा देता हो...और..और...मैं अपनी कल्पना में स्वत:संवेदित होने लगा। छ्त से थोडा झुक कर देखा। छोटी, चुपचाप खडी थी। “ए लड़की!! तुम्हारा नाम क्या है” मैने पुकारा। बड़ी के हाँथ कुछ उठाते उठाते रूक गये, उसने झुके हुए ही उपर देखा। मुझे छोटी से मुखातिब देख वह पुन: कार्य में लग गई। “ए लडकी” मैने छोटी को पुन: पुकारा। छोटी ने उपर तो देखा लेकिन सहमी आँखों से। मुझे लगा जैसे मेरे शब्दों में मिठास नहीं और इसीलिये बच्ची सहम गई। “तुम्हारा नाम क्या है?” पूरी मृदुता मैनें आवाज में भरी। छोटी नि:शब्द रही। मैं.....मैं उसके सहम जानें का उत्तर स्वयं से पूछ रहा था। मुझे छोटी पर गुस्सा नहीं आया।......। अभी कुछ दिनों पूर्व ही किसी दोस्त से बहस में मैने दलीलों पर दलीलें दी थीं कि बचपन चाहे निम्न वर्ग का, मध्यम या उच्च वर्ग का, बचपन तो बचपन ही होता है। एक तर्क मुझे मिला “कभी अनाथालय गये हो?”। इस दलील पर यद्यपि मुझे निरुत्तर हो जाना चाहिये था, तथापि मैने जाने किन किन तर्कों से यह वाद- विवाद जीता था।....शायद अपने इसी खोखलेपन से डरा था मैं? दाँतों में घूमता ब्रश अनायास रुक गया। अनाथालय तो बहुत दूर है, मेरे सामने, मेरे रोज की अनुभव-ये दो लडकियाँ। किस बचपन से तुलना करुं और कैसे बचपन से? इनको तो किसी कुत्ते के पिल्ले के बचपन सा सुख भी प्राप्त नहीं...बेचारे....ब्रश दाँतों के इर्द गिर्द फिर घूमने लगा। बोरा भर चुका था और लडकियाँ जाने लगीं। मैं उन्हें जाते देखता रहा। बोझ कंधे पर लादे बडी, जिसकी फ्राक का एक सिरा पकडे छोटी..
मस्तिष्क इतना बोझिल हो गया था कि चाय पीना आवश्यक हो गया। दादू को मैने हाँथ से इशारा किया “एक फुल कडी स्पेशल”। लडकियाँ दादू की दूकान के सामने ही बोझा कंधे से उतार सुस्ता रही थीं। “गोपाल” मैंने आवाज दी। “जा दोनों को हाफ चाय दे कर आना” मैने इशारा किया। गोपाल मेरे चेहरे में दृष्टि टिका कर खडा रहा। “जा दे के आ” मैने आदेश के स्वर में कहा। गोपाल नें अब दादू की ओर देखा। दादू नें दो हाफ गोपाल को थमा दिये। गोपाल फिर भी झिझका, पर हार कर गया ही। “ले” गोपाल नें मोटे स्वर में बडी को कहा। बडी नें दादू की ओर देखा। दादू व्यस्त था। मैंने देखा एक आश्चर्य की रेखा उसके चेहरे पर उभरी, उसकी नज़र मुझपर पडी। “ले लो-ले लो” मैंने आग्रह सूचक शब्दों में कहा। बडी नें दोनों हाँथों में ग्लास थामें फिर छोटी को एक थमा दिया। उसने अजीब सी निगाहों से मुझे देखा, शायद कृतज्ञता थी।
जगदलपुर को पूरी तरह शहर तो नहीं कहा जा सकता। किंतु बस्तर जैसे क्षेत्र के लिये यह जिले का मुख्यालय, शहर से कम भी नहीं। अगरसिंह के साथ मैटिनी शो जा रहा था। अनुपमा चौक पर बहुत भीड थी। “क्या हुआ भाई साहब” मैंने वहीं खडे एक व्यक्ति से पूछा। “एक्सीडेंट” एक शब्द में उसने स्थिति स्पष्ट कर दी। जिज्ञासावश मैं भीड में अपने लिये जगह बनाने लगा। अचानक चौंक उठा...”अरे यह तो वही...वो....वही लडकी है”। “कौन” अगर सिंह नें प्रश्नवाचक निगाहों से घूरा। “अपने हॉस्टल के पास कबाड बीनने आती है रोज” मेरे स्वर में घबराहट थी और अगरसिंह की आँखों में अचरज। बडी, सडक पर पडी थी। सर फट गया था और खून बिखरा हुआ था। एक सफेद कार जिसके अगले हिस्से पर खून लगा था, वहाँ खडी थी। ड्राईवर कोई धन्नासेठ था जो रूमाल से अपना पसीना पोंछ रहा था।....। मैंने हमेशा देखा है दुर्घटनाओं में ड्राईवर भीड के हाँथ लगा तो भीड उसे अधमरा कर ही मानती है पर....धन्नासेठ के कपडे मँहगी सफारी के थे। टाईपिन भी सोने की नज़र आ रही थी, भला भीड उसे हाँथ कैसे लगा सकती थी? मेरे मन में गुस्से का गुबार सा उठा कि उसका मुँह ही नोंच डालूं या...या...या....मैंने आश्चर्य से देखा, उसनें नें एक निगाह लाश पर डाली फिर वापस अपनी कार में बैठा और चलता बना। मैने कार का नम्बर नोट किया। “चल न यार पिक्चर छूट जायेगी” अगर सिंह नें मेरा हाँथ पकड कर खींचा। “छोड मैं नहीं देखूंगा” मैंने जवाब दिया। मैं उस छोटी लडकी को देख रहा था जो रोये जा रही थी। मेरी पलकों के कोरों पर नमीं बैठने लगी। “तू भी यार छोटी छोटी बातों पर रो डालता है” अगर नें टिप्पणी की। मुझे महसूस हुआ शायद सचमुच.....। वर्ना क्या भीड इसी तरह खामोश रहती? हमें क्या लेना देना की मनोवृत्ति। किसी को भी क्या लेना देना? सडक दुर्घटना में एक मौत हुई बस। फिर ये कुत्ते से बदतर मौत? लाश लावारिस पडी रही। छोटी के रोने की आवाज मेरे कानों में सूईयाँ चुभाने लगी। मैं क्या करता? मैं क्या कर सकता था?...मुझे क्या करना चाहिये था?....?....? ये प्रश्न आज तक अपने आप से दोहराता रहा हूँ। उस क्षण मैं स्वयं को बिखरा बिखरा महसूस कर रहा था, सडक पर बिखरे कबाड की तरह।
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मैं मुँह धोता टहल रहा था, जानता था, अब कबाड बीनने कोई नही आयेगा। फिर भी अनायास छत से झाँक लेता...। रात भर ठीक से सो नहीं सका था।....और सचमुच सप्ताह भर कोई नहीं आया। कबाड जमा होता रहा, होता रहा और आज......आज, छोटी कबाड बीन रही थी। मैंने देखा, फिर देखा, फिर देखा...उसके घुटनों से बडा उसका बोरा। पीठ पर वही सब कुछ - डब्बे, बोतल, सिगरेट के पैकेट, पोलीथीन...। शराब की बोतल उसके हाँथों में थी। छोटी नें बहुत शांत आँखों से देखा, फिर उसे बोरे में डाल लिया। मैं उसके चेहरे में आये हर भाव पढ जाना चाहता था, निराशा हुई मुझे। बोरा भर गया था। छोटी नें वजन लेने के लिये हाँथों से बोरे को खींचा...नहीं बहुत भारी था। उसने पुन: यत्न किया। उससे नहीं उठा। मैनें देखा छोटी नें बोरा खोल भीतर से शराब की बोतल निकाल निकाल फेंक दी। बोरा कंधे पर उठाया और चल पडी, बिलकुल भाव शून्य।....। तभी मैंने देखा वही सफेद कार सामने फर्राटे से निकली और आज खून के एक छींटे उस पर न थे। एक भी नहीं....। मैं देख रहा था एक लाश आहिस्ता आहिस्ता, कंधे पर पहाड़ ढोए जा रही है। फिर मैंने महसूस लिया कि मैं कभी ज़िन्दा था ही नहीं।


