Friday, May 09, 2008

क्या उपहार दूँ तुम्हें...


सोचता रहा क्या उपहार दूं तुम्हें
तुमने मुझे इतना कुछ दिया है
जिंदगी दी है
और शाम का गुलाबी आसमान
सूरज चाँद, धूप और चाँदनी
नदी और पंछी, गुंजन और हवा
अंबर की फुनगी के उपर का सपना
सागर के तल के भी भीतर सब अपना
तुम जा कर जीवन से अब रात भी देते हो
गिरती हुई दामिनी और बरसात भी देते हो

मैनें जो बंद सीप में धडकन निकाल कर
तुमको दिया था प्राण! लौटा रहे हो तुम
मैं सुर्ख उस गुलाब के काँटों को देख कर
अब सोचता हूँ दर्द जो तुमने दिया उसे
सीने में चुभा कर हो जानें दूं लहू
फिर वक्त के केनवास पर
अपनी लाल तस्वीर बना कर
सुर्ख गुलाब की एक माला डाल दूं उस पर...

*** राजीव रंजन प्रसाद
२७.०३.१९९८

4 comments:

Mohinder56 said...

राजीव जी,
चोट न लगती तो पत्थर बुत न बना होता..

जिसने जो जो दिया उसका शुक्रिया किये जा
अपनों के दिये आंसू न बहा आंखों मे पीये जा

रचना पढ कर सोच रहा था आपको शिकायत किस से है और उपहार किस को देना चाह रहे हैं :)

mamta said...

hummm अच्छी है।

कुछ खफा चल रहे है । :)

Udan Tashtari said...

बड़ी ही घायल सी रचना है, चित्रण बहुत अच्छा किया है.

————————

आप हिन्दी में लिखते हैं. अच्छा लगता है. मेरी शुभकामनाऐं आपके साथ हैं इस निवेदन के साथ कि नये लोगों को जोड़ें, पुरानों को प्रोत्साहित करें-यही हिन्दी चिट्ठाजगत की सच्ची सेवा है.

एक नया हिन्दी चिट्ठा किसी नये व्यक्ति से भी शुरु करवायें और हिन्दी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें.

शुभकामनाऐं.

-समीर लाल
(उड़न तश्तरी)

rakhshanda said...

बहुत सुंदर राजीव जी..