Sunday, May 11, 2008

माँ तुम्हारा खत

(यह रचना छात्रावास के दिनों में मैंने लिखी थी और आज भी पढता हूँ तो हर शब्द सामयिक पाता हूँ। तस्वीर मेरी पूजनीय माताजी की है अपनी पोती के साथ...)

माँ
अब तुम्हारा खत
मुझे वो उष्मा नहीं देता
जब पहले पहल तुम्हारे आँचल से दूर
अनजानी हवाओं में तनहा हुआ था
पहले पहल जब मेरे पैरों के पास
ज़मीन हुई थी
और मेरे पंख कुतर गये थे
माँ तभी पहले पहल
जब तुम्हारा खत मिला था
तो उसे पढ पाना मुश्किल हो गया था
मेरे बेसब्र अनपढ आँसुओ के उतावलेपन में
और माँ
उस दिन सितारे फीके नहीं लगे
चाँद से दोस्ती हो गयी
और उस दिन मैं गुनगुनाता ही रहा घंटों

माँ!
जैसे जैसे सूरज मेरी छाती पर चढता जाता है
जैसे जैसे ज़िन्दगी मरुस्थल होती जाती है
मैं अपनें जले पाँव और छिली छाती लिये
किताबें ओढ लेता हूँ
दिमाग का भारीपन भुला ही देता है तुम्हे
मैं काश कि तुम्हारी गोद में सिर रख
आखें बंद करता
और वक्त की सांसें थम जाती
और माँ जब भी एसा सपना आता है न
तब मुझे अपना रूआसापन भला नहीं लगता
मेरे रोनें पर तुम्हे दुख होता होगा है न माँ...
क्या समय बीतता है तो अतीत पर
जम जाती है मोम की परत
तुम्हारे खत अब भी तो आते हैं
वैसे ही खत
वे ही नसीहतें
वे ही चिंतायें
जैसे कि तुम्हारे लिये वक्त ठहरा हुआ हो..

माँ तुम बहुत भोली हो
और भागती हुई दुनियाँ तुमसे बहुत आगे निकल चुकी है
मैं भी बदल गया हूं माँ
बडा हो गया हूं शायद
कि अब तुम्हारे खत
मुझे वो उष्मा नहीं देते
जबकि तुम्हारे खत की खुश्बू वैसी ही है
तुम्हारे खत पढ कर मन मोर नहीं होता लेकिन
बादल हो जाता है माँ
और माँ लगता है
भट्टी में तप कर कुन्दन बन निकलूं
क्योंकि दुनिया की सबसे अच्छी माँ मेरी माँ है..
लेकिन माँ
एसा भी होता है
जब दिनों तक तुम्हारे खत नहीं आते
तो दिनों तक कुछ भी अच्छा नहीं लगता
सितारे उदास हो जाते हैं
चाँद गुमसुम
एसा अब भी होता है लेकिन..

*** राजीव रंजन प्रसाद
८.१२.१९९५

5 comments:

Anonymous said...

bahut hi sawedanashil,marmk panktiya hai,bahut badhai.

Dr Parveen Chopra said...

राजीव जी , आप की मां के ऊपर लिखी यह रचना बहुत अच्छी लगी।

Udan Tashtari said...

वाह, वाकई आज भी सामायिक है. बहुत सुन्दर. माता जी को नमन.

रंजू भाटिया said...

बहुत सुंदर राजीव जी ..दिल को छू लेने वाली

rakhshanda said...

बहुत ही सुंदर राजीव जी,माँ को हजारों सलाम