राजीव रंजन प्रसाद
27.05.1992

6 comments:

शोभा said...

राजीव जी
बहुत ही संवेदनशील कहानी है। पढ़कर मन उदास सा हो गया। एक सफल अभिव्यक्ति के लिए बधाई।

विजय गौड़ said...

सामन्य जन के प्रति आपकी पक्छ्धरता तो स्पष्ट होती ही है बेशक कहानी में कच्चापन हो चाहे. अच्छा है.

राकेश जैन said...

tumhare lie hoga wo kawad ka pahad,
kisi ke lie to woh do joon ki roti hai..

bahut marmik lekh ..

डॉ .अनुराग said...

आपकी कहानी कवितायो से ज्यादा परिपक्क्वता दिखाती है......उदास कहानी है......

Udan Tashtari said...

अति संवेदनशील. मन अनमना सा हो गया. बहुत सफल रही आपकी लेखनी आपके भाव को जस का तस सहजने में. लिखते रहें. हार्दिक शुभकामनाऐं.

vijaymaudgill said...

दोस्त तुम्हारी कहानी पढ़ी। सच में तुम्हारी कहानी में बहुत संवेदना है। तुमने वो दृश्य पेश किया है जिसे मैं रोज़ देखता हूं। अपनी इस संवेदना को कभी मरने मत देना। क्योंकि जिसमें संवेदना नहीं वो इंसान नहीं। तुम ज़िंदा हो। मरे तो वो लोग हैं, जो रुमाल से अपने माथे का पसीना पोंछते हैं। आप बधाई के पात्र हैं इस कहानी के लिए। मेरी शुभकामनाएं आपके साथ। आप लिखते रहें।