और भी लोग है
जिन्हे तुमसे मोहब्बत होगी
और भी दिल है,
जिन्हे तेरा दर्द भाता है
और भी आह
तेरे ज़ख्म से उभरती है
और भी टीस तुझे देख कर उतरती है...
जिन्हे तुमसे मोहब्बत होगी
और भी दिल है,
जिन्हे तेरा दर्द भाता है
और भी आह
तेरे ज़ख्म से उभरती है
और भी टीस तुझे देख कर उतरती है...
मै फिर भी ईस बियाबां मे
पत्थर तराशता फिरता हूं
मुझे, सिर्फ मुझे ही आस्था है तुम पर..
कि मन्दिर बना कर ही दम लूंगा
जिसमे तुम्हारा एक बुत रख
प्राण-प्रतिष्ठा कर दूंगा उसमें..
बोलो क्या तब तुम
सारी दुनिया से सिमट कर
एक पत्थर की मूरत नहीं हो जाओगी?
*** राजीव रंजन प्रसाद
२९.०५.१९९७
एक पत्थर की मूरत नहीं हो जाओगी?
*** राजीव रंजन प्रसाद
२९.०५.१९९७
8 comments:
वाह बहुत ही सुंदर भाव वाली रचना.. बधाई
हमेशा की तरह बहुत सुंदर लिखा है आपने राजीव जी बहुत ही भाव पूर्ण है यह
क्या बात है। आजकल कविता का मिजाज कुछ बदला हुआ लग रहा है। :)
गहरी चोट लगती है ... :-)
wah dil ke aawaz bahut hi khubsurat bhav.
जिसमे तुम्हारा एक बुत रख
प्राण-प्रतिष्ठा कर दूंगा उसमें..
इसीलिये तो पारस भी लोहे को सोना करता रहता
एक रोज शायद मिल जाये जो रस-कंचन ढूँढ़ रहा है
पत्थर तो आतुर हैं आकर लिपटें सहज बढ़े इक पग से
वह पग ही है जो पत्थर में प्राण-प्रतिष्ठा फ़ूँक रहा है
बहुत अच्छा है भाई.
आजकल एक से एक बेहतरीन ख्याल रचे जा रहे हैं आपके द्वारा. जारी रहिये, बधाई एवं शुभकामनाऐं.
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